– मालवीय जी की पावन स्मृति! –
– हरिवंश-
भारत का भविष्य, संपदा, समृद्धि और विकास से तय नहीं होनेवाला. अब यह चरित्र से तय होगा. भारतीय जीवन में, समाज में, परिवार में अगर चरित्र नहीं बचा, तो इस देश का भविष्य नहीं है. याद रखिए, चरित्र का अर्थ सेक्स नहीं है. यह व्यापक अर्थ रखता है. अंतत: राजनीतिक चरित्र, ही देश में एक नयी आभा, आलोकपुंज और इस गहरे अंधेरे में रोशनी का केंद्र बन सकता है. गुलाम और अशक्त भारत को जिन लोगों ने नयी राह दिखाई, वे दुनिया में अपने चरित्र के कारण एक नयी रोशनी की तरह लगे.
ऐसे ही चंद विलक्षण भारतीयों में से एक हैं, पंडित मदन मोहन मालवीय. 25 दिसंबर,2013 को उनकी 152 वीं जन्मतिथि है. दरअसल, किसी भी देश के लिए ऐसे महापुरुष या सपूत का जीवन राष्ट्रीय समारोह-उत्सव का विषय या प्रसंग होना चाहिए. ऐसे आयोजनों के बहाने ही अभियान चला कर ऐसे लोगों की स्मृति को पुनर्जीवित करें, उनके चरित्र और जीवन के प्रेरक प्रसंगों को गांव-गांव, घर-घर पहुंचा कर कोई भी देश या समाज अपना कायाकल्प कर सकता है. अपने पतन को रोक सकता है. आज युवा पीढ़ी अपने लिए ‘रोल मॉडल’ तलाशती है. भला मालवीय जी से बढ़ कर कौन दूसरा प्रेरक हो सकता है? उनकी स्मृति से देश-समाज में एक नया मानस बन सकता है. याद रखिए, मदन मोहन मालवीय जैसे लोगों की जन्मतिथि पर ऐसे समारोह आयोजित कर हम उन्हें कुछ नहीं दे रहे. वह तो अपने जीवन के कार्यों से ही अमर हैं.
उनकी स्मृति के बहाने हम अपना पाप धोकर, पुण्य अर्जित कर सकते हैं. चरित्र खोते देश में, ऐसे लोगों की पुण्य स्मृति से चरित्र का महत्व या अर्थ या प्रासंगिकता या जरूरत समझ सकते हैं. एक पंक्ति में जान लीजिए कि वह अत्यंत गरीब घर में पैदा हुए. सड़क की रोशनी में पढ़ाई की. चार बार कांग्रेस अध्यक्ष बने. महान देशभक्त, शिक्षाशास्त्री, विरल और चरित्रवान संपादक हुए. नयी राह पर चलनेवाले. अपने समय के जानेमाने वकील. श्रेष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता, अव्वल दर्जे के सांसद. अनोखे, बेजोड़, उम्दा वक्ता और कुलपति. लोग उन्हें सिर्फ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के संस्थापक के रूप में ही जानते हैं, पर वह अनेक संस्थाओं के निर्माता थे. गांधी जी प्राय: कहा करते थे, ‘मैं मालवीय जी महाराज का अनुयायी-भक्त हूं.’
नेहरू जी ने भी कहा था, ‘मालवीय जी, देश के उन महान सपूतों में से एक थे, जिन लोगों ने आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की नींव डाली, जिसके ऊपर भारतीय स्वतंत्रता का महल खड़ा हुआ.’ गौर करिए, आज के सौ साल से भी अधिक पहले उन्होंने बीएचयू की परिकल्पना की. तब भारत में ‘इंटर-डिसिप्लनरी शोध’ प्रचलित या पॉपुलर नहीं था. यह समय से बहुत आगे की बात थी. देश के कोने-कोने से चरित्रवान अध्यापकों को मालवीय जी ने बनारस में इकट्ठा किया. मामूली वेतन पर. ऋषि तुल्य विद्वान और चरित्रवान अध्यापक, मालवीय जी के तप और परिकल्पना से बीएचयू को ‘सर्व विद्या की राजधानी’ बनाने जुटे.
प्राण-प्रण से. बनाया. कैसे-कैसे लोग वाइसचांसलर हुए? आचार्य नरेंद्र देव, डॉ. राधाकृष्णन .. पर इससे भी अधिक मालवीय जी ने देश के संदर्भ में, चरित्र के महत्व को समझा और तब (1905 में) कहा था कि शिक्षा का उद्देश्य महज टेक्नोक्रेट और ब्यूरोक्रेट पैदा करना नहीं है, बल्कि चरित्र के इंसान, इंटीग्रिटी के देशभक्त पैदा करना है. उन्होंने साफ कहा था कि बिना मूल्य, इथिक्स के शिक्षा का कोई अर्थ नहीं है. 1905 में बीएचयू की स्थापना के समय यह सब कहा. मालवीय जी की बातें पढ़ते हुए लगता है कि वह भारतीय परंपरा के महान ऋषियों में से एक थे. वह द्रष्टा थे. गौर करिए, उनके एक -एक शब्दों पर और आज की परिस्थितियों में आंकिए.
‘ महज औद्योगिक प्रगति से, धन और संपदा की प्रचुरता से लोगों को खुशी नहीं मिल सकती? न इनके आ जाने से ही भारत, महान राष्ट्रों में से एक हो जायेगा? श्रेष्ठ होने के लिए उनके अंदर चरित्र का होना सबसे महत्वपूर्ण है. इसी तरह महज बुद्धि या ज्ञान अर्जित करने से अधिक जरूरी किसी समाज या समुदाय का चरित्रवान होना है. इसलिए इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय (बीएचयू) में, युवकों में चरित्र के निर्माण को महत्व देने की प्राथमिकता होगी. यह इसका सबसे मुख्य उद्देश्य है. यह सिर्फ विद्यार्थी या इंसान को इंजीनियर, डॉक्टर, उद्यमी, व्यापारी या दार्शनिक ही नहीं बनायेगा, बल्कि सामाजिक जीवन में श्रेष्ठ चरित्र, प्रोबिटी (श्रेष्ठ गुण या ईमानदारी या सत्यनिष्ठा) और श्रेष्ठ आत्मसम्मान वाले इंसान को भी गढ़ेगा. यह श्रेष्ठ इंसानों को गढ़ने की नर्सरी होगा, बजाय एक स्तरीय ज्ञान के ढांचे में औसत रूप से सबको ढालने का टकसाल घर होने के.’
मालवीय जी के काम और भारत के नवनिर्माण में उनकी भूमिका इतनी व्यापक है कि उस पर कुछेक शब्दों में टिप्पणी संभव नहीं. पर उनके जीवन के दो प्रेरक प्रसंग आज के भारत के संदर्भ में याद करना, समझना और सीखना जरूरी है. अपने व देशहित में. महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के जमाने में जायें, तो उन्होंने किस स्तर के सार्वजनिक प्रतिमान बनाये और लोक जीवन में किस तरह के आचरण और चरित्र का नमूना पेश किया? महज दो प्रसंग जानिए.
पहला, काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना उन्होंने की थी. वह इसके वाइसचांसलर बनाये गये. तब भी वह देश के कोने-कोने में घूम कर भिक्षा अभियान चलाते रहे, विश्वविद्यालय चलाने के लिए. तब लाखों लाख रुपये वह एकत्र करते थे. याद रखिए, वह बड़े गरीब घर में पैदा हुए थे. सड़क की रोशनी में पढ़ाई कर बड़े हुए. पर देश के सर्वोच्च नेताओं में वह गिने जाते थे. वह टमटम से चलते थे. वाइसचांसलर रहते हुए भी अपने यात्रा व्यय या रहन-सहन के लिए वह विश्वविद्यालय से कुछ भी नहीं लेते थे. वह बहुत सादा खाते-पहनते थे.
उनके मेहमान बहुत आते थे, जिन्हें वह बिना खाये नहीं लौटने देते थे. मालवीय जी का आदेश था कि भले ही वह वाइसचांसलर है, पर विश्वविद्यालय के धन का एक धेला भी उन पर खर्च न हो. विश्वविद्यालय, बनारस स्टेशन से आठ-नौ किलोमीटर दूर है. उनके पास मोटर नहीं था. इक्के से ही वह आते-जाते थे. काफी वृद्ध हो गये थे. एक बार वह इक्के से स्टेशन से लौट रहे थे. थके हुए थे. उनके दो छात्रों ने उन्हें इस हाल में देखा. कुंवर सुरेश सिंह और श्रीसुंदरम. सुरेश सिंह, कालाकांकर राजघराने से थे. इनके बड़े भाई अवधेश सिंह रियासत के राजा थे. इन दोनों छात्रों (कुंवर सुरेश सिंह और उनके सहपाठी श्री सुंदरम) को मालवीय जी की यह स्थिति देख बहुत बुरा लगा.
ग्लानि हुई कि ऐसे तपस्वी के लिए हम कुछ नहीं कर पा रहे. दोनों ने तय किया कि मालवीय जी को हम एक कार खरीद कर देंगे. यह भी निश्चय किया कि कल सवेरे चंदा एकत्र करने का काम शुरू करेंगे. जब तक मोटर के लिए पैसे नहीं जुटा लेंगे, भोजन नहीं करेंगे. उन दिनों फोर्ड कार की कीमत तीन हजार रुपये थी. सुबह हुई. दोनों बिना जलपान किये, चंदा मांगने निकल पड़े. विश्वविद्यालय के 99 फीसदी छात्र निम्न मध्यवर्ग के थे.
उनसे कुछ-कुछ इकट्ठा हुआ. शाम तक कुल दो हजार रुपये मिले. दोनों मित्र परेशान कि अब क्या हो? वे दानवीर बाबू शिवप्रसाद गुप्त के यहां गये. आजादी की लड़ाई में शिवप्रसाद जी का बड़ा योगदान था. वह चुपचाप लोगों की मदद करते थे. देश को बड़ी संपत्ति दान की. ऐसे लोगों का योगदान आज तक देश न जान सका है, न सम्मान कर सका है. दोनों उनके घर गये. अपना मंतव्य बताया. उन्होंने दान दिया. इस शर्त पर कि इनका नाम कहीं न बताया जाये. शेष पूरी राशि उन्होंने दे दी. दोनों खुश होकर हॉस्टल लौटे. पता चला मालवीय जी ने कुंवर साहब को तत्काल बुलाया है.
देर रात हो गयी थी. दोनों सुबह गये. मालवीय जी ने देखते पूछा, सुरेश, मैंने ऐसा कौन-सा अपराध किया था कि तुमने, मुझे इतना बड़ा दंड दिया. सुरेश सिंह हतप्रभ. मालवीय जी ने कहा, कल दिन भर तुमने मेरे लिए चंदा इकट्टा किया. जानते हो इस विश्वविद्यालय में सारे देश से गरीब लोगों के बच्चे आते हैं. वे जब लौट कर अपने-अपने गांव या घर जायेंगे, तो कहेंगे कि मालवीय जी की कार खरीदने के लिए हमने चंदा दिया. तब देशवासी मेरे बारे में क्या सोचेंगे? विश्वविद्यालय की कितनी बदनामी होगी? तुम तो ताल्लुकेदार के लड़के हो, तुमलोगों को जब मोटर खरीदनी होती है, तो अपनी रैय्यत से चंदा वसूल लेते हो, तब प्रजा को कितना कष्ट मिलता है, जानते हो? मेरे नाम यह कलंक क्यों लगा रहे हो? कुंवर साहब स्तब्ध थे, पर कहा कि इस वृद्धावस्था में आपको इक्के पर थके-मांदे जाते देख मुझसे रहा नहीं गया. मालवीय जी ने कहा, तुम राजा-रहीस परिवार के हो, मैं तो जन्मजात कष्ट और दुख से ही पला-बढ़ा हूं. तुमलोगों ने यह तय किया था कि चंदा पूरा न मिलने तक तुम खाओगे नहीं. अब मेरी बात सुनो. जब तक एक -एक पैसा उन्हें नहीं लौटाते, जिनसे चंदा लिया है, तब तक मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगा. जाओ सबका पैसा लौटा कर मुझे बताओ. बताने की जरूरत नहीं कि शाम तक जिन-जिन से चंदे लिये गये थे, सबको वापस लौटा दिये गये.
उसी मालवीय जी के जीवन का दूसरा प्रसंग है. भारतीय सार्वजनिक जीवन के उत्कर्ष का अनुपम उदाहरण. मालवीय जी विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में कुलपति आवास में रहते थे. उनका परिवार भी साथ रहता था. मालवीय जी के घर में उनका खाना अलग रसोई में बनता था और उनके परिवार का खाना अलग रसोई में. एक दिन मालवीय जी का पोता परीक्षा देने जा रहा था. उस दिन सुबह घर के रसोईघर में नाश्ता तैयार नहीं था. पोते को परीक्षा देने जाना था. मालवीय जी के निजी रसोई में नाश्ता तैयार था. रसोई महाराज दौड़े-दौड़े पूछने आया कि बाबू (मालवीय जी) बच्चे को परीक्षा देने जाना है, घर की रसोई में नाश्ता तैयार नहीं है. आपकी रसोई में तैयार है. खिला दें? मालवीय जी ने मना किया. कहा, घर के लिए खर्च होनेवाले पैसे से उसे नाश्ते के लिए कुछ पैसे दे दो. परीक्षा देनी थी.
नाश्ता करने का समय नहीं मिला. पोता परीक्षा देकर घर लौटा, तो पता चला कि मालवीय जी भी भूखे बैठे हैं. दोनों खाने बैठे. अलग-अलग रसोईघर से खाना आया. पोते ने पूछा, दादाजी क्या वजह है कि आपने अपने रसोईघर से मुझे नाश्ता नहीं करने दिया? मैं भी भूखा रहा और अब तक आप भी भूखे बैठे हैं? एक दिन मैं आपकी रसोई का खाना खा लेता, तो न मैं भूखा रहता और न आपको अब तक भूखा रहना पड़ता.
मालवीय जी ने जो उत्तर दिया, वह अद्भुत और अप्रतिम है. क्लासिक. भारतीय चिंतन और स्वस्थ मूल्यों के श्रेष्ठ सत्वों का अंश. मालवीय जी ने कहा, तुम अभी नहीं समझोगे. बच्चे हो? घर का खाना जिस पैसे से बनता है, वह पैसा घर के लोग अपनी मेहनत-परिश्रम से कमाते हैं. वह श्रम और पसीने की कमाई है. मेरा खाना जहां बनता है, वहां दान की राशि से बनता है. उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी के शब्दों में ‘दानवीर’ कहे जानेवाले शिवप्रसाद गुप्त के घर से मालवीय जी के खाने के लिए अन्न (अनाज) आता था. चूंकि थोड़ी-बहुत मैंने देश की सेवा की है, इसलिए मैं दान में मिले अन्न को पचा सकता हूं. तुमलोग देश की सेवा नहीं कर रहे हो, इसलिए दान का अन्न पचाने की क्षमता नहीं रखते. यह तुम्हारे लिए क्षतिकर होगा. कौन ऐसा होगा जो अपने परिवार की क्षति चाहेगा?
यह अद्भुत प्रसंग है. हथौड़े की तरह मस्तिष्क पर लगनेवाला. क्या यह वही देश है, जहां लूट, बेईमानी, बिना परिश्रम कमाये धन से नेता-शासकवर्ग, पांच सितारा जीवन भोग रहे हैं. किस तरह का अन्न खाते थे? जिस समाज में यह विचार था, आज वह समाज कहां पहुंच गया? उसी भारतीय समाज में आज बेईमानी, भ्रष्टाचार के क्या प्रतिमान हमने गढ़ लिये हैं? बहुत बाद में महाभारत का प्रसंग पढ़ते हुए मालवीय जी का यह प्रसंग, स्मृति में फिर कौंधा.
भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर थे. वह हर दिन युद्ध के बाद कौरव-पांडवों को प्रवचन देते थे. उसमें सब जाते थे. द्रौपदी नहीं जाती थी. एक दिन कृष्ण ने कहा, द्रौपदी, पितामह की बातें सुनने तुम भी चलो. द्रौपदी अनिच्छा से तैयार हुई. उस दिन पितामह ने पौरुष वगैरह पर चर्चा की. कहा, अन्याय देख कर भी जो व्यक्ति चुप रह जाये, उसका पौरुष मर जाता है. द्रौपदी बोली, पितामह इजाजत हो तो एक सवाल पूछूं? पूरी सभा सन्न. पितामह से कोई पूछता नहीं था. वह बोले,पूछो बेटी. द्रौपदी बोली, आज आप वीरता, पौरुष, धर्म, मूल्य सब पर बोल रहे हैं, पर उस दिन आपका पौरुष कहां था, जब मेरा चीरहरण हो रहा था? पितामह ने अद्भुत उत्तर दिया. कहा कि बेटी अब मैं शरशय्या पर हूं. मेरे रक्त में किसी अन्न का प्रभाव या असर नहीं रह गया है. इसलिए मैं निष्पक्ष ढंग से सोच सकता हूं. तब मैं कौरवों का अन्न खाता था. वह पाप का अन्न था. इसलिए मेरे विचार प्रदूषित थे और मैं न्याय-अन्याय पर सही विचार नहीं कर सका.
यह प्रसंग सही है या गलत मैं नहीं जानता, पर जिस समाज में अन्न किस माध्यम से आता है, उसके उपार्जन का रास्ता ईमानदार है या नहीं? इस पर विचार होता रहा हो, जहां गांधी ने आंदोलन से अधिक साधन और साध्य पर विचार किया हो आज उस मुल्क की स्थिति कहां पहुंच गयी है? क्या वह यही कांग्रेस या शासकवर्ग या राजनीति है, जिसमें मालवीय जी जैसे ऋषि पैदा हुए या रहे हैं?