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श्रद्धांजलि : नहीं रहे राजनीति के संत एके राय

धनबाद के पूर्व सांसद और मार्क्सवादी समन्वय समिति (मासस) के संस्थापक एके राय का रविवार को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया. झारखंड के राजनीतिक संत माने जाने वाले श्री राय ने आज पूर्वाह्न केंद्रीय अस्पताल जगजीवन नगर में अंतिम सांस ली. उनकी उम्र लगभग 84 वर्ष थी. वह अविवाहित थे. उनके पार्थिव शरीर […]

धनबाद के पूर्व सांसद और मार्क्सवादी समन्वय समिति (मासस) के संस्थापक एके राय का रविवार को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया. झारखंड के राजनीतिक संत माने जाने वाले श्री राय ने आज पूर्वाह्न केंद्रीय अस्पताल जगजीवन नगर में अंतिम सांस ली. उनकी उम्र लगभग 84 वर्ष थी. वह अविवाहित थे.

उनके पार्थिव शरीर को आम जनता के दर्शन के लिए मासस के पुराना बाजार स्थित केंद्रीय कार्यालय में रखा गया है. दिवंगत वाम नेता का 22 जुलाई को राजकीय सम्मान के साथ मोहलबनी घाट पर अंतिम संस्कार होगा.
चार दिनों से कोमा में थे राय
मार्क्सवादी चिंतक पूर्व सांसद एके राय पिछले एक दशक से बीमार चल रहे थे. उन्हें आठ जुलाई को केंद्रीय अस्पताल के सीसीयू में भर्ती कराया गया था. सांस लेने में तकलीफ की शिकायत के बाद भर्ती हुए पूर्व सांसद की स्थिति लगातार बिगड़ती रही. दो दिनों से तो उन्हें स्लाइन चढ़ाने में भी परेशानी आ रही थी. उपचार कर रहे डॉक्टरों के अनुसार पूर्व सांसद को सेप्टीसिमिया हो गया था.
लगातार शरीर के सारे अंग को जकड़ रहा था. पिछले चार दिनों से कोमा में थे. शुक्रवार को सिर्फ एक बार आंखें खोल पायी थी. शनिवार आधी रात के बाद स्थिति बिगड़ने लगी. मासस के जिलाध्यक्ष हरि प्रसाद पप्पू के अनुसार आज सुबह 10.45 बजे डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.
अंतिम संस्कार की तैयारी में जुटे समर्थक
श्री राय के निधन के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की आपात बैठक हुई. बैठक के बाद पार्टी के जिलाध्यक्ष ने बताया कि सोमवार को सुबह आठ बजे मासस केंद्रीय कार्यालय से अंतिम यात्रा शुरू होगी.
रास्ते में यह यात्रा नुनूडीह (पाथरडीह), जहां श्री राय पिछले एक दशक से रह रहे थे, में रूकेगी. वहां से निकल कर मोहलबनी घाट जायेगी. दोमादर नदी के तट पर अंतिम संस्कार होगा.
सीएम ने राजकीय सम्मान की घोषणा की
श्री राय के निधन पर मुख्यमंत्री रघुवर दास ने ट्वीट कर गहरा शोक व्यक्त किया है. उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा कि श्री राय के निधन से झारखंड को अपूर्णीय क्षति हुई है. उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ होगा. राज्य सरकार की ओर से इस मौके पर पर्यटन मंत्री अमर बाउरी शामिल होंगे. प्रशासन ने इसकी तैयारी शुरू कर दी है.
सीएम के ट्वीट के बाद जिला प्रशासन की तरफ से राजकीय सम्मान की तैयारी शुरू हो गयी है.
जीवन परिचय
पूरा नाम : अरुण कुमार राय
पिता : स्व. शिवेश चंद्र राय
माता : स्व. रेणुका राय
शिक्षा : एमएससी (टेक),
कोलकाता यूनिवर्सिटी
जन्म : 15 जून 1935, ग्राम-सपूरा, राजशाही (अब बांग्लादेश)
विधायक : तीन बार सिंदरी विधानसभा क्षेत्र से (1967, 1969 व 1971)
सांसद : तीन बार
(1977, 1980 व 1989)
राजशाही (बांग्लादेश) में जन्मे एके राय का परिवार 1947 में आजादी के बाद कोलकाता शिफ्ट हो गया. इनके पिता शिवेश चंद्र राय कोलकाता के प्रसिद्ध अधिवक्ता थे. जबकि मां रेणुका रानी स्वतंत्रता सेनानी. कोलकाता विवि से इंजीनियरिंग के बाद राय दा सिंदरी स्थित पीडीआइएल में नौकरी करने आये.
यहां ठेका मजदूरों की व्यथा से व्यथित होकर नौकरी छोड़ राजनीति में कूदे. माकपा के टिकट पर पहली बार 1967 में सिंदरी से विधायक बने. पुन: 1969 में दूसरी बार तथा 1972 में तीसरी बार जनवादी संग्राम समिति के बैनर तले सिंदरी के विधायक चुने गये.
माकपा से अलग होने के बाद मार्क्सवादी समन्वय समिति (मासस) का गठन किया. जेपी आंदोलन के दौरान विधानसभा से इस्तीफा दे कर जेल गये. जेल में रहते हुए पहली बार वर्ष 1977 में लोकसभा का चुनाव लड़े और धनबाद के सांसद चुने गये. फिर 1980 में दूसरी बार तथा 1989 में तीसरी बार सांसद चुने गये. मासस के संस्थापक अध्यक्ष के साथ-साथ बिहार कोलियरी कामगार यूनियन के भी अध्यक्ष रहे.
झारखंड आंदोलन को मुकाम तक पहुंचानेवाले राजनीतिक संगठन झारखंड मुक्ति मोर्चा के सूत्रधार रहे.
अमर हो गये हमारे राय दा
पूर्व सांसद एके राय (राय दा) नहीं रहे. राय दा का निधन न सिर्फ धनबाद कोयलांचल व झारखंड प्रदेश, बल्कि पूरे देश की राजनीति के एक युग का अवसान है.
उस राजनीति के युग का अवसान, जिसकी बुनियाद में नैतिकता थी, विचारधारा थी, चरित्र था, मूल्य थे, सिद्धांत थे, आदर्श था. दूसरे नजरिए से देखें, तो राय दा अमर हो गये. 52 वर्षों की लंबी राजनीतिक पारी में राय दा ने जो प्रतिमान गढ़े हैं, उसके कारण राय दा कभी मर नहीं सकते.
पावर, पैसा, भ्रष्टाचार व सत्तालोलुपता का पर्याय बन चुकी भारतीय राजनीति में जब-जब नैतिकता, सिद्धांत, मूल्य व विचारधारा की खोज होगी, तब-तब राय दा एक मिसाल के रूप में सामने आयेंगे. बीते तीन दशक के दौरान यह मुहावरा अस्तित्व में आया कि ‘राय दा जैसा होना मुश्किल ही नहीं, असंभव है.’ यह क्यों?
क्योंकि, राय दा की जिंदगी की लंबी पारी जनांदोलनों में गुजरी. जेल गये. क्रांति की पृष्ठभूमि से न सिर्फ लोकतांत्रिक राजनीति में आये, बल्कि सफल भी रहे. लोकतंत्र में जनता ने राय दा को उन पदों पर पहुंचाया, जहां पहुंचना देश के करोड़ों-अरबों लोगों का सपना होता है, मगर उनके ‘व्यक्तित्व’ पर उनकी राजनीतिक ताकत कभी हावी नहीं हो सकी.
क्योंकि, प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जनता की ओर से चुने जाने के बाद राजसी ठाट-बाट से भरी जिंदगी जीने वाले देश के राजनेताओं की भीड़ से राय दा हमेशा अलग खड़े रहे. राय दा का जीवन संघर्षों का दस्तावेज होने के साथ-साथ खुली किताब रहा, जिसे कोई भी पढ़ सकता है.
क्योंकि, जनता का मिला अभूतपूर्व समर्थन राय दा के अंदर कभी भी अंश मात्र का अहंकार पैदा नहीं कर पाया. संवैधानिक पदों पर रहते हुए राय दा ने कभी भी उसका दुरुपयोग नहीं किया.
क्योंकि, राय दा की ‘कथनी’ और ‘करनी’ में कभी कोई फर्क नहीं दिखा. जो बोला, उसे हू-ब-हू अपनाया. खाना से लेकर पहनावा तक एकदम साधारण रहा. जीवनपर्यंत आम आदमी का जीवन जीना पसंद किया.
क्योंकि, राय दा का जीवन ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ का प्रतीक बना रहा. और राय दा कबीर के सूत्र ‘ज्यों-की-त्यों धर दीनी चदरिया’ की तर्ज पर बढ़ती उम्र के कारण राजनीति सेे दूर हुए.
ईमानदारी और सादगी की प्रतिमूर्ति
राय दा तीन बार विधायक (1967, 1969 व 1971) और तीन बार सांसद (1977, 1980 व 1989) रहे हैं. बावजूद इसके राय दा के रहन-सहन और उनकी विचारधारा में कोई बदलाव नहीं आया. तीन-तीन बार विधायक व सांसद रहे, मगर कोई गाड़ी नहीं. एक साइकिल तक नहीं रही. कहीं जमीन नहीं. कोई घर नहीं. कोई बैंक एकाउंट नहीं. पहनावा मामूली कुरता-पायजामा, वह भी बगैर प्रेस किया.
पैर में प्लास्टिक की चप्पलें. बिना खटिया-पलंग के जमीन पर चटाई बिछा कर सोते रहे. हवा के लिए हाथ का पंखा. घर-ऑफिस कहीं भी बिजली से चलने वाला पंखा नहीं. भीषण गर्मी में भी बिना पंखे के सोते रहे. घर-ऑफिस की खुद सफाई करते रहे. कपड़े भी खुद धोते रहे.
विधायक-सांसद रहते हुए राय दा ने कभी किसी तरह की सरकारी सुविधा नहीं ली. कभी कोई सुरक्षाकर्मी व अंगरक्षक नहीं लिया. विधायक-सांसद रहते हुए हमेशा आम जनता की तरह बस-टेंपो-ट्रेकर में सफर किया. किसी कैडर की मोटरसाइकिल पर घुमे. बतौर सांसद नयी दिल्ली ट्रेन से सफर किया, वह भी स्लीपर में.
फर्स्ट क्लास तो दूर की बात है, कभी एसी बोगी में नहीं चढ़े. राय दा ने हर उन सुविधाओं का त्याग किया, जिससे देश की गरीब जनता वंचित रही है.
नहीं लिया पेंशन : राय दा पूरे देश में पहले और अब तक के संभवत: इकलौते पूर्व विधायक व पूर्व सांसद रहे, जिन्होंने पूर्व विधायकों-सांसदों को मिलनेवाला पेंशन नहीं लिया. राय दा का तर्क था कि ‘विधायक-सांसद कोई नौकरी नहीं है.
कोई राजनेता कभी रिटायर नहीं होता. यदि कोई विधायक-सांसद किसी चुनाव में हार जाता है, तो उसे पूर्व बता कर पेंशन दिया जाता है. इसके बाद के चुनाव में उसके सामने चुनाव लड़ने का अवसर होता है. फिर वह रिटायर कैसे हुआ? फिर उसे पेंशन क्यों मिले?’ तीन दशक पूर्व ही राय दा ने राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर पूर्व विधायकों-सांसदों को मिलनेवाला पेंशन बंद कराने की मांग की थी.
सन 1947 की आजादी के बाद भारत देश में लोकतंत्र का उजाला फैला. इस लोकतंत्र की कमान राजनीति ने संभाली. राजनीति यानी एक ऐसी संपूर्ण व्यवस्था, जिसका मूल उद्देश्य लोकहित था. एक ऐसे सशक्त राष्ट्र के निर्माण का सपना संजोया गया, जिसमें जनता की खुशहाली ही सर्वोपरि मानी गयी.
लेकिन 72 वर्षों बाद आज हालात क्या हैं? विधायक-सांसद-मंत्री बन जाने का अर्थ है-सात पुश्तों के लिए मजबूत आर्थिक आधार तैयार हो जाना. और अब विधायक-सांसद-मंत्री तो दूर की बात है, नगर निकाय में पार्षद या फिर पंचायत में मुखिया होने का अर्थ ‘लाखों-करोड़ों’ की लॉटरी लग जाने जैसा होता गया है.
जनसरोकार से दूर राजनीति ‘कॉरपोरेट प्रोफेशन’ जैसी बनती गयी है. विधायक, सांसद से लेकर मुखिया तक के चुनाव में भारी खर्च पूरी तरह मुनाफा के उद्देश्य से किसी व्यवसाय में निवेश जैसा रहा है.
दुनिया के सबसे प्रगतिशील व समृद्ध भारतीय लोकतंत्र में चुनाव-मतदान एक दुर्भाग्यपूर्ण नाटक बनता गया है. देश के उप प्रधानमंत्री रहे देवीलाल ने कहा था-‘सिद्धांत कुछ नहीं होता, सब कुछ सत्ता के लिए होता है. मैनिफेस्टो (चुनावी घोषणा पत्र) का कवर बदलता है, पर मजमून कभी नहीं बदलता.’
भारत के कोने-कोने में सत्ता का सुख भोगनेवालों की एक ऐसी जमात है, जिनके पास किसी तरह की राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धता नहीं रही. कोई नीति-सिद्धांत नहीं. गठबंधन बनते रहे स्वार्थ को लेकर, बिखरते रहे स्वार्थ को लेकर. सारा कुछ पैसे की ताकत से तय होता रहा है. पैसा यानी ताकत यानी प्रतिष्ठा-यही आम धारणा बनी है.
गरीबों-कमजोरों-समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों की आवाज सुनने वाला कोई नहीं रहा. कास्ट, क्रिमिनल, करप्शन और करेंसी के बल पर राजनीति की दशा-दिशा तय होती रही है. इस घटाटोप अंधकार में घिरी भारतीय राजनीति में राय दा का जीवन हमेशा ‘सूर्य की किरणों’ के समान प्रकाश फैलानेवाला रहा और आगे भी रहेगा.
राज्यपाल ने जताया शोक
राज्यपाल श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने पूर्व सांसद एके राय के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है तथा उनके परिजनों के प्रति संवेदना व्यक्त की है.
झारखंड राजनीति के भीष्म पितामह पूर्व सांसद एके राय के निधन से मर्माहत हूं. स्व. राय सादगी और ईमानदारी की एक मिसाल थे. उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे.
अर्जुन मुंडा, जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्री
धनबाद से तीन बार सांसद रहे एके राय के निधन से दुखी हूं. उनके निधन से मुझे व्यक्तिगत क्षति हुई है. हमारे बीच एक आंदोलनकारी नेता नहीं रहे. श्रमिकों के उत्थान के लिए स्व. राय हमेशा संघर्ष करते रहे. दु:ख की इस घड़ी में झामुमो महापरिवार उनके परिजनों के साथ है.
शिबू सोरेन, झामुमो प्रमुख
एके राय मजदूरों की आवाज थे. उनके संघर्ष को लंबे समय तक याद रखा जाएगा. दुःख की इस घड़ी में स्व. राय के परिजनों को धैर्य एवं दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करे.
हेमंत सोरेन, पूर्व मुख्यमंत्री

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