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किंगमेकर के किरदारों का दौर

प्रभु चावला वरिष्ठ पत्रकार prabhuchawla @newindianexpress.com राजनीति का अंतिम कर्म सत्ता है. राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा से युक्त छोटे-बड़े सभी किस्म के सभी नेताओं का सपना इंद्रप्रस्थ के चमचमाते सिंहासन पर आसीन होना ही होता है. अब जबकि आमचुनावों के परिणामों को सिर्फ दो सप्ताहों की प्रतीक्षा शेष रह गयी है, कई नेता ‘किंगमेकर’ की भूमिकाओं में […]

प्रभु चावला
वरिष्ठ पत्रकार
prabhuchawla
@newindianexpress.com
राजनीति का अंतिम कर्म सत्ता है. राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा से युक्त छोटे-बड़े सभी किस्म के सभी नेताओं का सपना इंद्रप्रस्थ के चमचमाते सिंहासन पर आसीन होना ही होता है. अब जबकि आमचुनावों के परिणामों को सिर्फ दो सप्ताहों की प्रतीक्षा शेष रह गयी है, कई नेता ‘किंगमेकर’ की भूमिकाओं में उतर गये हैं. चालू आम चुनाव विचारों एवं आदर्शों का संघर्ष नहीं है. सभी 542 निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं के सामने विकल्प कुछ विचित्र ढंग से केवल दुहरे रूप में ही मौजूद है-यह कि वह पीएम मोदी अथवा एक प्रांतीय क्षत्रप में किसी एक का चुनाव करे.
उदाहरण के लिए मोदी एवं उनकी पार्टी के नेता मतदाताओं को बार-बार यह याद दिला रहे हैं कि कमल के बटन को दबाने से उनका वोट सीधे मोदी के खाते में जायेगा. दूसरी ओर विपक्षी वीरों में ममता, अखिलेश, चंद्रबाबू नायडू, मायावती आदि शामिल हैं.
हालांकि, उनमें से किसी ने भी अब तक सौदेबाजी के पैंतरे प्रारंभ नहीं किये हैं, प्रधानमंत्री आवास के भावी वासियों में उनके नाम शुमार किये जा रहे हैं. 435 सीटों पर मतदान समाप्त हो चुका है. अनुभवी राजनीतिक भविष्यवक्ता हवा का रुख भांपने में लगे हैं. उधर कार्यकर्ताओं की मानसिकता तथा भंगिमाएं देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि देश को एक त्रिशंकु जनादेश भी प्राप्त हो सकता है.
बाकी बचे 107 सीटों पर निर्णायक पलों की मोदी सुनामी भले ही अंतिम परिणाम पलट दे, मगर ऐसा केवल सीमित रूप में ही संभव हो सकेगा.
कुछ कट्टर अपवादों को छोड़ दें, तो टीवी चैनलों समेत भारतीय मीडिया ने तटस्थता के तटों तक जा पहुंची एक हैरानी भरी संजीदगी अपना ली है. क्या यह अब तक संपन्न पांच एक्जिट पोल का नतीजा है? जो भी हो, इक्के-दुक्के क्षेत्रीय क्षत्रपों ने इसी महीने राज्याभिषेक के दिवास्वप्न देखने भी शुरू कर दिये हैं. उदाहरण के लिए गैर-कांग्रेस एवं गैर-भाजपा गठबंधन के स्वयंभू शिल्पकार तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (केसीआर) को लिया जा सकता है.
उनके राज्य में लोकसभा के लिए सिर्फ 17 सीटें हैं, पर उन्हें यकीन है कि दिसंबर 2018 के विधानसभा चुनावों में उनकी शानदार विजय ने उनकी स्थिति अन्य नामचीन क्षेत्रीय एवं विपक्षी नेताओं की बराबरी तक ला दी है. यह भी विडंबना है कि अपनी भाजपा-समर्थक छवि के बावजूद उनकी इस अनोखी मुहिम के इंजन के लिए उनकी पसंद धुर मोदी-भाजपा विरोधी एवं केरल के मार्क्सवादी मुख्यमंत्री पिनराई विजयन पर जा टिकी है.
विजयन को अपने पाले में करने के बाद उनके अगले निशाने पर डीएमके अध्यक्ष एमके स्टालिन हैं, कांग्रेस जिनकी चुनावी साथी है. इसमें कोई शक नहीं कि केसीआर अपने राज्य के निर्विवाद नेता हैं. हालांकि, उन्होंने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं, पर राजनीतिक पंडितों को यह यकीन है कि यदि भाजपा बहुमत से पीछे रह गयी, तो वे उसका समर्थन करेंगे. जो भी हो, उनकी वर्तमान सक्रियता कई संभावनाओं के द्वार खोलती है. उनकी प्रभावशीलता इस पर निर्भर होगी कि वे स्वयं अपने राज्य से लोकसभा की कितनी सीटें निकाल पाते हैं. उनके अब तक के एकलवादी इतिहास के संदर्भ में वे गठबंधन निर्माण के विशेषज्ञ तो कभी नहीं रहे हैं.
उनकी विश्वसनीयता एक अन्य वजह से भी संदेहास्पद हैं, क्योंकि उनकी पार्टी दक्षिण की एकलौती पार्टी थी, जिसे इनकम टैक्स, प्रवर्तन निदेशालय तथा सीबीआई जैसी एजेंसियों के भारी दबावों का सामना नहीं करना पड़ा.
अगली सरकार की संरचनागत संभावनाओं की तलाश में उनका आत्यंतिक उत्साह कुछ सियासी सवाल भी उठाता है. कांग्रेस के प्रति उनकी जाहिर दुश्मनी उन्हें भविष्य की ऐसी किसी भी संभावना से कांग्रेस को बाहर रखने को प्रेरित करेगी. चूंकि वे भाजपा विरोधी पार्टियों से संवाद कर रहे हैं, सो उन्हें यह यकीन हो गया लगता है कि अगली सरकार का रंग भगवा तो नहीं ही होगा.
पांच दक्षिणी राज्यों की कुल 131 सीटों में से भाजपा द्वारा 20 से अधिक सीटें निकाल पाने की संभावना न के बराबर है, इसलिए त्रिशंकु संसद की स्थिति में डीएमके, टीडीपी, वाम दलों, जेडी (एस), टीआरएस, वाइएसआर कांग्रेस तथा खुद कांग्रेस के 110 सांसदों की संघ शक्ति निर्णायक भूमिका निभा सकती है. इस आकलन ने केसीआर को सक्रिय कर दिया है.
वर्ष 2014 में भाजपा ने विशाल यूपीए-विरोधी तथा मोदी समर्थक लहर के बल पर 400 से कुछ ज्यादा सीटों पर उतर 282 सीटों पर विजय प्राप्त की थी, जिनमें 225 सीटें तो केवल 11 राज्यों ने पूरी कीं. इनमें से आधी से भी अधिक कांग्रेस से छीनी गयी थीं. राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश एवं गुजरात में उसे लगभग 100 प्रतिशत सफलता मिली. उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में तो उसने रिकॉर्ड 71 सीटें ले लीं.
भाजपा विरोधियों का कहना है कि इस बार वह अपनी यह गाथा दोहरा नहीं सकती. अनुभव यह बताता है कि मतदाता 60 प्रतिशत से अधिक मौजूदा सांसदों को दोबारा दिल्ली नहीं लौटने देते. भाजपा द्वारा 300 से भी अधिक सीटों का दावा एक अतिशयोक्ति हो सकता है, चुनावी अध्ययन एवं इतिहास जिसका समर्थन नहीं करता, क्योंकि वैसी स्थिति में उसे न केवल अपनी वर्तमान सीटों पर फिर से जीत हासिल करनी होगी, बल्कि पश्चिम बंगाल, ओड़िशा और दक्षिण भारत में भी और अधिक सीटें प्राप्त करनी होंगी. इसकी उम्मीद नजर नहीं आती.
दूसरी ओर, संभावनाओं का नियम कांग्रेस के पक्ष में प्रतीत होता है. इसकी सभी 44 सीटें सिर्फ 14 राज्यों से आयीं, जिनमें से किसी में भी उसे दहाई अंकों की जीत नसीब न हुई. यह संख्या इस बार सीधा ऊपर ही जा सकती है. सभी राज्यों में उसकी मुख्य विपक्षी सिर्फ भाजपा ही है और भाजपा को पहुंची हानि कांग्रेस के लिए लाभ में बदल जायेगी. हालांकि, दोनों पार्टियों का आर्थिक एवं सामाजिक ताना-बाना एक-दूसरे के एकदम समान है.
राहुल गांधी कोई सोनिया गांधी नहीं हैं. हालांकि, संवाद करने का उनका कौशल बहुत सुधरा है, फिर भी बिल्कुल भिन्न सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक पृष्ठभूमि के विपक्षी नेताओं के लिए स्वीकार्यता तथा विश्वसनीयता की विराटता तक अभी वे नहीं पहुंच सके हैं.
राहुल विपक्षी नेताओं की किसी बैठक में शायद ही कभी उपस्थित होते हैं. मोदी का करिश्मा इस पर निर्भर है कि वे मतदाताओं को किस हद तक मना लेते हैं कि वोट देते वक्त वे भाजपा को भूलकर सिर्फ उन्हें और उनके काम को याद रखें.
(अनुवाद : विजय नंदन)

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