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बिकने के खतरे!
– हरिवंश – क्या ‘बिकाऊ होना’, हमारा उभरता राष्ट्रीय चरित्र है? खासतौर से वर्ष ’91 के बाद. 1993 में पहली बार कुछेक सांसदों के बिकने की खबर आयी. इसके पहले राज्यों के प्रतिनिधियों (विधायकों) तक ‘आया राम गया राम’ की बीमारी सीमित थी. इसके पहले कस्टम, पुलिस और प्रशासन के भ्रष्टाचार के सवाल उठते थे, […]
– हरिवंश –
क्या ‘बिकाऊ होना’, हमारा उभरता राष्ट्रीय चरित्र है? खासतौर से वर्ष ’91 के बाद. 1993 में पहली बार कुछेक सांसदों के बिकने की खबर आयी. इसके पहले राज्यों के प्रतिनिधियों (विधायकों) तक ‘आया राम गया राम’ की बीमारी सीमित थी. इसके पहले कस्टम, पुलिस और प्रशासन के भ्रष्टाचार के सवाल उठते थे, पर इसी दौर में (पोस्ट ’91) देश ने देखा कि ‘मुंबई ब्लास्ट’ में आइएसआइ और दाऊद गिरोह ने कस्टम, पुलिस और सरकारी सिस्टम का इस्तेमाल कैसे किया?
उन्हें खरीद कर. इन चीजों की जांच के लिए बनी ‘वोरा कमेटी’ ने ‘राजनीतिज्ञों, अपराधियों और शासकों की सांठगांठ और आपसी रिश्तों को उजागर किया. इस रिपोर्ट को राष्ट्रीय बहस का एजेंडा बनाने और राजनीति में सुधार की कोशिश के बदले इस रिपोर्ट को ही तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने दबा दी. परिणाम! लगातार आतंकवादियों के देशव्यापी विस्फोट. हर बार केंद्र सरकार का बयान कि कारगर कदम उठा रहे हैं. पर आज तक एक आतंकवादी-षडयंत्रकारी नहीं पकड़ा गया? न ही विस्फोट बंद हो रहे हैं.
वोरा कमेटी ने नेताओं का बिका रूप दिखाया था. पर उसे दबा दिया गया. और आज सांसदों के बिकने की चर्चाएं हैं? ’93 में चार सांसदों पर यह आरोप लगा, तो आज अनेक संदेह के घेरे में हैं.
भाजपा के एक सांसद चंद्रभान सिंह की खबर आयी कि वह मरणासन्न हैं. अस्पताल के आइसीयू वार्ड में भरती हैं. वोटिंग के दिन. सूचना यह थी कि उन्हें लोकसभा से अनुपस्थित कराने के लिए सरकार के पालिटिकल क्राइसिस मैनेजरों ने यह सब किया. देश ने देखा. अगले दिन वह, अस्पताल से मुक्त सड़क पर पैदल मार्च कर रहे थे. इसी तरह लोकसभा में क्रास वोटिंग करनेवाले सांसदों के मामले हैं. ऐसे खुले फरेब के पीछे के कारण, देश के सत्ताधीश जानें या न जाने, जनता जान-समझ रही है.
22 जुलाई को लोकसभा में विश्वासमत पाने के दौरान कॉरपोरेट हाउसों की सक्रियता की खबरें भी आयी हैं. यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है. देश के जो राजनीतिक हालात हैं, उनमें स्पष्ट बहुमत के आसार किसी दल को नहीं दिखता. ऐसी स्थिति में ‘कॉरपोरेट हाउसों और राजनीतिक दलों’ का यह रिश्ता क्या कमाल करेगा? सरकार गठन में पूंजी की निर्णायक भूमिका होगी. और पूंजी कौन देगा? कॉरपोरेट हाउस, बड़े घराने ही न? ये क्यों पैसा लगायेंगे?
ताकि सरकार की नीतियां अपने फेवर में बनवा सकें या प्रतिस्पर्द्धी घरानों के हालात बिगाड़ सकें. 1990 के बाद से लगातार कुछ राज्य सरकारों के गठन में पूंजी की भूमिका की खबरें आती रही हैं. अब केंद्र भी अछूता नहीं रहनेवाला? इसका पहला राजनीतिक परिणाम होगा कि जनता जितनी प्रसन्न हो, पर लोकतंत्र का भविष्य नागरिक नहीं, कॉरपोरेट हाउस और पूंजी तय करेंगे? ऐसा नहीं होगा कि इस ‘नोटतंत्र’ के खिलाफ जनता चुप बैठेगी.
उसके मन में धन से प्रभावित-संचालित लोकतंत्र के इस नये रूप के खिलाफ गहरा आक्रोश होगा. घृणा भी. और याद रखिए, यह स्थिति अंतत: किसके पक्ष में जायेगी? माओवादियों और नक्सलियों के! और इस स्थिति के लिए जिम्मेवार कौन होंगे? कौन लोग इस लोकतंत्र को अविश्वसनीय साबित करने और यह हालात पैदा करने पर तुले हैं? हमारे राजनीतिक दल, नेता और सरकारें. अपने आदर्शहीन आचरण, सिद्धांतहीन राजनीति और बिकाऊ चरित्र के कारण.
पूंजी घराने कैसे सरकारों को प्रभावित करेंगे, यह दृश्य हाल में देश ने खुलेआम देखा. एक बड़े घराने का मित्र राजनीतिक दल, केंद्र सरकार से संबंध बनाते ही, खुलेआम उसके पक्ष की नीतियों की दलीलें देने लगा. साथ ही उस घराने के प्रतिस्पर्द्धी घराने को परेशान करने का अभियान भी. विश्वास मत के बाद, जिस बड़े घराने के समर्थक राजनीतिक दल की भूमिका अब ‘केंद्रीय’ हो गयी है, शेयर बाजार में इस घराने के ‘शेयर वैल्यू’ और कुल परिसंपत्ति में भारी इजाफा की खबरें हैं. यह भी खबर है कि सांसदों के क्रय-विक्रय संबंधी खबरों को मैनेज करने में भी इस मित्र कॉरपोरेट हाउस की भूमिका रही है.
एक और महत्वपूर्ण बदलाव दिखायी देगा. सीटें लाकर , कोई कितना बड़ा दल बन जाये (बहुमत से नीचे), पर सरकार वही राजनीतिज्ञ बनायेंगे, जो पूंजी संपन्न होंगे. पूंजी घरानों की पसंद होंगे. टाटा समूह जैसे पूंजी घराने, जो अपने वसूल, प्रतिष्ठा और ‘ प्रोफेशनल कॉरपोरेट हाउसों’ की तरह चलते रहे हैं, उन्हें परेशानी होगी. जो उद्योग घराने, अपने काम से सरोकार रखते हैं, उन्हें भारी मुसीबतें झेलनी होंगी.
इतना ही नहीं, राजनीति के इस बिकने के खतरे अनेक हैं. जीवन, समाज और देश का कोई पहलू अछूता नहीं होगा, जिस पर इस ‘बिक्री संस्कृति’ का असर न हो?
दिनांक : 27-07-08
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