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पं दीनदयाल का एकात्म मानववाद

अनुपम त्रिवेदी राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक भारतीय राजनीति को नया वैचारिक धरातल देनेवाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय का यह जन्मशती वर्ष है. विगत 25 सितंबर को उनकी सौंवी जन्म-जयंती थी. इस अवसर पर सत्तारूढ़ भाजपा और सरकार ने विधिवत अनेक कार्यक्रम कर साल भर चलनेवाले आयोजनों का औपचारिक प्रारंभ किया, पर भाजपा से परे अन्य दलों और सामान्य-जन […]

अनुपम त्रिवेदी
राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक
भारतीय राजनीति को नया वैचारिक धरातल देनेवाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय का यह जन्मशती वर्ष है. विगत 25 सितंबर को उनकी सौंवी जन्म-जयंती थी. इस अवसर पर सत्तारूढ़ भाजपा और सरकार ने विधिवत अनेक कार्यक्रम कर साल भर चलनेवाले आयोजनों का औपचारिक प्रारंभ किया, पर भाजपा से परे अन्य दलों और सामान्य-जन के बीच इस पर न के बराबर चर्चा हुई. जैसे कि दीनदयाल सिर्फ भाजपा के ही हों!
दुर्भाग्य से 20वीं सदी के इस विलक्षण विचारक के बारे में देश में बहुत कम जानकारी है. जो जानते भी हैं, वे भी इतना ही जानते हैं कि भाजपा रूपी वटवृक्ष की जड़ों को जनसंघ के रूप में सींचनेवाले उपाध्याय ही थे.
जनसंघ के संस्थापक डाॅ श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जनसंघ की स्थापना के दो वर्ष के भीतर ही कश्मीर की जेल में मृत्यु हो गयी या शायद हत्या कर दी गयी. उसके बाद पं दीनदयाल ने अकेले विषम परिस्थितियों में 16 वर्ष तक अत्यंत परिश्रम से जनसंघ को खड़ा किया. ‘स्व’ के लिए कुछ न चाह कर अपना सारा जीवन संगठन और देश को दे दिया. 1968 में अध्यक्ष बनने के दो महीने बाद ही रेल-यात्रा के दौरान उनकी निर्मम हत्या कर दी गयी और देश हमेशा के लिए एक प्रखर चिंतक और विलक्षण राजनेता से वंचित हो गया.
52 वर्ष की उम्र में पं दीनदयाल चले गये, पर अपने पीछे इतना कुछ छोड़ गये कि इस देश के राष्ट्रवादी उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकेंगे. जिस संगठन के पौधे को उन्होंने सींचा, वह आज भाजपा के रूप में हमारे सामने है. लेकिन, जो विचार उन्होंने दिये, वे पूरे देश के हैं. उनकी विचारधारा का मुख्य सोपान था उनका दिया ‘एकात्म मानव-दर्शन’ का सिद्धांत, जिसे आज भाजपा अपनी विचारधारा का आधार कहती है. क्या है यह एकात्म मानव-दर्शन? मूलतः यह भारतीय संस्कृति, विचार और दर्शन का निचोड़ है. जिस समय पूरा विश्व पूंजीवाद और साम्यवाद की अच्छाई-बुराई की बहस में उलझा था, पं दीनदयाल ने हस्तक्षेप करते हुए इन दो चरम विचारधाराओं से इतर एकात्म मानववाद की सम्यक अवधारणा दी.
पूंजीवाद ने मानव को एक आर्थिक इकाई माना और उसके समाज से संबंधों को एक अनुबंध से ज्यादा कुछ नहीं समझा, साम्यवाद ने व्यक्ति को मात्र एक राजनीतिक और कार्मिक इकाई माना. साम्यवाद के प्रवर्तक मार्क्स ने मानव-समाज को एक विखंडित आपसी संबंध-विहीन भीड़ की तरह देखा, जिसमें एक वर्ग अपना अाधिपत्य जमाने के लिए स्वार्थपूर्ण नियम और प्रथाओं को लागू करता है. समाजवाद में भी व्यक्ति को एकांगी माना गया. मूलतः पश्चिम की सभी विचारधाराएं संक्रेंद्रित (कन्सेंट्रिक) हैं. हालांकि, व्यक्ति उन सबके मूल में है, लेकिन उससे कुछ परे हट कर परिवार, समुदाय और राज्य हैं, जो पश्चिमी विचारकों के अनुसार, एक-दूसरे से अलग हैं.
इनसे परे, एकात्म मानववाद में व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और फिर मानवता और चराचर सृष्टि का विचार किया गया है. ‘एकात्म मानववाद’ इन सब इकाइयों में अंतर्निहित, परस्पर-पूरक संबंध देखता है. भारतीय चिंतन जिस तरह से सृष्टि और समष्टि को एक समग्र रूप में देखता है, वैसे ही पं दीनदयाल ने मानव, समाज और प्रकृति व उसके संबंध को समग्र रूप में देखा. मनुष्य को ‘एकात्म मानव-दर्शन’ में तन-मन-बुद्धि और आत्मा का सम्मिलित स्वरूप माना गया. मानव की यह समग्रता ही उसे समाज के लिए उपयुक्त और उपादेय बनाती है. भारतीय चिंतन द्वारा प्रतिपादित धर्म, अर्थ, काम के प्रतीकों के रूप में मानव आत्मा को मोक्ष की ओर प्रवृत्त करनेवाला विचार ही ‘एकात्म मानववाद’ में समाविष्ट है. समग्र मानव को निर्मित करनेवाले इन चार तत्वों में एकात्मता अपेक्षित है, क्योंकि यही एकात्मता मानव को कर्मठता की ओर प्रेरित कर उद्यमी बना सकती है, जिससे समाज का हित-संवर्धन संभव है.
ऐसा नहीं कि पं दीनदयाल का ‘एकात्म मानववाद’ महज एक वैचारिक अनुष्ठान था. इसमें राजनीति, समाजनीति, अर्थव्यवस्था, उद्योग, उत्पादन, शिक्षा, लोक-नीति आदि पर व्यापक और व्यावहारिक नीति-निर्देश शामिल थे, जिन्हें आज केंद्र में शाषित भाजपा सरकार अपना मार्ग-दर्शक सिद्धांत मानती है. प्रधानमंत्री मोदी द्वारा पेश की गयीं ज्यादातर योजनाएं- दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण-कौशल योजना, स्टार्ट-अप व स्टैंड-अप इंडिया, मुद्रा बैंक योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, सांसद आदर्श-ग्राम योजना, मेक-इन-इंडिया आदि एकात्म मानववाद के सिद्धांतों से प्रेरित हैं. ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसा नारा भी उन्हीं की ‘अंत्योदय’ (समाज के अंतिम व्यक्ति का उत्थान) की अवधारणा पर आधारित है.
पं दीनदयाल एक युग-द्रष्टा थे. आजादी के बाद जब उन्होंने भारत के विकास के लिए ग्रामीण-विकास और लघु-उद्योग को बढ़ावा देने की बात की, तो किसी ने ध्यान नहीं दिया. 1950 के दशक में जब बड़े-बड़े सार्वजनिक निर्गमों की स्थापना सोवियत रूस की नकल पर ‘महालनोबिस’ माॅडल पर हो रही थी, उन्होंने इसका विरोध किया था. उनके विरोध का आधार था भारत के संदर्भ में पश्चिम की अंधी नकल. वे बड़े उद्योगों के विरोधी नहीं थे, परंतु वे भारत की तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर लघु-उद्योगों को बढ़ावा देना चाहते थे, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधरे. वे मानते थे कि देश की औद्योगीकरण का आधार उसकी परिस्थितियां व जरूरतें हों, न कि औरों की नकल.
आज लगभग 60 वर्ष बाद उनकी बात अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही है. हमारे गांव और गरीबी जहां थी, कमोबेश अभी भी वहीं पर है, जबकि ज्यादातर बड़े सार्वजानिक उद्गम सफेद हाथी साबित हुए हैं. वहीं आज देश लघु और मझोले उद्योगों की महत्ता को समझ रहा है. आज हमारे कुल औद्योगिक उत्पाद का 40 प्रतिशत और निर्यात का 45 प्रतिशत इन छोटे उद्योगों से ही आता है. काश हमारे नीति-नियंताओं ने पं दीनदयाल उपाध्याय जी की बात तब सुनी होती, तो आज भारत का आर्थिक और औद्योगिक परिदृश्य ही कुछ और होता.अब समय आ गया है कि पूरा देश इस पुरोधा को जाने, समझे और उनके दिये चिंतन पर व्यवहार करे. पं दीनदयाल सिर्फ एक दल के नहीं हैं, वे पूरे देश के हैं. हम सभी के हैं

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