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कट्टरपंथियों के आगे झुका पाक

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर पिछले दिनों पाकिस्तान में घटित घटनाएं चिंतित करने वाली हैं. सेना ने एक बार फिर सरकार को कमजोर करने का दांव खेला और उसमें वह सफल रही. सेना ने इस्लामी कट्टरपंथियों को हवा देकर लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकार को और कमजोर कर दिया. पाकिस्तान हमारा पड़ोसी मुल्क है, […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
पिछले दिनों पाकिस्तान में घटित घटनाएं चिंतित करने वाली हैं. सेना ने एक बार फिर सरकार को कमजोर करने का दांव खेला और उसमें वह सफल रही. सेना ने इस्लामी कट्टरपंथियों को हवा देकर लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकार को और कमजोर कर दिया. पाकिस्तान हमारा पड़ोसी मुल्क है, इसलिए चाहते और न चाहते हुए भी वहां का घटनाक्रम हमें प्रभावित करता है. पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शक्तियों का कमजोर और सेना का मजबूत होना शुभ संकेत नहीं है. पड़ोसी मुल्क की राजनीतिक अस्थिरता भारत के हित में नहीं है.
दरअसल, पाकिस्तान में इस्लामी कट्टरपंथियों के धरना-प्रदर्शन को समाप्त करने के लिए कानून मंत्री जाहिद हामिद से इस्तीफा ले लिया गया. तहरीक ए लब्बैक या रसूल अल्लाह पाकिस्तान नामक संगठन के नेता खादिम हुसैन रिजवी के नेतृत्व में करीब दो हजार कट्टरपंथी कानून मंत्री के इस्तीफे की मांग पर धरने पर बैठे थे.
प्रदर्शनकारी राजधानी इस्लामाबाद की तरफ जाने वाली सड़क को जाम किये हुए थे. पाकिस्तानी सेना धार्मिक कट्टरपंथियों के साथ खड़ी थी. कट्टरपंथियों की इस जीत से लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकार का निजाम और कमजोर हुआ है. इसे इस्लामी कट्टरपंथियों के आगे सरकार का समर्पण भी माना जा रहा है.
दरअसल, चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करने से जुड़े एक हलफनामे में पैगंबर मोहम्मद का संदर्भ हटाने के लिए तहरीक ए लब्बैक कानून मंत्री को ईशनिंदा का जिम्मेदार बता रहा था. हालांकि कानून मंत्री ने पहले ही माफी मांग ली थी. साथ ही हलफनामे को भी उसके मूल स्वरूप में बहाल कर दिया था.
इसके बावजूद प्रदर्शनकारी उनके इस्तीफे से कम पर मानने को तैयार नहीं थे. वे हलफनामे में संशोधन को ईशनिंदा का मामला बता तूल दे रहे थे. पाकिस्तान में ईशनिंदा को लेकर सख्त कानून हैं और इन्हें न्यायसंगत बनाने की मांग उठती रही है. जब भी कोई इस दिशा में कदम उठाता है, उसे ईशनिंदक करार दे दिया जाता है. कट्टरपंथी यही प्रचारित कर रहे थे कि जायद हामिद ने अल्लाह की शान में गुस्ताखी की है.
इस्लामाबाद को रावलपिंडी से जोड़ने वाले फैजाबाद इलाके में जीटी रोड पर धरने पर बैठे कट्टरपंथियों के कारण आवागमन प्रभावित था. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सख्त रुख अपनाया. मजबूरन सरकार ने कट्टरपंथियों को भगाने के लिए पुलिस की मदद ली. इस दौरान टीवी चैनलों का प्रसारण रोका गया और सोशल मीडिया पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया.
पुलिस मान रही थी कि धरने पर बैठे लोग आसानी से भगा दिये जायेंगे, पर ऐसा नहीं हो पाया, क्योंकि प्रदर्शनकारियों को इसकी पूर्व सूचना थी और वे पूरी तरह तैयार थे. इस कार्रवाई में छह प्रदर्शनकारी भी मारे गये. पुलिस कार्रवाई के विरोध में कट्टरपंथी गुट के समर्थक सभी बड़े शहरों में तोड़फोड़ पर उतर आये. नतीजतन सरकार ने सेना को उतारने का फैसला किया, लेकिन सेना ने सरकार के आदेश को मानने से इनकार कर दिया.
उसने कट्टरपंथियों को खदेड़ने के बजाय सरकार पर कट्टरपंथियों से समझौता का दबाव डाला. इतना ही नहीं, ऐसे वीडियो सामने आये हैं जिनमें सेना के अधिकारी धरने पर बैठे लोगों को एक-एक हजार रुपये देते नजर आ रहे हैं. सेना की मध्यस्थता से धरना तो समाप्त हुआ, पर समझौते के तहत कानून मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा.
इस घटनाक्रम की एक अन्य कड़ी है. कुछ दिन पहले एक न्यायिक पैनल ने मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड हाफिज सईद को नजरबंदी से रिहा करने का आदेश दे दिया. हाफिज सईद को अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी आतंकवादी घोषित कर रखा है.
ऐसी सूचनाएं हैं कि हाफिज उनके करीबी लोगों द्वारा शुरू राजनीतिक दल की कमान संभाल सकते हैं और चुनावी मैदान में उतर सकते हैं. इसी दौरान पूर्व राष्ट्रपति और सेनाध्यक्ष रहे मुशर्रफ लंदन से हाफिज सईद के समर्थन में इंटरव्यू दे रहे थे. आपस में जुड़ीं ये कड़ियां इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि सेना सरकार का निजाम लगातार कमजोर करती जा रही है. सेना एक और खेल खेलती है. वह सत्तारूढ़ राजनीतिक दल पर लगाम लगाने के लिए किसी कमजोर विपक्षी दल पर हाथ रख देती है. यह बात सभी जानते हैं कि इस वक्त इमरान खान की पार्टी को सेना का समर्थन हासिल है.
यह सब कुछ अरसे पहले से चल रहा है. आपको याद होगा कि कुछ अरसा पहले सुप्रीम कोर्ट ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को पद के अयोग्य ठहरा दिया था. इसके बाद उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था. नवाज शरीफ के करीबी शाहिद अब्बासी को प्रधानमंत्री बनाया गया. यह सब जानते हैं कि राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से वह कमजोर प्रधानमंत्री हैं. हालांकि पाकिस्तान के लिए ऐसी परिस्थिति कोई नयी नहीं है. पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकारों को बर्खास्त किये जाने का इतिहास पुराना है.
अक्सर तख्ता पलट सेना करती आयी है. सेना प्रमुख तख्ता पलट करने के बाद नयी पार्टी गठित कर अपने आप पर लोकतांत्रिक मुलम्मा चढ़ा लेते हैं. आपने गौर किया हो, जब भी किसी राजनेता ने भारत के साथ रिश्ते सामान्य करने की कोशिश की है, सेना ने उसमें हमेशा पलीता लगाया है. पाकिस्तान में सेना आतंकियों को नियंत्रित करती है और ऐसे मौकों पर उनका इस्तेमाल करती है ताकि ऐसी कोई पहल कामयाब न हो पाये. सेना की हमेशा कोशिश रहती है कि चुना हुआ नेता बहुत लोकप्रिय और ताकतवर न हो जाये.
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि पाकिस्तान में सेना का साम्राज्य फैला हुआ है. वह उद्योग-धंधे चलाती है. प्रोपर्टी के धंधे में उसकी खासी दिलचस्पी है. उसकी अपनी अलग अदालतें हैं.
सेना के फौजी ट्रस्ट के पास करोड़ों की संपदा है. उसके सारे काम धंधे किसी भी जांच-पड़ताल के दायरे से बाहर हैं. उसके पास लगभग हर शहर में जमीनें हैं. गोल्फ क्लब से लेकर शॉपिंग माल और बिजनेस पार्क तक सेना ने तैयार किये हैं. अदालतें उसके इशारे पर फैसले सुनाती हैं, अन्यथा जजों को ही चलता कर दिया जाता है. एक और दिलचस्प तथ्य है कि अब तक पाकिस्तान में जितने भी तख्ता पलट हुए हैं, उन सभी को वहां के सुप्रीम कोर्ट ने उचित ठहराया है.
पिछले कुछ समय से पाकिस्तान में सेना और राजनेताओं के बीच शह मात का खेल चल रहा है. पड़ोसी होने के नाते इस खेल का खामियाजा भारत को भी झेलना पड़ता है, क्योंकि लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकार से संवाद की गुंजाइश रहती है. सेना पर भी थोड़ा बहुत अंकुश रहता है. वह खुलेआम आतंकवादियों को बढ़ावा नहीं दे पाती. यही वजह है कि भारत के दृष्टिकोण से यह घटनाक्रम बेहद चिंताजनक है.

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