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योगी का राज्याभिषेक

जिस समय उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में राज्य के नये मुख्यमंत्री के रूप में उग्र हिंदुत्व के नायक कहे जानेवाले योगी आदित्यनाथ का नाम तय हो रहा था, देश की राजधानी दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वतंत्रता आंदोलन की तर्ज पर विकास के लिए आंदोलन का आह्वान कर रहे थे. प्रधानमंत्री अपनी नीतियों के […]

जिस समय उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में राज्य के नये मुख्यमंत्री के रूप में उग्र हिंदुत्व के नायक कहे जानेवाले योगी आदित्यनाथ का नाम तय हो रहा था, देश की राजधानी दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वतंत्रता आंदोलन की तर्ज पर विकास के लिए आंदोलन का आह्वान कर रहे थे. प्रधानमंत्री अपनी नीतियों के जरिये देश की व्यवस्था के ‘काया-कल्प’ के आंकाक्षी हैं और उनके सपनों के नये भारत में ‘सभी के लिए अवसर’ उपलब्ध होंगे.
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद उन्होंने कहा था कि हमारे पास देश को बदलने के लिए पांच साल हैं यानी 2022 तक इसे हासिल कर लेना है, जब देश अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा होगा. भाजपा मुख्यालय में दिये गये उस संबोधन में उन्होंने यह भी दावा किया था कि वे चुनावी गणित से अप्रभावित रहते हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश के नये नेतृत्व के स्वरूप को देख कर यह स्वीकार कर पाना कुछ मुश्किल है कि भाजपा और मोदी के एजेंडे में राजनीतिक वर्चस्व को मजबूत करने के लिए विकास का मुद्दा ही अहम है.
राज्य में अभूतपूर्व जीत के बावजूद मुख्यमंत्री का नाम तय करने में जो देरी हुई, उसका कारण सिर्फ दावेदारों की बहुलता नहीं था. पार्टी एक ठोस राजनीतिक संदेश देने के साथ जातिगत संतुलन को भी साधने की कोशिश में थी. योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री के पद पर आसीन कर भाजपा ने साफ जता दिया है कि हिंदुत्व आज भी उसका सबसे प्रमुख राजनीतिक तत्व है और इससे परहेज की बात तो दूर, उसे इस राह पर और आगे बढ़ना है. उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है. भाजपा ने बीते ढाई-तीन दशकों में राष्ट्रीय राजनीति में जो जगह बनायी है, उसमें इस राज्य की केंद्रीय भूमिका रही है. ऐसे में योगी को गद्दी देकर पार्टी ने पूरे देश के लिए अपना संदेश प्रेषित किया है. यह निर्णय इस बात का स्वीकार भी है कि विधानसभा में मिलीं तीन-चौथाई सीटों के पीछे ध्रुवीकरण महत्वपूर्ण कारक रहा है. इस ध्रुवीकरण का एक आयाम जातिगत लामबंदी भी है जिसे बरकरार रखने के लिए दो उप-मुख्यमंत्रियों को नियुक्त किया गया है.
ऐसा राज्य में पहली बार हो रहा है. शायद पार्टी के भीतर संभावित गुटबंदी और खींचतान को रोकने के इरादे ने भी इस फैसले में एक भूमिका निभायी है. बहरहाल, यह सवाल फिर प्रासंगिक हो उठा है कि भाजपा और केंद्र सरकार विकास और हिंदुत्व के एजेंडे को साथ-साथ लेकर चल सकते हैं. यह सही है कि आलोचनाओं और कमियों के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी अपनी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के प्रति जनता के बड़े हिस्से में भरोसा बनाने में कामयाब रहे हैं. विपक्ष की कमजोर स्थिति और उसकी राजनीतिक इच्छाशक्ति के ह्रास ने भी मोदी को अपनी बढ़त स्थापित करने में मदद दी है.
लेकिन, यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी ने उत्तर प्रदेश चुनाव में बहुसंख्यकवाद के आधार पर अपने प्रचार-अभियान को संचालित किया था तथा विकास का मुद्दा बहुत हद तक कहीं पीछे छूट गया था. संतोष की बात है कि जीत के तुरंत बाद मोदी ने विकास पर जोर देना शुरू कर दिया, पर क्या कट्टर हिंदूवादी नेता के रूप अपनी राजनीतिक यात्रा को मुख्यमंत्री कार्यालय तक लानेवाले योगी आदित्यनाथ अपनी छवि में बदलाव की कोशिश करेंगे? जिस दबंगई से उन्होंने गोरखपुर और आसपास के इलाकों में अपने वर्चस्व को स्थापित किया है, क्या वे उसी तेवर से राज्य का शासन भी चलायेंगे? क्या प्रधानमंत्री मोदी उनका रुख विकासोन्मुखी कर सकेंगे या फिर आगामी लोकसभा चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए विकास और हिंदुत्व को समान रूप से इस्तेमाल किया जायेगा?
इन सवालों के जवाब पर देश की भावी राजनीति निर्भर करेगी. मोदी और भाजपा को यह पता है कि सिर्फ आक्रामक राजनीति से जीत नहीं हासिल की जा सकेगी क्योंकि आर्थिक विकास के मोर्चे पर असफलता मतदाताओं को उनसे दूर सकती है. अर्थव्यवस्था में संतोषजनक प्रगति के बावजूद रोजगार सृजन के मामले में उपलब्धियां निराशाजनक हैं. वर्ष 2014 के आम चुनाव में यह बड़ा अहम मुद्दा था. औद्योगिक और वित्तीय स्थिति पर नीतिगत पहलों के अलावा आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय कारक अपना असर डालते हैं. ऐसी स्थिति में कोई भी बड़ी चूक या खामी कमजोर विपक्ष के हौसले को बुलंदी दे सकती है और तब 2019 की लड़ाई उतनी आसान नहीं होगी, जितनी अभी दिखाई दे रही है.
उग्र हिंदुवाद की राजनीति भले ही भाजपा को मतों के ध्रुवीकरण के रूप में मददगार है, पर इसका अनियंत्रित हो जाना उसकी बढ़ती ताकत के लिए नुकसानदेह भी हो सकता है. इस लिहाज से जहां योगी आदित्यनाथ भाजपा के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, वहीं वे उसके पतन के एक खास कारण बनने की संभावना भी रखते हैं. केशव प्रसाद मौर्या और दिनेश शर्मा के रूप में जो दो नेता उपमुख्यमंत्री बनाये गये हैं, वे जातिगत गणित और सांगठनिक संतुलन को बनाये रखने के साथ योगी को पटरी पर रखने का काम भी करेंगे. बहरहाल, प्रदेश और देश की राजनीति का यह बेहद दिलचस्प मोड़ है.

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