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कितना लाभप्रद होगा युवा भारत

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com आज यह हमारे मुख्य कथनों में शामिल हो चुका है कि भारत विश्व के युवा राष्ट्रों में एक है. आंकड़े यह बताते हैं कि यह दावा उचित ही है, क्योंकि हमारी आबादी के लगभग 65 प्रतिशत लोग 35 वर्षों से कम उम्र के हैं. चीन एवं जापान […]

पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
आज यह हमारे मुख्य कथनों में शामिल हो चुका है कि भारत विश्व के युवा राष्ट्रों में एक है. आंकड़े यह बताते हैं कि यह दावा उचित ही है, क्योंकि हमारी आबादी के लगभग 65 प्रतिशत लोग 35 वर्षों से कम उम्र के हैं.
चीन एवं जापान जैसे उन अन्य मुख्य राष्ट्रों की तुलना में, जिनकी आबादी का एक बड़ा अनुपात वृद्ध जनों का है, हम सचमुच ही एक जनसांख्यिक लाभ की स्थिति में हैं, जो हमारे हित एक वरदान सिद्ध हो सकता है, पर एक युवा राष्ट्र होने के वस्तुतः कौन-से निहितार्थ होते हैं? एक युवा भारत को लेकर व्यक्त किये जा रहे तमाम उद्गारों के संदर्भ में जरूरत इस बात की है कि इस अलंकरण का विश्लेषण कर इसकी गहराई तक पहुंचा जाए.
युवा भारत एक महत्वाकांक्षी अभिव्यक्ति है. युवा उर्ध्वमुखी होते हैं. वे आगे जाने, बेहतर की ओर बढ़ने और जीवन को सुविधापूर्ण बनानेवाली भौतिक वस्तुएं हासिल करने, ज्यादा उपार्जित करने, ज्यादा खर्च करने तथा खुशहाली और भविष्य में हिस्सेदारी की बेकरारी से भरे होते हैं, पर आशा और ऊर्जा से भरे इस वर्ग की अन्य विशेषताएं कौन-सी हैं?
मसलन, क्या यह वर्ग आदर्शवादी है? क्या सार्वजनिक तथा निजी जीवन में आचार-नीति की अहमियत को लेकर उनमें अपनी पिछली पीढ़ी से अधिक संवेदनशीलता है?
क्या उनके नजरिये में नैतिकता की पहले से अधिक भूमिका है? मुझे भय है कि इन प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक ही हैं. यदि वे कुछ हैं, तो निरे यथार्थवादी हैं, जिन्हें अपनी महत्वाकांक्षी उफान के मार्ग में आनेवाली नैतिकता की किसी अवधारणा से शायद ही कोई फर्क पड़ता है.
उन्होंने खोखले उपदेशों, मक्कारों से नैतिकता के झूठे दावों और दागदारों से बड़ी-बड़ी बातों की इतनी लफ्फाजियां देखी-सुनी हैं कि अब उन्हें निजी जीवन में कठोर नैतिकता की कोई आदर्शवादी जरूरत आकृष्ट नहीं करती. यह तय है कि अपने आप में एक लक्ष्य के रूप में आदर्शवाद हमारे युवा वर्ग की चारित्रिक विशेषताओं में कतई शामिल नहीं है.
तो फिर क्या वे संस्कृति में बद्धमूल हैं? यह भी संदेहास्पद है. हमारी शिक्षा प्रणाली ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि हमारे सर्वोत्तम छात्र-छात्राएं भी अपनी अकादमिक विशेषज्ञता से बाहर बहुत कम ही जानते हैं.
बड़े शहरों-महानगरों की ओर पलायन, जहां अपने नैसर्गिक सांस्कृतिक परिवेश से पृथक होने के अलावा अतीत के प्रगाढ़ पारिवारिक बंधन से उन्मुक्तता ने एक ऐसी पीढ़ी पैदा कर दी है, जो अपनी ही संस्कृति, परंपरा, लोककथाओं, कहावतों, इतिहास तथा दर्शन के पोषक ज्ञान से गंभीर रूप से वंचित हैं. यह स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि हमारे बहुत-से युवा हमारे धार्मिक त्योहारों के अंतर्निहित अर्थ और उनकी बुनियादी प्रतीकात्मकता तक को समझे बगैर उन्हें एक छिछले जोशो-खरोश से मनाते चले जा रहे हैं.
क्या ये युवा धर्मनिरपेक्ष हैं? अंशतः हां, और अंशतः ना. वे अपने जीवन से अपना तालमेल बिठाने और अपनी महत्वाकांक्षी अभिलाषाओं की पूर्ति से अपना ध्यानभंग न होने देने की जद्दोजहद तक तो धर्मनिरपेक्ष हैं.
ऐसी धर्मनिरपेक्षता यकीन पर कम और सुविधाओं पर अधिक आधारित होती है. युवा भारत का एक बड़ा हिस्सा मुल्ला-महंथों के शिकंजों से निकल कर धर्मनिरपेक्ष मुख्यधारा के लाभ हासिल करना चाहता है, किंतु एक खासा अहम हिस्सा अब भी अति दक्षिणपंथी वाग्जाल की खुराक बना हुआ है.
उनकी यह कमजोरी हमारी उल्लेखनीय आध्यात्मिक विरासत की जानकारी के प्रत्यक्ष अभाव पर आश्रित है. जब कोई हमारे उपनिषदों के कथनों तथा ‘एकं सत् विप्राः बहुधा वदंति’ जैसी उनकी उद्घोषणाओं से अनजान हो, तो धर्म के नाम पर बरगलानेवालों की बातों में आ जाना स्वाभाविक ही है.
क्या ये युवा परमार्थी हैं? उनमें से कुछ तो जरूर हैं, पर अधिकांश खुद के लिए जीते हैं. इसकी अंशतः वजह वह गला-काट प्रतियोगिता है, जो हमारे देश में सफलता की राह बन चुकी है.
खास कर तब, जब करोड़ों लोग वंचित तथा निर्धन जीवन व्यतीत कर रहे हैं और उनके लिए खुद की बेहतरी की चुनौती ही बहुत बड़ी है, तो कोई दूसरे के लिए क्या कर सकता है, यह सोचने का वक्त किसे है? पतन की ओर अग्रसर मुगल साम्राज्य के अंतिम दिनों में एक कहावत प्रचलित थी, ‘एक अनार, सौ बीमार.’ आज युवाओं के लिए ठीक यही परिस्थिति उपस्थित है. सफलता के एक पुरस्कार हेतु यदि लाख नहीं, तो हजारों दावेदार तो अवश्य ही मौजूद हैं. यही वजह है कि वर्तमान में हमारा समाज नागरिक बोध, परोपकार, समाज को उसकी देन लौटाने तथा कम भाग्यवानों की मदद के प्रति उल्लेखनीय रूप से असंवेदनशील है.
क्या हमारे युवाओं के पास प्रेरणादायक रोल मॉडल हैं? कुछ विरल अपवादों को छोड़ कर राजनीतिक जगत से तो निश्चित रूप से बहुत ही कम. युवा मानते हैं कि राजनीति एक गंदी चीज है, जिसे नैतिकता से विहीन और सिर्फ सत्ता के खेल से भरी होने के कारण दूसरों के लिए ही छोड़ दिया जाना चाहिए.
आज युवाओं के रोल मॉडल अन्य क्षेत्रों से आते है, जैसे खेल के मैदान में सफल खिलाड़ी, फिल्मी सितारे, कॉरपोरेट जगत के सफल कारोबारी इत्यादि. आज प्रायः इन लोगों की सफलता और उससे संयुक्त ग्लैमर का आकर्षण ही युवाओं को बांधता है.
उन्हें उनसे ईर्ष्या तो होती है, पर उनमें से बहुत कम ही उस कठिन परिश्रम, लगन तथा निश्चय पर गौर करते हैं, जिनके बल पर उनकी सफलता संभव हो सकी है. अब तो रातोंरात प्रसिद्धि प्राप्त करने की प्रवृत्ति हावी है, न कि प्रयास की उस सम्यक मात्रा तथा भारी कीमत पर विचार करने की जिसकी मांग उस प्रसिद्धि को होती है.
क्या यह आकलन अत्यंत नकारात्मक है? संभवतः हां, पर इसका उद्देश्य केवल एक यह है कि इससे एक बहस की शुरुआत हो. यह हमारा सौभाग्य है कि हम एक युवा राष्ट्र हैं. हमारे युवाओं में प्रतिभा का प्रभूत परिमाण है.
वे केंद्रित, प्रौद्योगिकी प्रेमी, मेधा संपन्न, ऊर्जा से भरे, संसाधन-कुशल और अत्यंत विपरीत परिस्थिति में भी संभावनाएं साकार करने की इच्छा रखनेवाले हैं. खासकर जहां तक कौशल तथा जॉब का संबंध है, यह वस्तुतः अफसोस की बात है कि वे अब भी उचित अवसर से वंचित हैं. अतः हमारे सामने एक बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करना ही होनी चाहिए कि हम जिस महान जनसांख्यिक लाभ पर इतना गर्व कर रहे हैं, वह कहीं एक महान जनसांख्यिक देनदारी में तब्दील न हो जाए.
(अनुवाद : विजय नंदन)

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