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हिंदी विरोध का उफान

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com नयी शिक्षा नीति के मसौदे में त्रिभाषा सूत्र के प्रस्ताव की खबर आते ही अहिंदी इलाके से हिंदी विरोध का चिरपरिचित आंदोलन सतह पर आ गया. केंद्र सरकार यह कहती रह गयी कि यह एक प्रस्ताव भर है, जिस पर रायशुमारी कराये बिना अमल नहीं होगा, […]

मृणाल पांडे

ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड

mrinal.pande@gmail.com

नयी शिक्षा नीति के मसौदे में त्रिभाषा सूत्र के प्रस्ताव की खबर आते ही अहिंदी इलाके से हिंदी विरोध का चिरपरिचित आंदोलन सतह पर आ गया. केंद्र सरकार यह कहती रह गयी कि यह एक प्रस्ताव भर है, जिस पर रायशुमारी कराये बिना अमल नहीं होगा, पर दक्षिण भारत में हिंदी के कई कट्टर विरोधी खिलाफ में उठ खड़े हुए.

उनके विरोध में संघ के हिंदी प्रेमियों ने भी मोर्चा खोलने में देर नहीं लगायी. और, देखते-देखते भाषा की ओट में राजनीति का खेल शुरू हो गया. ऐसे अवसरवादी आंदोलन आज देश में खीझ अधिक पैदा करते हैं, समर्थन-भाव कम. नयी सरकार बनते ही इस प्रस्ताव के प्रारूप को लाने की इतनी क्या हड़बड़ी थी?

भाषावार सूबों और भारत की राष्ट्रभाषा के मुद्दों पर 1950 के दशक से ही हो-हल्ला मचता आया है. आंध्र प्रदेश के गठन, गुजरात और महाराष्ट्र के विभाजन, पंजाब का भाषा आधारित बंटवारा जैसे मामले इसी तरह की राजनीति के परिणाम हैं.

सच कहें, तो बुझते राजनेताओं की दूकानें भले ही इनसे चल निकलती हों, भारत के इन भाषायी आंदोलनों का भाषाओं या साहित्य से वैसा ही रिश्ता है, जैसा आज के हास्य कवि सम्मेलनों का हास्य या कविता से. राजनीति के कारण ही पंजाब में मूलत: गुरुद्वारों और धर्मग्रंथों की भाषा रही गुरुमुखी का राजनीति में रुतबा बढ़ा और जनसंघ के असर से हिंदी अखबारों का, पर इनसे न तो पंजाबी लेखकों का भला हुआ और न ही हिंदी का.

शीर्ष पर अंग्रेजी ही राजकाज हांकती रही और साहित्य में खुशवंत सिंह और बड़े बाबूलोग हिंदी की खिल्ली उड़ाते रहे. सच तो यह था कि पंजाब में भाषायी झगड़े अधिकतर उर्दू में ही चलते थे, क्योंकि अधिकतर पंजाबी राजनेता तो उर्दू ही बोलते-पढ़ते थे.

जब भाषावार प्रांतों का गठन मंजूर किया गया, तो उम्मीद थी कि जनता की भाषा में जनता का शासन कायम होगा. पर ऐसा नहीं हुआ.

नेता तर्क दे सकते हैं कि वे तो मातृभाषा की जोत जगा कर आम जनता की भाषा में रुचि जगा रहे थे, जैसा तर्क अब कुमार विश्वास सरीखे अर्ध-राजनेता दे रहे हैं, पर आप ही कहिए, हिंदी के इतिहास में जायसी, प्रेमचंद, महादेवी या हजारी प्रसाद जी का नाम अमर हो, इसके लिए हर पाठ्यक्रम में नि:शंक या बालकवि बैरागी की कविताओं को शामिल कराना कितना जरूरी है? जब अनुभव के इतने कड़वे पाठ हम सब पढ़ चुके हों, तो क्या यह साफ नहीं हो जाना चाहिए कि बार-बार हिंदी को इधर-उधर से लाकर जबरन मान्य राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव बचकाना है?

आवश्यकता के अनुरूप देशभर के युवा नेटिजंस ने अपने काम लायक नेट की अंग्रेजी ताबड़-तोड़ सीख ली. कुछ फितूरी बच्चे रोचक व पठनीय हिंदी लिखने लगे. तब यह नयी शिक्षा नीति किस कद्दू में तीर मारने के लिए उत्तर के धनुर्धारियों को बंगाल या चेन्नई बुला रही है?

अंतत: हर बड़ा लेखक और नेता अपने युग की उपज होता है और अपने युग के मुहावरों में ही जन-संवाद कर सफल बनता है. दक्षिण अफ्रीका से आकर अहिंदीभाषी गांधी जी ने 1920 में जाना कि बोलचाल की हिंदी, जिसे वे हिंदुस्तानी कहते थे, ही उस समय के आमजन की भाषा थी.

उसके मार्फत ही ‘स्वराज’ नामक नये विचार को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने गुजराती मासिक ‘नवजीवन अणि संदेश’ को हिंदी साप्ताहिक ‘नवजीवन’ के बतौर ढाला. आज वे होते, तो हिंदी को जबरन नहीं लादते. लिहाजा हमारी राय में ताजा सरकारी त्रिभाषा प्रस्ताव और गांधी, तुलसी, जायसी या रामचंद्र शुक्ल की भाषा दृष्टि, तेल और पानी की तरह अलग-अलग हैं.

अहिंदीभाषी राज्यों का हिंदी विरोध एक सामूहिक पूर्वाग्रह, एक लंबी परंपरा की उपज नाम है, जो आजादी के तुरंत बाद मनुवाद विरोध से जुड़ी है.

वहां की बहुसंख्य जनता वाल्मीकि से इतर रामायणों को अलग तरह से पढ़ती, राजा बलि को पूजती और उनको पाताल भेजनेवालों को शत्रु मानती आयी है. हम कैसे कहें कि अतीत की परछाइयों का हम पर कोई असर नहीं होता? उत्तर से जो भीतरी हमले (आर्यों, मुगलों, मराठों के) दक्षिण ने झेले हैं, या ब्राह्मणनीत सनातनी धार्मिक संस्थाओं ने जिस तरह वहां सदियों तक दलितों व महिलाओं का शोषण किया है, उसके इतिहास से उनको राष्ट्रवाद का चीरा लगा कर कैसे अलग किया जा सकता है?

सत्तर सालों में उत्तर के विपरीत दक्षिण ने ईमानदारी से परिवार नियोजन और शिक्षा को बढ़ावा देकर अपनी जन्म दर कम की है तथा कई मामलों में शानदार विकास किया है. फिर भी जनबहुल और अराजकता से भरे उत्तर के वोटों की बहुलता ने बार-बार राजनीति को उत्तरमुखी शक्ल और नेता दिये. इसकी भी कुछ कसक तो है ही.

संभव है कि भाजपाई दस्ते गैर-हिंदी क्षेत्र में सड़कों पर नारे लगाने लगें. तब क्या यह असंभव रह जायेगा कि तमिल या कन्नडीगा लोग अलगाववादी बनने लगें?

आखिर पाकिस्तान तो इसी तरह बना था. और, बाद में पाकिस्तान के बंटने का कारण बंगाली और उर्दू-भाषियों के बीच कड़वाहट का हद से बढ़ जाना ही था. अब कमजोर अर्थव्यवस्था के दौर में विभिन्न पार्टियों की हवा निकालने के बाद भाजपा गैर-हिंदी क्षेत्रीय दलों से हिंदी के मुद्दे पर दो-चार करने का इरादा रखती है, उसकी यह नादानी उसको ही मुबारक हो.

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