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बलूचिस्तान : मोदी का मास्टर स्ट्रोक

अनुपम त्रिवेदी राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक इस वर्ष स्वतंत्रता-दिवस पर जब प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में बलूचिस्तान, गिलगिट और पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर का जिक्र किया, तो सब हतप्रभ रह गये. लाल-किले की प्राचीर से ऐसा पहली बार हुआ था. अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लगभग सारे राजदूत व सैन्य-प्रतिनिधि वहां मौजूद थे. इसलिए पूरे देश के साथ-साथ […]

अनुपम त्रिवेदी
राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक
इस वर्ष स्वतंत्रता-दिवस पर जब प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में बलूचिस्तान, गिलगिट और पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर का जिक्र किया, तो सब हतप्रभ रह गये. लाल-किले की प्राचीर से ऐसा पहली बार हुआ था. अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लगभग सारे राजदूत व सैन्य-प्रतिनिधि वहां मौजूद थे. इसलिए पूरे देश के साथ-साथ संपूर्ण विश्व तक संभवतः यह संदेश पहुंचा कि भारत अब पलटवार के मूड में है.
ज्ञातव्य है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ दिन पहले ही कश्मीर मसले पर ऑल पार्टी मीटिंग में कहा था कि ‘पीओके’ अर्थात पाक के कब्जेवाला कश्मीर भी भारत का हिस्सा है. साथ ही उन्होंने कहा कि गिलगिट-बाल्टिस्तान और बलूचिस्तान में पाकिस्तान जो हिंसा कर रहा है, उसके बारे में भी बात होनी चाहिए. इसी वक्तव्य के बाद पीओके और बलूचिस्तान के लोगों ने मोदी का शुक्रिया अदा किया था.
जहां देश-विदेश में इसकी सार्थक प्रतिक्रिया हुई, वहीं पाकिस्तान बौखला गया. हमारे अंदरूनी मामलों में दखल को अपनी सरकारी नीति बनानेवाला पाक हम पर अपने मामलों में हस्तक्षेप का आरोप लगाने लगा. यहां देश में भी विपक्षी दल, कम्युनिस्टों को छोड़ कर, सरकार के साथ आ खड़े हुए.
कांग्रेस ने पहले विरोध किया फिर समर्थन. शायद उन्हें याद आ गया कि कैसे इंदिरा जी ने अंतरराष्ट्रीय विरोध और देश में समस्याओं के बावजूद भी बांग्लादेश की आजादी के लिए मुक्ति-वाहिनी का साथ दिया था. भाजपा ने बिना चूके कांग्रेस को 2009 के शर्म-अल-शेख की याद भी दिला दी, जहां पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाक के साथ एक साझा बयान पर दस्तखत कर आये थे, जिसमें बलूचिस्तान में भारत की दखलंदाजी का जिक्र था. तब इसे भारत की डिप्लोमेटिक चूक माना गया था.
इस बीच, सबसे सार्थक प्रतिक्रिया आयी खुद बलूचिस्तान से. निर्वासित बलोच नेताओं से लेकर बलोच नागरिकों ने प्रधानमंत्री के वक्तव्य का स्वागत किया और भारत को धन्यवाद दिया. जगह-जगह बलोच लोगों ने हमारे स्वाधीनता-दिवस को भी मनाया और सोशल-मिडिया पर तसवीरें डालीं.
ट्विटर पर बलूचिस्तान को लेकर चलनेवाले ट्रेंड्स की बाढ़ आ गयी. बलूचिस्तान रिपब्लिकन पार्टी ने मामला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने के लिए प्रधानमंत्री के बयान की तारीफ की. इसके प्रमुख नवाब बुगती ने कहा कि एक जिम्मेवार पड़ोसी और दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के तौर पर भारत को बलूचिस्तान में दखल देना चाहिए.
प्रमुख महिला बलोच नेता नेला कादरी ने कहा कि भारत ने दुनिया में इज्जत कमाई है, जबकि पाकिस्तान ने नफरत. मोदी एक बोल्ड और मजबूत नेता हैं और बलूचिस्तान की आजादी भारतीय हित में है. इसलिए भारत और मोदी जी को बलूचिस्तान के मामले में गंभीरता से सोचने की जरूरत है. इंदिरा गांधी विरोध के बाद भी बांग्लादेशियों के साथ खड़ी रही थीं, तो मोदी ऐसा क्यों नहीं कर सकते हैं? यदि मोदी मजबूत कदम उठाते हैं, तो उन्हें पूरी दुनिया से समर्थन मिलेगा.
आज बलूचिस्तान के हालात कमोबेश 1971 के बांग्लादेश जैसे ही हैं. कश्मीर में मानवाधिकार हनन का आरोप लगानेवाला पाकिस्तान बलूचिस्तान में मानवाधिकारों को निर्दयता से कुचल रहा है. विरोध की आवाज उठानेवाले किसी भी व्यक्ति को सरेआम गोली मार दी जाती है या चौराहे पर फांसी पर लटका दिया जाता है. पिछले दस वर्षों में 18,903 लोगों का कत्ल हुआ है.
1948 से अब तक तीन लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं. प्राकृतिक संसाधनों से अत्यंत समृद्ध यह प्रांत पाक का सबसे गरीब प्रांत है. 1948 से पाक का इस पर अनाधिकृत कब्जा है. प्राकृतिक गैस, कोयला, तांबा, सल्फर, माइका और संगमरमर के यहां प्रचुर भंडार हैं, जिसकी खुलेआम लूट हो रही है, पर पाकिस्तान के बजट का मात्र नौ प्रतिशत यहां खर्च होता है.
पर क्या यह पाकिस्तान का अंदरूनी मामला नहीं है? हमारे प्रधानमंत्री को यह मुद्दा उठाने की क्या आवश्यकता थी?
दरअसल, यह एक बड़ा सोचा-समझा कदम था. जिस तरह से पाकिस्तान हमेशा कश्मीर का राग अलापता है, जिस तरह से लगातार हमारे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है, उसे देखते हुए मोदी सरकार के पास पाक को उसके ही घर में अनावृत्त करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा. इसीलिए प्रधानमंत्री समेत प्रमुख मंत्रियों राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, मनोहर पर्रीकर सभी ने ऐसी बातें कीं, जिससे बहस ही बदल गयी. देश-दुनिया में अब कश्मीर की नहीं, इसकी चर्चा है कि पीओके और बलूचिस्तान को लेकर भारत क्या कर सकता है?
ऐसा भी नहीं है कि यह कोई त्वरित प्रतिक्रिया है. हमारी सरकार और रणनीतिकार लंबे समय से इस विषय पर काम कर रहे हैं. सोशल-मीडिया में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल का एक भाषण बहुत चर्चा में है, जिसमें वे यह कहते हुए दिख रहे हैं कि अगर पाकिस्तान 26/11 के मुंबई हमले जैसी गलती दोबारा करेगा, तो बलूचिस्तान उसके हाथ से चला जायेगा.
हमारे यहां के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी इसको बलूचिस्तान में भारत के हस्तक्षेप का सबूत मानते हैं, पर अमन के कबूतर उड़ानेवाले ये लोग भूल जाते हैं कि पाकिस्तान का एक ही एजेंडा है- भारत को तोड़ने, उसे बरबाद करने का. वे भूल गये हैं जुल्फिकार अली भुट्टो के उस मिशन-स्टेटमेंट को, जिसमें भारत से हजार साल तक लड़ने की बात कही गयी थी.
रणनीतिक रूप से भी बलूचिस्तान को समर्थन हमारे दूरगामी हितों के लिए लाभदायक है. चीन जिस ग्वादर-पोर्ट को विकसित कर उस तक अपने शिन्ग्यांग प्रांत से बरास्ता गुलाम-कश्मीर, सड़क व रेल मार्ग बना रहा है, वह बलूचिस्तान में ही है.
प्रत्यक्ष में भले ही चीन यह व्यापार के नाम पर कर रहा हो, पर असलियत में यह भारत को घेरने की तैयारी है. इसलिए शायद प्रधानमंत्री ने बलूचिस्तान के मार्फत चीन पर भी निशाना साधा है.
प्रधानमंत्री मोदी के बयान से बाजी पलट गयी है. स्थिति यह बन गयी है कि अब जब भी पाकिस्तान कश्मीर पर बात करने की मांग करेगा, तो बात तो जरूर होगी, पर सिर्फ कश्मीर पर नहीं, बल्कि पाक के कब्जेवाले गुलाम कश्मीर, बलूचिस्तान, स्कार्दू और गिलगिट-बाल्टिस्तान पर भी होगी. प्रधानमंत्री मोदी का यह एक रणनीतिक मास्टर-स्ट्रोक है.

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