वर्ष 1987 में बोफोर्स घोटाला सामने आने के बाद 1989 में लोकसभा चुनावों में राजीव गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार को हार का सामना करना पड़ा था. रक्षा घोटाले का यह बहुचर्चित मामला राजनीतिक हल्कों में तूफान की तरह था. आजादी के बाद से ही रक्षा सौदे में हेरा-फेरी से जुड़े कई मामले बड़े बदलावों का कारण बने हैं-
जीप घोटाला, 1948 : आजादी के चंद महीनों बाद ही हुए इस घोटाले में इंगलैंड में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त वीके कृष्णा मेनन का नाम आया था. भारत सरकार ने इंगलैंड की एक कंपनी से 80 लाख में 200 जीपों के लिए समझौता किया था, लेकिन 155 जीपों की आपूर्ति हो सकी थी. यह मामला 1955 में बंद कर दिया गया था.
बोफोर्स घोटाला, 1987 : 155 एमएम हावित्जर के लिए 1.3 बिलियन डॉलर का स्वीडिश कंपनी बोफोर्स के साथ समझौता हुआ था. समझौते को पूरा करने के लिए बिचौलिये को दिये गये 64 करोड़ के घूस मामले में राजीव गांधी सरकार निशाने पर थी. घोटाले का पहला आरोप स्वीडिश रेडियो द्वारा लगाया गया था. इसमें बिचौलिये के रूप में गांधी परिवार के करीबी ओट्टिवो क्वात्रोची का नाम आया था.
बराक मिसाइल घोटाला : भारत ने 1150 करोड़ रुपये की लागत से इजराइल से बराक मिसाइल खरीदी थी. डीआरडीओ द्वारा सवाल खड़े किये जाने के बावजूद यह समझौता पूरा किया गया था. सीबीआइ ने इस मामले में पहली एफआइआर 2006 दर्ज की थी और समता पार्टी के आरके जैन को गिरफ्तार किया गया था. इसमें निश्चित मूल्य से अधिक राशि का भुगतान किये जाने का मामला था.
ताबूत घोटाला, 1999 : करगिल युद्ध के समय 1999 में शहीदों के शवों को उनके परिजनों तक पहुंचाने के लिए ताबूत खरीदे गये थे. सीबीआइ ने यूएस कॉन्ट्रैक्टर और कुछ सेना के अधिकारियों के खिलाफ हेरा-फेरी का मामला दर्ज किया था. इसमें तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिश का भी नाम आया था.
तहलका घोटाला, 1999 : समाचार पोर्टल ने तहलका डॉट कॉम ने रक्षा सौदों में सैन्य अधिकारियों और नेताओं द्वारा लिये जानेवाले घूस के मामलों को उजागर किया गया था. स्टिंग ऑपरेशन में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को घूस लेते हुए दिखाया गया था. इसमें कई सैन्य अधिकारियों पर कार्रवाई की गयी थी.
सुदीप्ता घोष मामला, 2009 : कालीसूची में डाली गयी दो भारतीय और चार विदेशी कंपनियों से घूस लेने के मामले में ऑर्डिनेंस फैक्ट्री डायरेक्टर सुदीप्ता घोष को सीबीआइ ने गिरफ्तार किया था.
टाट्रा ट्रक घोटाला, 2012 : टाट्रा ट्रक खरीद को फाइनल करने के लिए पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह को 14 करोड़ रुपये का घूस ऑफर किये जाने मामला आया था.
नीतियों में स्पष्टता का अभाव
दिसंबर, 2014 में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने रक्षा सौदों में दलाली को वैधानिक बनाने की बात कह कर बड़ी बहस छेड़ दी थी. उन्होंने कहा था कि 2015 की फरवरी में रक्षा खरीद नीति में इस संबंध में जरूरी संशोधन कर दिये जायेंगे. हालांकि, इस बारे में अभी तक कोई ठोस निर्णय नहीं लिया जा सका है. रक्षा मंत्री का तर्क था कि मौजूदा प्रक्रियाओं में रक्षा उपकरणों की कंपनियों के प्रतिनिधि हिस्सा लेते हैं, पर मुश्किल यह है कि नीतियों के तहत यह स्पष्टता नहीं है कि क्या चीजें स्वीकार्य नहीं की जा सकती हैं. उन्होंने यह भी साफ किया था कि सौदों में हुए लाभ में हिस्सेदारी लेने को मंजूरी नहीं दी जा सकती है और कंपनी को प्रतिनिधियों को दिये जानेवाले मानदेय की घोषणा करनी होगी. इस वर्ष दलाली में लिप्त कंपनियों को प्रतिबंधित करने की ठोस नीति को भी मंजूर किया गया है.
वर्ष 2002 में केंद्रीय सतर्कता आयोग की सिफारिश पर तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने दलाली को वैधानिक बनाने की इसी तरह की नीति को प्रस्तावित किया था. उसमें नियम यह था कि बिचौलियों को सरकार के पास पंजीकरण कराना होगा और उन्हें बीते कुछ सालों के अपने बैंक और वित्तीय लेन-देन तथा कर चुकाने से जुड़े विवरण जमा कराने होंगे. लेकिन, रक्षा सौदेबाजी की अंधेरी दुनिया से ऐसी पारदर्शिता दिखाने की संभावना कम ही थी, और इस नीति के तहत एक भी बिचौलिये ने पंजीकरण नहीं कराया. वर्ष 2004 में यूपीए सरकार सभी सौदों में एक घोषणा की अनिवार्यता जोड़ दी थी, जिसके तहत 100 करोड़ से ऊपर के सौदों में सामान बेचनेवाली कंपनी को लिख कर देने की बाध्यता थी कि इस सौदे को हासिल करने के लिए किसी भी तरह से बिचौलियों या दलालों की सहायता नहीं ली गयी है.
यह एक जगजाहिर तथ्य है कि लालफीताशाही से बचने और सौदों को मंजूर कराने के लिए कंपनियां हमेशा बिचौलियों का सहारा लेती हैं. नियमों और नीतियों की तमाम कठोरताओं के बावजूद बिचौलियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. इसका बड़ा कारण यह है कि भारत बड़ी मात्रा में रक्षा साजो-सामान को आयात करनेवाले देशों में शामिल है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार, 2007 से 2011 के बीच वैश्विक हथियार बाजार में भारत की खरीद 10 फीसदी रही थी. ऐसे में विभिन्न देशों की कंपनियां भारतीय खरीद में अपनी पैठ बनाने की पूरी कोशिश करती रहती हैं.
यह विडंबना ही है कि भ्रष्टाचार रोकने की कोशिश में कायदे-कानूनों का ऐसा संजाल बन गया है कि खरीद की पूरी प्रक्रिया बेहिसाब तरीके से जटिल हो गयी है. इस वजह से पारदर्शिता को सुनिश्चित कर पाना बेहद कठिन है. ऐसी स्थिति में कंपनियों को भी दलालों की मदद की जरूरत पड़ जाती है, जो इस व्यवस्था में उनके लिए सहूलियत उपलब्ध करा सके. रक्षा साजो-सामान को देश में ही बनाने और विकसित करने की कोशिशें भी बहुत कामयाब नहीं हो सकी हैं. दलाली के भ्रष्ट तंत्र को अप्रभावी बनाने के लिए देश में रक्षा निर्माण को प्रोत्साहन दिया जाना जरूरी है. इस दिशा में मेक इन इंडिया कार्यक्रम अच्छी पहल है, पर इसके तहत कुछ ठोस कदम उठाया जाना अभी बाकी है. एक आकलन के अनुसार, आगामी दशक में भारत अंतरराष्ट्रीय रक्षा बाजार में पांच लाख करोड़ रुपये खर्च कर सकता है. स्वाभाविक रूप से बिचौलियों की गिद्ध-दृष्टि मोटी दलाली पर रहेगी. अब इसे रक्षा जरूरत कहें, या फिर हथियारों की होड़, खरीद में कमी की गुंजाइश भी नहीं है.