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संवेदना और आत्मीयता के साथ करें विकलांगों की मदद

झारखंड निशक्तता आयोग के पूर्व आयुक्त सतीश चंद्र की पहचान विकलांगों के हित में उनके द्वारा किये गये काम-काज से है. वे झारखंड के पहले निशक्तता आयुक्त हैं और विडंबना यह है कि उनके कार्य की समाप्ति के बाद इस पद पर किसी अन्य आयुक्त की नियुक्ति भी नहीं की गयी है. झारखंड के लिए […]

झारखंड निशक्तता आयोग के पूर्व आयुक्त सतीश चंद्र की पहचान विकलांगों के हित में उनके द्वारा किये गये काम-काज से है. वे झारखंड के पहले निशक्तता आयुक्त हैं और विडंबना यह है कि उनके कार्य की समाप्ति के बाद इस पद पर किसी अन्य आयुक्त की नियुक्ति भी नहीं की गयी है.

झारखंड के लिए विकलांग जननीति को तैयार करने और विकलांगों के लिए नियमित तौर पर चलंत लोक आदलत लगाकर उनके मसलों का समाधान करने जैसे महत्वपूर्ण काम उनके खाते में दर्ज हैं. आयोग से हटने के बाद केंद्रीय मुख्य आयुक्त, नि:शक्तजन ने उन्हें झारखंड और पड़ोसी राज्यों में विकलांगों के लिए संचालित होने वाली योजनाओं की निगरानी का जिम्मा दिया है. झारखंड में विकलांगों के लिए सरकारी स्तर पर संचालित हो रहे काम-काज के बारे में पुष्यमित्र ने उनसे बातचीत की है:

झारखंड में सरकारी की ओर से विकलांगों की सहायता के लिए संचालित कार्यक्रमों की क्या स्थिति है?
यहां राज्य सरकार की ओर से विकलांगों के लिए सभी सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में नामांकन के लिए तीन फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है. इसके अलावा स्वामी विवेकानंद नि:शक्त स्वावलंबन प्रोत्साहन योजना के तहत 40 फीसदी से अधिक विकलांगों के लिए 400 रुपये प्रति माह पेंशन दिया जाता है. ये योजनाएं झारखंड की किसी भी जाति, वर्ग और समुदाय के लोगों के लिए संचालित हो रही हैं. इसमें स्थानीयता का भी कोई मसला नहीं है, जिस व्यक्ति के पास यहां का वोटर आइडी या आवास प्रमाण पत्र है वह इस योजना का लाभ उठा सकता है.

झारखंड विकलांग जननीति के तहत नि:शक्तों के लिए कई प्रावधान किये गये हैं, आखिर इस नीति में क्या खास बातें हैं?
2012 में झारखंड सरकार के कैबिनेट से मंजूर इस जननीति को शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, लोककला एवं संस्कृति, खेल, विधि, वित्त समेत कई विभागों ने मंजूरी दी है. इसके तहत सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान यह है कि राज्य सरकार को अपने बजट का तीन फीसदी हिस्सा विकलांगों के लिए खर्च करना है.

इसके तहत विकलांग बच्चों के पढ़ाई-लिखाई के लिए विशेष व्यवस्था, विकलांगता की पूर्व पहचान करते हुए इसके रोकथाम करने के लिए विशेष व्यवस्था करना, उनके लिए रोजगारपरक पाठ्यक्रमों का संचालन करना और उनके द्वारा तैयार किये गये उत्पादों की सरकारी खरीद की व्यवस्था करना है. इसके तहत 30 साल से अधिक उम्र की अविवाहित 40 फीसदी से अधिक विकलांग महिला के लिए इंदिरा आवास का प्रावधान है और 40 फीसदी से अधिक विकलांगता वाले सभी विकलांगों के लिए अंत्योदय योजना उपलब्ध कराने की योजना है. साथ ही प्रत्येक जिले में विकलांगों के लिए हेल्पलाइन बनाये जाने की योजना है. उन्हें स्वास्थ्य बीमा का लाभ दिलाना है. राज्य और राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों के लिए नौकरी की व्यवस्था की जानी है.

यह नीति ठीक से लागू नहीं हो पा रही है. इसकी क्या वजह है?
फिलहाल मैं इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं हूं, इसलिए ठीक से बता नहीं सकता मगर यह कहा जा सकता है कि इसे लागू करने के लिए सरकार को और अधिकारियों को विशेष प्रयास करने की जरूरत है. इस संबंध में मेरी बात राज्य की समाज कल्याण मंत्री अन्नपूर्णा देवी से भी हुई है, उन्होंने भरोसा दिलाया है कि इस नीति को जल्द से जल्द लागू कराया जायेगा. जहां तक अधिकारियों का सवाल है, मैं उनसे अनुरोध करना चाहूंगा कि विकलांगों के मसले का समाधान संवेदनशीलता और आत्मीयता के साथ करें. उन्हें प्राथमिकता सूची में रखें और पांच सितारा संस्कृति से बचें. ग्रामीण क्षेत्रों को फोकस करने से ही बेहतर समाधान हो पायेगा.

कई स्थानों से ऐसी शिकायतें आती हैं कि विकलांगों की पेंशन उनके खाते में नहीं आती. विकलांगों को इसके लिए बार-बार प्रखंड मुख्यालय दौड़ना पड़ता है.जहां तक मेरी जानकारी है 90 फीसदी विकलांगों की पेंशन उनके बैंक खातों या पोस्ट ऑफिस वाले खातों में जा रही है. कुछ मामले जरूर होंगे. मगर कई दफा बैंकों की ओर से भी संवेदनहीनता दिखायी जाती है और खाता खोलने में आनाकानी की जाती है. उन्हें भी इस मामले में व्यापार को प्राथमिकता नहीं देते हुए संवेदना को प्राथमिकता देनी चाहिये.

पंचायतें विकलांगों के विकास के लिए क्या-क्या कर सकती हैं?
पंचायत प्रतिनिधियों की बड़ी भूमिका हो सकती है. क्योंकि वे गांवों से सीधे जुड़े होते हैं और अपने इलाके के एक-एक व्यक्ति की समस्या को व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं. वे सरकारी योजनाओं का लाभ तो उन्हें दिला ही सकते हैं, साथ ही नियमों से परे संवेदना के आधार पर भी ऐसे लोगों की मदद कर सकते हैं और पंचायत के लोगों को उनकी मदद करने के लिए प्रेरित भी कर सकते हैं. वहीं कई बार हमारे सामने ऐसे मामले भी आते हैं जिसमें विकलांगों के साथ भेदभाव और प्रताड़ना की शिकायतें होती हैं. पंचायतें अपनी सक्रियता से इन मामलों पर रोक लगा सकती हैं. पंचायतों को इस बात का ध्यान भी खास तौर पर रखना होगा कुल बजट का तीन फीसदी विकलांगों के हित में व्यय हो. मनरेगा जैसी योजनाओं में भी विकलांगों की भागीदारी हो, उन्हें क्षमतानुसार जिम्मेदारी दी जाये, ताकि वे इस महत्वपूर्ण योजना का लाभ उठाने से वंचित नहीं रहें.

विकलांगों को स्वरोजगार से जोड़ने के लिए क्या प्रयास हो रहे हैं?
दरअसल योजनाएं तो कई हैं, मगर उनका ठीक से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा. जैसे समाज कल्याण विभाग ने आदिवासी सहकारिता विकास निगम को चैनेलाइजिंग एजेंसी तय किया है. मगर इसके काम-काज की स्थिति यह है कि इसने तीन सालों में महज 83 विकलांगों को स्वरोजगार के लिए ऋण उपलब्ध कराया है. इसकी वजह वह शर्त है जिसके तहत ऋण लेने के लिए सरकारी नौकरी करने वालों को गारंटर बनाने की बाध्यता है. मगर विकलांगों को ऐसे गारंटर कैसे मिलें. इस शर्त में संशोधन किये जाने की जरूरत है.

सतीश चंद्र

पूर्व नि:शक्तता आयुक्त झारखंड

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