– हरिवंश-
विश्व बैंक की एक ताजा रपट के अनुसार भारत सरकार गरीबों को एक रुपया लाभ पहुंचाने के क्रम में दो से सात रुपये खर्च करती है.
हर फोरम से वह देशी उद्योगपतियों को निवेश के लिए उत्साहित कर रहे हैं. बार-बार वह और उनकी टीम दोहरा रही है कि अर्थव्यवस्था की आधारभूत चीजें (फंडामेंटल) मजबूत हैं. पर निवेश की दुनिया में संशय और ठहराव है. कुछ अर्थशास्त्री इसे राजनीतिक अस्थिरता से भी जोड़ कर देखते हैं. मंदी अर्थव्यवस्था की चौहद्दी पर मंडराती नजर आ रही है.
ऑटोमोबाइल उद्योग की हालत निराशाजनक है. उदारीकरण के बाद इस क्षेत्र में भारी विकास का अनुमान था. मियेलो, पीगट्स, फोर्ड, एस्कोर्ट्स, ओपल एस्टला कारों के नये-नये मॉडल से ऑटोमोबाइल बाजार पट गया. पर इस वित्तीय वर्ष के आरंभिक तीन महीनों में, पिछले वर्ष के इसी दौर के मुकाबले दो फीसदी ऑटोमोबाइल उद्योग में निर्माण घटा है. हल्की गाड़ियों के निर्माण में भी पिछले वर्ष के मुकाबले दो फीसदी की कमी आयी है. स्कूटर-मोपेड के निर्माण में अप्रैल-जून 1996 और अप्रैल-जून 1997 के बीच 14 फीसदी गिरावट आयी हे. कच्चे तेल के उत्पादन में भी इस वित्तीय वर्ष के आरंभिक तिमाही में तीन फीसदी की कमी हुई है. पिछले वर्ष इसी समय की तुलना में अन्य इंजीनियरिंग उत्पादों में भी गिरावट आयी है.
कंपनियों की शिकायत है कि भारतीय बंदरगाह बुरी स्थिति में है. सड़कें जर्जर है. बिजली संकट गंभीर बनता जा रहा है.बेंगलूर जैसे महानगर में आठ-आठ घंटे बिजली नहीं रहती. उद्योग और देश में बिजली की मांग बढ़ रही है, तो उत्पादन घट रहा है. कुल मिला कर अर्थव्यवस्था का बुनियादी ढांचा बीमार लगता है. इस क्षेत्र में उदारीकरण के बावजूद और केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की सक्रियता के बाद भी ब़डा निवेश नहीं हो रहा.
इस स्थिति के लिए जिम्मेवार कौन है? वित्त मंत्री ने आर्थिक संपादकों से बातचीत में कहा कि बगैर विश्वास के निवेश नहीं बढ़ता. यह सही है कि देशी-विदेशी निवेशकर्ता संशय में है कि कमजोर केंद्र सरकार, परस्पर विरोधी दिशाओं में कार्यरत केंद्र सरकार के मंत्रालय और अयोग्य केंद्रीय मंत्री (बहुसंख्यक) क्या विश्वास का माहौल बना पायेंगे?
भ्रष्टाचार दूसरा गंभीर मामला है. सरकारी निवेशों पर आय (रिटर्न) की स्थिति स्पष्ट करती हैं कि सरकारी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार कितना फैल गया है. विकास के कामों पर जो पूंजी लगती है, उसका रिटर्न नहीं है. इन दोनों तथ्यों को केंद्र सरकार के लोग अच्छी तरह जानते हैं, पर इन पर बात नहीं करना चाहते. क्योंकि इस हमाम में सभी एक-दूसरे का चेहरा जानते हैं. महत्वपूर्ण विभागों के अफसर और मंत्री इसी खोज में रहते हैं कि अपनी विफलताओं का सेहरा किसी अन्य मंत्रालय या राज्य सरकारों के माथे बांध सकें. उधर राज्यों की हालत है कि वे अपनी विफलताओं के लिए केंद्र को दोषी ठहरा रहे हैं.