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बिजनौर का वो गांव जो ‘मुजफ़्फ़रनगर’ नहीं बनना चाहता

पश्चिम उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले के गांव गारवपुर में धर्मस्थल पर लाउडस्पीकर लगाने के मुद्दे पर दो संप्रदाय आमने सामने आ गए. एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के घरों पर ‘बिकाऊ है’ तक लिख दिया. बिगड़ते हालात को देखते हुए गांव के एक पक्ष के लोग पलायन तक कर गए. लेकिन जल्द […]

पश्चिम उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले के गांव गारवपुर में धर्मस्थल पर लाउडस्पीकर लगाने के मुद्दे पर दो संप्रदाय आमने सामने आ गए. एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के घरों पर ‘बिकाऊ है’ तक लिख दिया.

बिगड़ते हालात को देखते हुए गांव के एक पक्ष के लोग पलायन तक कर गए. लेकिन जल्द ही उनकी समझ में आ गया कि फिजूल के झगड़े से कुछ मिलने वाला नहीं है.

बाद में तय हुआ कि तनाव को ख़त्म कर आपस में गले मिला जाए. हुआ भी यही. सभी ने आपस में बैठ गिले-शिकवे दूर किए और गांव की ज़िंदगी पहले की तरह ही हंसी खुशी से चलने लगी.

गांववालों ने निकाला विवाद का हल

पुलिस उपाधीक्षक नगीना महेश कुमार कहते हैं, "गारवपुर प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है. ग्रामीणों ने आपसी सौहार्द का परिचय देते हुए मामले का हल निकाल लिया है. गांव में कई दिन काफ़ी तनाव रहा. विवाद के सौहार्दपूर्ण हल से प्रशासन ने भी राहत की सांस ली है."

दरअसल, 17 जनवरी को बिजनौर की तहसील नगीना के अंतर्गत आने वाले गांव गारवपुर में हिंदू-मुस्लिमों के बीच धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर लगाने को लेकर तनाव हो गया था.

यह तनाव इतना बढ़ गया था कि बीते 7 मई को गांव से हिंदू समाज के 35 परिवारों ने अपने घरों पर मकान बिकाऊ है, लिख दिया था. इतना ही नहीं नौ मई को गांव से मान सिंह, योगेंद्र, अजयपाल के परिवार पलायन कर जंगल में तंबू गाड़ वहां रहने लगे.

कई अन्य परिवारों ने भी पलायन कर लिया था. गांव में सांप्रदायिक झगड़ा होने का ख़तरा बढ़ रहा था.

पुलिस प्रशासन भी दोनों पक्षों को समझाने में थक-हार गया था. लेकिन ना मुस्लिम मानने को तैयार थे और न ही हिंदू.

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मामले की जानकारी हुई तो भारतीय किसान यूनियन के ज़िलाध्यक्ष दिगंबर सिंह 11 मई को दोनों पक्षों से बात बातचीत करने गांव पहुंच गए.

दिगंबर सिंह कहते हैं, "मैं दोनों पक्षों के लोगों के पास गया. उन्हें समझाया, लड़ाई दंगों से कुछ हासिल नहीं होगा. मुजफ्फरनगर कांड, देख लो, क्या मिला."

दिगंबर सिंह को दोनों पक्षों को समझाने में पूरी रात गुज़र गई लेकिन अगले दिन का सवेरा ज़िले के लिए नई मिसाल बनकर आया.

वे बताते हैं, "मेरी बात हिंदू और मुस्लिमों को समझ आ गई. संगठन के हिंदू मुस्लिम पदाधिकारियों ने भी लड़ाई झगड़े के परिणाम दोनों पक्षों को बताए. उन्हें समझ आ गया था कि पहले इंसानियत है, हम सबको गांव में हमेशा एक साथ रहना है, इसलिए झगड़े से कोई लाभ मिलने वाला नहीं है."

‘अपने गांव को नहीं बनाना मुजफ़्फ़रनगर’

गांव वालों ने साफ़ कह दिया कि उन्हें अपने गांव को मुजफ़्फ़रनगर नहीं बनने देना है. बात समझ में आई तो मुस्लिम पक्ष के लोग पलायन कर गए हिंदू परिवारों के पास जंगल में पहुंच गए. आपसी गिले-शिकवे दूर किए गए.

हिंदूओं ने हंसी खुशी मुस्लिमों को गले लगाया और एक दूसरे से नाराज़गी दूर की. कुछ बुज़ुर्ग तो इस शिकवे शिकायत में रो भी पड़े.

गांव के सरफ़राज बताते हैं, "हम समझ गए कि आपस में प्यार से रहने से ही गांव का माहौल शांत रहेगा. लाउडस्पीकर कोई कहीं भी लगाए इससे फर्क नहीं पड़ता है. बस दिलों में मोहब्बत बढ़ जाए."

सरफ़राज़ ये भी बताते हैं, "हमने ख़ुद हिंदू भाइयों के घर पहुंच कर घरों पर ‘बिकाऊ है’, लिखे को पेंट कर साफ़ किया."

वहीं एक अन्य ग्रामीण जोगेंद्र ने कहा, "हम गांव में पहले की तरह मोहब्बत चाहते हैं. नासमझी में कुछ ग़लत हो गया लेकिन अब गांव में सांप्रदायिक सौहार्द पहले की तरह क़ायम होगा."

वहीं भारतीय किसान यूनियन से जुड़े लोगों का दावा है कि महेंद्र सिंह टिकैत ने एक समय में मेरठ दंगों को ख़त्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उनकी विरासत को आधार बनाकर राजनीति करने के लिए ज़रूरी है कि सांप्रदायिक सद्भाव को बचाने के लिए हरसंभव कोशिश होती रहे.

सहारनपुर में ‘तूफ़ान से पहले की ख़ामोशी’ तो नहीं!

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