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Film Review: फिल्‍म देखने से पहले जानें कैसी है ”बाला”

II उर्मिला कोरी II फ़िल्म: बाला निर्देशक: अमर कौशिक किरदार: आयुष्मान खुराना,यामी,भूमि,जावेद जाफरी,सौरभ शुक्ला,अभिषेक और अन्य रेटिंग: चार अपनी फिल्मों से हमेशा मनोरंजन के साथ साथ एक अनूठा संदेश का मकसद जोड़ने वाले अभिनेता आयुष्मान खुराना इस बार अपनी फिल्म बाला के ज़रिए बॉडी शेमिंग जैसे संवेदनशील और ज़रूरी मुद्दे पर बातचीत की है. भारतीय […]

II उर्मिला कोरी II

फ़िल्म: बाला

निर्देशक: अमर कौशिक

किरदार: आयुष्मान खुराना,यामी,भूमि,जावेद जाफरी,सौरभ शुक्ला,अभिषेक और अन्य

रेटिंग: चार

अपनी फिल्मों से हमेशा मनोरंजन के साथ साथ एक अनूठा संदेश का मकसद जोड़ने वाले अभिनेता आयुष्मान खुराना इस बार अपनी फिल्म बाला के ज़रिए बॉडी शेमिंग जैसे संवेदनशील और ज़रूरी मुद्दे पर बातचीत की है. भारतीय समाज ऐसा समाज रहा है. जहां किसी को भी अच्छा या बुरा उसके रूप रंग और कद काठी से करार दिया जाता रहा है. आप जैसे हैं वैसे बेस्ट हैं. ये बाहर वाले तो छोड़िए घरवाले भी कहते या समझाते नहीं हैं. बल्कि इस नुस्खे,इस क्रीम, इस ट्रीटमेंट से आप खुद को बदल सकते हैं।इसकी सलाह जरूर देते दिन रात देते रहते हैं.

फ़ोन में ढेर सारे ब्यूटी एप्प से लेकर करोड़ों की खूबसूरत बनाने वाली क्रीम,तेल वाली कंपनियां इस बात की गवाह है।ये फ़िल्म इसी बात पर कटाक्ष करते हुए एक सशक्त सोच देती है आप जैसे हो वैसे खुद को स्वीकार करें. खुद पर शर्मसार ना हों. इस संदेश को फ़िल्म में बहुत ही मनोरंजक तरीके से कहा गया है.

कहानी कानपुर में रहने वाले बाल मुकुंद उर्फ़ बाला (आयुष्मान खुराना) की है बचपन से बालों के धनी रहे हैं. वह खुद को मोहल्ले के शाहरुख़ खान समझता है लेकिन युवावस्था तक पहुँचते-पहुँचते ही बाला के बाल झड़ने लगते हैं. वह गंजा हो जाता है. मोहल्ले से लेकर आफिस तक सब उसका मजाक उड़ाते हैं. ताने कसते हैं. वह अपने गंजेपन से खुद को इतना हीन समझता है कि उसने अपने आईने को भी आधा ढंक दिया है ताकि गंजापन नज़र ना आए.

उसके बचपन की गर्ल फ्रेंड उसको इसी वजह से छोड़ चुकी है. वह दुनिया के तमाम नुस्खे अपना चुका है. लेकिन बाल उगाने में असमर्थ है. उसकी एक बचपन की दोस्त है लतिका (भूमि), जिसका रंग साफ़ नहीं है तो बाला उसका भी मजाक बनाता है. लेकिन लतिका को खुद पर आत्मविश्वास है.वह बाला की तरह नहीं है. उसे गोरे न होने का दुःख नहीं है.

काम के सिलिसले में बाला कानपुर से लखनऊ जाता है. जहां परी ( यामी)से उसकीमुलाकात होती है. बाला भले ही खुद गंजा हो लेकिन हर भारतीय पुरुष की तरह वह गोरी चिट्टी लडक़ी से शादी करना चाहता है. बाला के पिता (सौरभ शुक्ला) ने बाला को विग गिफ्ट किया होता है, और कानपुर से लखनऊ जाते हुए उसे राय देते हैं कि इसे लगा ले. लोगों को ताकि यह भ्रम हो, लौटने के बाद कि वह बालों का इलाज कर लौटा है.

बाल से बाला में फिर आत्मविश्वास जगता है और मनोरंजक आत्मविश्वास से लबरेज हो शाहरुख़ खान मोड में चला जाता है. टिक टोक क्वीन परी बाला के सेंस ऑफ़ ह्यूमर और उसके लुक से प्रभावित हो जाती है. दोनों शादी करने का निर्णय लेते हैं. लेकिन शादी के बाद परी के सामने बाला का सच आता है.बात तलाक तक पहुँच जाती है. इसके बाद कहानी में क्या मोड़ आते हैं. यही कहानी को दिलचस्प बनाते हैं.

पिछले सप्ताह इसी विषय पर फ़िल्म उजड़ा चमन आयी थी. विषय अच्छा होने से फ़िल्म अच्छी नहीं हो जाती है. यह बात उस फिल्म को देखते हुए समझ आयी थी. ‘बाला’ में कहानी ही नहीं किरदारों की भी खूब डिटेलिंग हुई है. बाल अपने आप में एक किरदार है और फ़िल्म का नरेशन बाल ने ही किया है।ये फ़िल्म का दिलचस्प पहलू है. फ़िल्म हँसते हँसाते सामाजिक संदेश को भी बखूबी उजागार करती है.

निर्देशक अमर की यह फिल्म परतों में कई मुद्दों को छूती है और सामाजिक ढांचे के उस हिस्से पर प्रहार और कटाक्ष करती है, जो इंसान को इंसान नहीं कोई वस्तु समझता है और भेद करता है. यह फिल्म सिर्फ एक गंजे व्यक्ति की आपबीती की नहीं, बल्कि उस हार शक्स की कहानी है, जो खुद में कुछ खामी होने के कारण खुद को समाज और अपने से नज़रें चुराता है. यह उस सोच पर प्रहार है.

फिल्म में निर्देशक ने एक अच्छा पक्ष यह भी रखा है कि अब तक की फिल्मों में लड़के लड़कियों की खामी कि वजह से उन्हें ठुकराते आते थे.इस बार लड़की को वह हक दिया है कि अगर वह खूबसूरत है तो उसे पूरा हक है कि वह अपने लिए सुंदर वर हासिल करे. फिल्म के ही एक दृश्य में मुख्य किरदार के पिताजी अपनी पत्नी को कहते हैं कि वह गंजे थे लेकिन बाला की मां ने उन्हें नहीं छोड़ा.

यह दृश्य यह भी दर्शाता है कि पुराने जमाने में महिलाओं पर किस तरह पति थोप दिए जाते थे और वह ताउम्र उसे निभाया करती थी. वहीं लतिका की मौसी, जिसके चेहरे पर मूंछ होने के कारण उनके पति द्वारा उन्हें छोड़ कर जाना यह दर्शाता है कि पुरुष तब भी वैसे ही थे, जिनके पास छोड़ने का हक हुआ करता था. फ़िल्म के क्लाइमेक्स में लतिका के किरदार द्वारा बाल मुकुंद को शादी के लिए मना करना भी अच्छा लगता है. जिससे यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा के रटे रटाये फार्मूले में नहीं फंसती है.

अभिनय की बात करें तो आयुष्मान एक बार फिर बेहतरीन रहे हैं. वे अपने किरदार के हर भाव में खूब जमे हैं. आत्मविश्वास से लबरेज शाहरुख वाला अंदाज़ हो या फिर बाल चले जाने के बाद खुद को हीन समझने वाला आयुष्मान कमाल कर गए हैं. भूमि यादगार रहीं हैं वहीं यामी अपने अभिनय से चौकाती हैं. छोटे शहर की टिक टॉक वाला उनका अंदाज़,संवाद सभी खूब भाया है.

सौरभ शुक्ला,जावेद जाफरी, अभिषेक बनर्जी सहित सभी किरदार अपने अभिनय से इस फ़िल्म में अलग रंग भरते हैं. उम्दा स्टारकास्ट इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खासियत में से एक है. फ़िल्म के संवाद जबरदस्त है तो बैकग्राउंड संगीद भी गुदगुदाता है. गीत संगीत भी अच्छा है. कुलमिलाकर यह फ़िल्म हंसते हंसाते एक बेहतरीन मैसेज दे जाती है. यह फ़िल्म सभी को देखी जानी चाहिए.

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