-हरिवंश-
फ्रांस की राज्यक्रांति के संदर्भ में मशहूर कवि विलियम वईसवर्थ ने लिखा था. ‘ब्लिस वाज इट इन दैट डान टू वी एलाइव बट टू वी यंग वाज वेरी हेवेन’उस उषाकाल में जीवित होना आनंदमय था. लेकिन नौजवान होना तो स्वर्गिक सुख था. सचमुच सौभाग्यशाली हैं वे लोग, जो फ्रांस की राज्यक्रांति के गवाह रहे. जिन्होंने संभावनाओं के उस अनंत पुंज ‘फ्रांस क्रांति में हिस्सा लिया, इतिहास रचने और मानव नियति बदलने के क्रम में उस युगांतकारी घटना का रोमांचक अनुभव किया. इस मुल्क में भी जब स्वाभिमान, नियति और भविष्य अंगरेजों के हाथ बंधक बन गया, तब उस नियति को चुनौती देने-बदलने का जो संघर्ष (आजादी की लड़ाई) हुआ, उसमें जो चरित्र निखरे, कुरबानियां दीं, उन्हें जिन्होंने निरखा-परखा, वे निश्चित ही भाग्यशाली हैं.
दुर्भाग्य है इस नयी पीढ़ी का, जो वंचित रहेगी इन प्रखर सात्विक चरित्रों को जानने से. वैसे तो आजादी के लिए कुरबानी देने वाली उस पूरी पीढ़ी के प्रति यह मुल्क असंवेदनशील रहा, पर अच्युत पटवर्धन जैसा साहसी प्रतिभावान पराक्रमी, भारतीय मनीषा का धरोहर स्वतंत्रता सेनानी चुपचाप देश के पतन पर की किसी कोने में आंसू बहाता रहे, पर कहीं भी सत्ता, मीडिया, राजनीति, समाज में खबर न हो, यह सिर्फ इसी कृतघ्न और आत्मकेंद्रित समाज में संभव है. आज अच्युत जी को बहुत लोग नहीं जानते होंगे, तो आश्चर्य नहीं.
पर अगस्त क्रांति (1942) में अंगरेजों की गिरफ्तारी की सूची में पहला नाम अच्युत पटवर्धन का था. जय प्रकाश नारायण, डॉ राम मनोहर लोहिया गिरफ्तार हो गये. पर अच्युत पटवर्धन को अंगरेजों की पुलिस नहीं पकड़ सकी. तब वह भारतीय स्वाभिमान , शौर्य और साहस के प्रतीक बन गये थे.
अच्युत पटवर्धन महाराष्ट्र के अहमदनगर के एक अति समृद्ध और सम्मानित परिवार में जनमे. वह युवा कैशोर्य थे, तब माता-पिता गुजर गये-बड़े भाई राव साहब पटवर्धन परिवार के कर्ता-धर्ता बने. लेकिन आजादी की लड़ाई और सात्विक क्रांति के उस मोहक सपने में पूरा परिवार डूब गया. खूबसूरत प्रतिबद्ध, उद्भट विद्वान, अध्येता राव साहब पटवर्धनसादगी के प्रतिमान बने. उन्होंने जो जीवन अंगीकार किया, उससे हजारों नौजवानों ने ऊर्जा ग्रहण की. उस संघर्ष का आन-बान सीखा, जिसके गौरवमय चिह्न इस देश के स्वर्णिम इतिहास में अंकित हैं. 1942 में राव साहब गिरफ्तार हुए. जेल गये. कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य बने. नेहरू-पटेल के व्यक्तिगत मित्र बने.
गांधी के प्रियपात्र आपा साहब पटवर्धन, महाराष्ट्र के गांधी कहलाये. महाराष्ट्र की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका ‘साधना’ के संपादक रहे. आजादी के बाद दिल्ली में कांग्रेसी नेताओं का सत्ता भूख और पतन देख वह महाराष्ट्र लौट आये. नेहरूजी उन्हें बार-बार केंद्र सरकार में आने के लिए मनाते रहे. लेकिन आपा साहब ने अपने उस समृद्ध और गौरवमय अतीत से आंख मूंद लिया. कई बार नेहरूजी महाराष्ट्र उनके घर मिलने गये, पर वह दिल्ली नहीं लौटे. महाराष्ट्र का गांधी तो दूसरी दुनिया में ही रम चुका था. वह खाने में घी, दूध, मक्खन आदि स्वत: त्याग कर कठिन जीवन आरंभ कर चुके थे.
परिवार का पारंपरिक समृद्धि-वैभव से मुंह मोड़ चुके थे. वह रत्नागिरी के मछुआरों के बीच रम गये थे. उनकी दुनिया बदलने के लिए फिर वहीं आपा साहब ने हरिजनों-भंगियों के बीच काम शुरू किया. महारों के साथ मरे जानवरों को उठा ले जाते. उन्होंने मरे जानवरों को चीरना, चमड़ा निकालना और चप्पलें बनाना आरंभ किया. उनकी जीवन शैली, कार्यपद्धति को आत्मसात कर लिया पूरे महाराष्ट्र में भंगी मुक्ति आंदोलन के वह प्रणता बने. पूज्य अण्णा सहस्त्रबुद्धे ने लिखा, उनका चरित्र तो स्फटिकवत, शुभ्र और पारदर्शी था.
आजादी का जो समृद्ध-मोहक सपना आपा साहब ने देखा, उससे भौतिक धन-संपत्ति त्याग का संघर्ष का रास्ता अंगीकार किया. लेकिन आजादी के बाद विभाजन और क्रूरता देखी, उससे उनका दिल टूट गया. पर काग्रेसियों का सत्ता मोह देख कर तो उन्होंने दिल्ली ही छोड़ दी. वह महाराष्ट्र लौट कर तुकाराम के अभंग (भजन) गाने लगे. गरीबों और त्याज्य समूहों के बीच रहने लगे. इसी बीच बंबई में एक दिन मौलिक विचारक कृष्णमूर्ति से वह मिलने गये.
उस रात ऐलिफेंटा गुफा देखने की योजना बनी. चांदनी रात. समुद्र और आदिमयुग की ऐलिफेंटा गुफा, रास्ते में नाव पर राव साहब ने कृष्णमूर्ति एवं अन्य साथियों को शंकराचार्य के श्लोक ‘महेषु मूर्ति’ संस्कृति में गाकर सुनाया. सुंदर और बांधनेवाला स्वर. इसके बाद कृष्णमूर्ति ने पूछा, ‘भारत हर तरह के सृजन के प्रति इतना डेड (मरा हुआ) क्यों है?’भारत के समाज में इसी सृजनता के सौंदर्य को तलाशते-गढ़ते आपा साहब पटवर्धन 1969 में गुजर गये. उसी आपा साहब के छोटे भाई हैं, अच्युत राव पटवर्धन.
1936 में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य हुए. 1934 में नासिक जेल में कांग्रेस समाजवादी पार्टी के संस्थापकों में से रहे. उन दिनों उच्युत पटवर्धन का जीवट, सौंदर्य, साहब ही चर्चा के विषय नहीं थे, बल्कि उनकी गणना उस दौर के सबसे प्रखर बुद्धिजीवियों-चिंतकों में होती थी.
मार्क्सवाद के प्रकांड पंडित मार्क्सवाद पर वह जो नहीं जानते थे, वह प्रामाणिक नहीं माना जाता था. उनके संबंध में ऐसी राय थी. आचार्य नरेंद्रदेव उन्हें बहुत स्नेह करते थे. उच्युत पटवर्धन खूनी क्रांति में विश्वास करते थे. 1942 में अंगरेज पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी. वेश बदल कर वह डटे रहे. ‘क्रांतिकारी’ पत्रिका का भूमिगत रहकर संपादन किया. समाजवादी दल द्वारा निकलनेवाले साप्ताहिक का संपादन किया.
लेकिन 1947 में कांग्रेस में सत्ता की भूख देख कर वह निराश हो गये. दार्शनिक कृष्णमूर्ति के पास गये. अगली सुबह कृष्णमूर्ति उन्हें घूमाने ले गये. एक पेड़ की ओर इंगित कर कहा, इस पेड़ के पत्ते को देखो. वह कोमल हरा था, फिर पीला हुआ. इससे इस पत्ते का कोई लेना-देना नहीं हैं. यह जन्मा, सूखा और गिरेगा. राजनीति में रहने या उसे त्यागने का निर्णय अपनी इच्छा से लेना गलत हैं. चीजें स्वत: घटती हैं. कुढ़ना-चिढ़ना बंद करो’. 1947 में ही अच्युत जी अंतिम बार गांधी जी से मिले. उन्हें कहा, कुछ दिनों के लिए राजनीति छोड़ रहा हूं. गांधी जी ने पूछा, कहां जा रहे हो. उन्होंने बताया, कृष्णमूर्ति के पास. वह मुदित हुए. उन्होंने अच्युत जी से कहा, मैं गहरे अंधेरे से गुजर रहा हूं. कोई किरण नहीं दिख रहीं.