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लोकतंत्र चाहते हैं, तो संस्थाओं को बचाएं

– हरिवंश – कपार्ट (Council for Advancement of People s Action and Rural ) के महानिदेशक एलवी सप्तर्षि द्वारा चुनाव आयोग की आलोचना के एक सप्ताह के अंदर सेवा विस्तार का प्रस्ताव. पशुपालन घोटाले के 20 घोटालेबाज अभियुक्तों और उनके वकीलों ने रांची में जज एके सेनगुप्ता को धमकाया और हाईकोर्ट में जज बदलवाने की […]

– हरिवंश –
कपार्ट (Council for Advancement of People s Action and Rural ) के महानिदेशक एलवी सप्तर्षि द्वारा चुनाव आयोग की आलोचना के एक सप्ताह के अंदर सेवा विस्तार का प्रस्ताव. पशुपालन घोटाले के 20 घोटालेबाज अभियुक्तों और उनके वकीलों ने रांची में जज एके सेनगुप्ता को धमकाया और हाईकोर्ट में जज बदलवाने की अरजी दी.
चर्चित पशुपालन घोटाले का डीए केस (आमद से अधिक आय) सुनवाई 2004में खत्म, फैसला नहीं सुनाया गया. बहुत बाद में एक जज रिटायर. फिर दूसरा बेंच बना. नये सिरे से सुनवाई. सुनवाई खत्म.
तब एक जज ने कहा हम इस मामले में नहीं रहना चाहते. अब फिर नये सिरे से मामले की सुनवाई होगी. सुप्रीम कोर्ट इस घटनाक्रम से नाराज.
इस मामले में अपनी कुल संपत्ति के एक बड़े हिस्से की आमद का स्रोत लालू प्रसाद-राबड़ी देवी नहीं बता पाये हैं. कहा जाता है कि इस मामले में सीबीआइ के पास उनके खिलाफ अकाट्य प्रमाण हैं.
लोकसभा के ग्रीष्म काल में लगातार हो-हंगामा या बहिष्कार. ऊपर सात प्रमुख खबरों की हेडलाइन या खबरों के अंश उद्धृत किये गये हैं. ये खबरें देश के महत्वपूर्ण अखबारों के शीर्षक या हेडलाइन हैं या खबरों के अंश हैं. गौर से देखें तो पायेंगे कि ये खबरें संसद, न्यायपालिका, नौकरशाही, चुनाव आयोग से संबंधित हैं. यानी भारतीय लोकतंत्र और संविधान के जो प्रमुख स्तंभ हैं, वे इन खबरों के केंद्र में हैं.
दूसरा निष्कर्ष कि सभी सात सूचनाएं, विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की गंभीर सेहत बता रही हैं. इन संस्थाओं की नींव पर भारत का लोकतंत्र खड़ा है, अगर संस्थाएं अपनी गरिमा, महत्व और संवैधानिक ताकत खोती नजर आयें, तो भविष्य आंकना कठिन काम नहीं है.
लोकतंत्र की मूल भावना, परंपरा और मर्म को लोकतांत्रिक संस्थाएं ही जिंदा रखती और दीर्घजीवी बनाती हैं. लोकतंत्र की जड़ें गहरी बनाती हैं. भारतीय लोकतंत्र की सेहत ठीक रखने के दो आधार स्तंभ हैं, पहला – राजनीतिक दल. दूसरा – संवैधानिक पद्धति के तहत विकसित या बनी या गठित लोकतांत्रिक संस्थाएं यानी विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका.
राजनीतिक दलों की अंदरुनी स्थिति क्या है? सीपीएम, सीपीआइ वगैरह जैसे कुछ दलों की छोड़ दें, तो अब राजनीतिक दल पारिवारिक संस्था बन गये हैं. खासतौर से मध्यमार्गी दल. मसलन मायावती जो चाहें, बहुजन समाज पार्टी वही फैसला करेगी. यही स्थिति लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, रामविलास पासवान, करुणानिधि, चंद्रबाबू नायडू, बालठाकरे वगैरह के दलों की है. इन दलों में अंदरुनी लोकतंत्र है ही नहीं. इन दलों के सुप्रीमो की इच्छा-निर्णय ही पार्टी की इच्छा-निर्णय है.
पार्टियों का वार्षिक अधिवेशन हो, विभिन्न नीतियों पर बहस हो, फिर पार्टी संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर लोग, पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा चुन कर बैठायें जायें, तब पार्टियों के अंदर लोकतंत्र मजबूत होगा. इस तरह पार्टियों के अंदर से लोकतांत्रिक संस्कृति में पले-बढ़े नेता बाहर आयेंगे, विधायिका में पहुंचेंगे, तो वे एक-दूसरे दलों के प्रति लोकतांत्रिक व्यवहार-विनम्रता, संयम और मर्यादा का परिचय देंगे. आज राजनीतिक दलों में प्रतिभा, काम, सेवा, समर्पण की पूंजी से कार्यकर्ता आगे नहीं बढ़ते. पैसा, अपराध, चाटुकारिता से आगे बढ़ते हैं.
क्योंकि इन पारिवारिक दलों में बड़े नेताओं की दादागीरी-तानाशाही है. इस कारण ऐसे दलों में चमचागीरी,जी हजूरी और अहंकार की संस्कृति ही विकसित होती है, इस संस्कृति-पृष्ठभूमि से विधायिका में पहुंचे लोग सिर्फ लड़-झगड़ सकते हैं. अपना अहंकार-शारीरिक ताकत ही दिखा सकते हैं, अपनी सत्ता का धौंस बता सकते हैं, अपनी ताकत से दूसरों को चुप कराने की धमकी दे सकते हैं कि ‘ हम राजा हैं, राजा के लिए कोई कानून-नियम नहीं होता’.
आज अलोकतांत्रिक दलों से निकले लोगों पर लोकतंत्र चलाने की जिम्मेवारी है, यह सबसे बड़ी विसंगति है. पहले ये गैरकांग्रेसी नेता ‘ कांग्रेस आलाकमान’ की तानाशाही और नेहरू पारिवारवाद की बात करते थे. यह सही है कि इंदिरा गांधी ने कांग्रेस की अंदरुनी व्यवस्था-आंतरिक लोकतंत्र को खत्म किया, इसके बाद से कांग्रेस लगातार फिसलती ही गयी, पर अन्य दलों ने कांग्रेस के इस पतन का ही अनुकरण किया है. कहने को भाजपा के वार्षिक अधिशेवन होते हैं, नीतियों पर चर्चा होती है, पर भाजपा का भी ‘ कांग्रेसीकरण’ हो चुका है. भाजपा आलाकमान का निर्णय ही अंतिम निर्णय माना जाता है.
कांग्रेस संस्कृति जैसा ही भाजपा में भी भाजपा आलाकमान संगठन में अपनी मरजी के अनुसार नेताओं को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाता है. लोकतांत्रिक मूल्यों के तहत कार्यकर्ताओं के चयन से संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर नेता बैठाये जायें, तो लोकतांत्रिक परंपरा विकसित होगी. इसलिए भारतीय लोकतंत्र में ‘ दलों के अंदर लोकतंत्र’ कायम हो, इसकी पहल सबसे जरूरी है. यह लोक दबाव में ही हो सकता है.
राजनीतिक दलों के अलोकतांत्रिक आचरण से ‘ लोकतंत्र’ से सामान्य लोगों का मोहभंग होता है. हाल ही में दिल्ली में गांगुली स्मृति व्याख्यानमाला में ‘ लोकतंत्र क्यों’ विषय पर प्रसिद्ध समाजविज्ञानी प्रो जान कीन का व्याख्यान हुआ. उनका मानना है कि पुराने प्रजातंत्रों से एक तरह का मोहभंग हुआ है.
प्रजातंत्र की निर्दोषता पर से लोगों का विश्वास डिगा है. उनका यह भी मानना था कि लोकतांत्रिक समाजों में आज एक नये प्रकार की असमानता काम कर रही है. पर आज भी लोकतंत्र का कोई विकल्प नहीं है. उन्होंने माना कि लोकतंत्र को विनयशील बनाना जरूरी है. विनयशीलता, प्रजातंत्र की सबसे अच्छी सहचर है. इस कसौटी पर भारतीय लोकतंत्र को परखा जा सकता है.
लोकतंत्र को मजबूत रखने के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं को स्वायत्त और मजबूत करना जरूरी है. सीबीआइ के निदेशक यूएस मिश्रा ने हाल ही में ‘ टाइम्स ऑफ इंडिया’ से बातचीत में कहा कि सीबीआइ की स्वायत्तता मिथक (गढ़ंत बात) है. कई संवेदनशील मामलों पर उन्होंने खुल कर टिप्पणी की. पद पर रहते हुए. वह साहसिक अफसर लगते हैं.
उन्होंने माना कि प्रभावशाली ताकतों द्वारा महत्वपूर्ण जांच शुरू होने के पहले ही ‘ पुल एंड प्रेशर’ (दबाव) शुरू हो जाता है. एक पूर्व पेट्रोलियम मंत्री के खिलाफ सीबीआइ जांच का उन्होंने उल्लेख किया और कहा कि जांच में उन्हें सजा दिलाने के लिए पर्याप्त सबूत मिले, पर केंद्र सरकार ने आगे जाने के लिए मंजूरी नहीं दी. उनका संकेत सतीश शर्मा की ओर था.
अब यह यूपीए सरकार अगर एनडीए के पूर्व मंत्रियों के खिलाफ सीबाआइ जांच बैठाती है और अपने लोगों के खिलाफ चल रही जांच रोकती है, तो ‘ संस्थाएं’ महज शासकों के हाथ की कठपुतली रह जायेंगी. सत्ताधारी अपने विरोधियों को तंग करने के लिए ही इन संस्थाओं का इस्तेमाल करेंगे. एनडीए सरकार ने भी ‘ अयोध्या प्रकरण’ में आगे जांच की अनुमति नहीं दे कर यही काम किया था. धीरे-धीरे ये संस्थाएं सत्ताधारियों के हाथ में उसी तरह खिलौना बन जायेंगी, जैसा अलोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में राजा, डिक्टेटर या तानाशाह, ऐसी संस्थाओं का इस्तेमाल अपने निज हित में करते हैं. इसलिए धर्मवीर आयोग ने ’80 के आसपास अपनी रिपोर्ट में पुलिस व्यवस्था के संचालन में आमूलचूल परिवर्तन का प्रस्ताव दिया था. पर किसी दल ने उसे नहीं माना.
अब मायावती सीबीआइ पर आरोप लगा रही हैं कि दलित-गैरदलित मापदंड के आधार पर सीबीआइ काम कर रही है. पर केंद्र सरकार सीबीआइ को ‘ डिफेंड’ (बचाव) नहीं कर पा रही. अनेक भ्रष्ट नेता जब पकड़े जा रहे हैं, उनके खिलाफ जांच शुरू हो रही है, तब वे इन जांच एजेंसियों पर जाति या दल या धर्म के अनुसार आचरण का आरोप लगा रहे हैं. यह खतरनाक शुरुआत है.
कल से हर दोषी आदमी, जाति-धर्म या दल का सहारा लेगा और संस्थाएं कारगर नहीं रह पायेंगी. भ्रष्ट लोगों और अपराधियों की कोई जाति-जमात नहीं होती. ये अपने भ्रष्टाचार, अपराध या ब्लैकमनी के लिए जातिगत अपील या धार्मिक अपील कर वोट बैंक खड़ा करते हैं. यह प्रवृत्ति बढ़ी, तो देश बंट जायेगा. सिविल सोसाइटी या संवैधानिक व्यवस्था का विकास ऐसे आचरण से नहीं होता. हमारे यहां कहां तक हालात पहुंच गये हैं?
पिछले दिनों आरजेडी के कुछ ताकतवर-दबंग सांसद यात्रा कर रहे थे, इलाहाबाद में उनसे टिकट मांगा गया, उन्होंने टिकट मांगनेवाले रेल अफसरों की पिटाई कर दी. ऊपर से रेल मंत्री को गलत सूचनाएं देकर रेल अफसर को निलंबित करा दिया. कहां कार्रवाई इन सांसदों के खिलाफ होनी चाहिए थी, तो हो रही है रेल अफसरों के खिलाफ. इस निर्णय के खिलाफ एक डिवीजन के रेल कर्मचारी हड़ताल पर चले गये. यह ‘ स्टेट अॅाफ एफेयर’ (राजकाज की स्थिति) है.
इसी तरह कैग की रिपोर्ट है. सेंटूर होटलों के विनिवेश मामले में कैग की टिप्पणी के आधार पर जांच होनी चाहिए. पर कैग की अन्य सख्त रिपोर्टों पर भी यही मापदंड लागू होना चाहिए.
बंगाल सरकार के कई विभागों के खिलाफ कैग की रिपोर्ट में अनेक सख्त टिप्पणियां-कमेंट्स हैं, बड़ी गड़बड़ियों का उल्लेख है. नौ-नौ वर्ष से कई विभागों के हिसाब ही नहीं दिये जा रहे हैं, बिहार-उत्तर प्रदेश में कैग की रिपोर्टों में शासकों द्वारा लूट-खसोट के भयावह तथ्य दर्ज हैं. एक राज्य में मुख्यमंत्री आवासों में 35 लाख की चाय पीने, कई लाख के परदे खरीदने जैसे तथ्य दिये गये हैं, पर कोई कार्रवाई नहीं होती. लोकतंत्र में कार्रवाई राजनीतिक शत्रुता के आधार पर नहीं, हर मामले के गुण-दोष के अनुसार होनी चाहिए.
चुनाव आयोग के महत्व और गरिमा को सत्ता दल नुकसान पहुंचाये, यह अकल्पनीय है. लालू प्रसाद ने आइएएस अफसर एलवी सप्तर्षि के कथित पत्र को लेकर संवैधानिक संस्था के खिलाफ गंभीर आरोप लगाये. इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चुनाव आयोग के बचाव में उतरे. केंद्रीय मंत्रिमंडल की आचारसंहिता के तहत यह विचित्र स्थिति है. प्रधानमंत्री बचाव कर रहे हैं, उनके मंत्रिमंडल के एक वरिष्ठ सहयोगी संवैधानिक संस्था पर प्रहार कर रहे हैं.
इतना ही नहीं, जिस आइएएस सप्तर्षि के पत्र के आधार पर यह सब हुआ, कानून मंत्री का कहना है कि वह पत्र ही नहीं मिला. यह आइएएस सप्तर्षि कौन हैं? कपाट के निदेशक. कपाट के बोर्ड में अपना ही कार्यकाल, तीन वर्षों के लिए बढ़ाने का प्रस्ताव पारित करानेवाले. विचित्र स्थिति यह है कि एक तरफ अंतरात्मा की आवाज पर राष्ट्रहित में छपरा चुनाव की पुरानी बातें वह देश को बता रहे हैं, साथ ही वह रिटायर हो रहे हैं, तो उनके कार्यकाल को बढ़ाने का प्रस्ताव भी पास हो रहा है.
सार्वजनिक जीवन में एक अफसर की निर्लज्जता की पराकाष्ठा. क्यों नहीं माना जाये कि रिटायरमेंट के बाद पद पाने के लिए उन्होंने यह सब किया. एनडीए के कार्यकाल में अटल बिहारी वाजपेयी का सार्वजनिक रूप से पैर छूनेवाले, उनकी प्रशंसा में कविता लिखानेवाले हैं, यह प्रतिनिधि. गौर करने की बात है कि इस लोभी चरित्र के आइएएस की बात पर – कथित पत्र पर प्रधानमंत्री, रेलमंत्री अलग-अलग खड़े दिखाई दिये और चुनाव आयोग विवाद का विषय बना. हमारे राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में आजादी के पचपन वर्षों बाद भी इतनी ‘ इमैचुएरिटी’ (अपरिपक्वता) है, यह चिंता का विषय है. यह कार्यपालिका की स्थिति है.
न्यायपालिका को कैसे कमजोर किया जा रहा है? हाल ही में रांची में मशहूर 20 पशुपालन घोटालेबाजों ने मिल कर एक जज को बदलने की अरजी झारखंड हाईकोर्ट में दी है.
अब यह स्थिति बनती जा रही है कि अभियुक्त तय करेंगे कि अदालत कैसी हो, कौन जज हों? यह सवाल कोई नहीं उठा रहा कि 10-11 वर्षों से चल रहे पशुपालन घोटाले के मामले में त्वरित न्याय क्यों नहीं हो रहा? ताकतवर कैसे न्याय-प्रक्रिया में विलंब कराते हैं, यह स्पष्ट प्रमाण है.
रांची की एक अदालत में पशुपालन घोटाले के 20 अभियुक्तों ने जज को धमकाया. यह स्थिति अकल्पनीय है. पशुपालन घोटाले में सार्वजनिक रूप से सरकारी कोष लूटा जाता रहा. यह लूट लंबे अरसे से चल रही थी. अब ये लुटेरे नहीं चाहते कि त्वरित न्याय हो. यानी अपराध भी करें और सजा भी न मिले. यह समाज यहां पहुंच गया है. कोई नैतिक सरोकार नहीं, कोई मूल्य नहीं, कोई लज्जा नहीं. देहात में एक कहावत है ‘ सेंध पर बिरहा गावे’. आज हिंदी इलाके का समाज यहां पहुंच गया है.
इसी तरह लालू प्रसाद पर डीए (आमद से अधिक आय) का मामला चल रहा है. 2004 में इसकी सुनवाई खत्म हुई. फिर दो में से एक जज रिटायर हो गये, पर फैसला नहीं आया. पुन: दूसरा बेंच बना.
नये सिरे से सुनवाई शुरू हुई. सुनवाई पूरी हुई. फैसला होना था कि पिछले माह दो में से एक जज ने इस मामले से हटने की बात कही. उच्चतम न्यायालय इसी मामले को लेकर नाराज है. ऐसे मामलों से समाज में क्या संदेश जा रहा है?
जहां इन बातों पर गंभीर चर्चा हो सकती है, उस विधायिका का क्या हाल है? संसद का लगातार बहिष्कार, हो-हल्ला. इसके लिए दोषी कौन है?
कोई दल पाक-साफ नहीं. जब एनडीए सत्ता में था, तब लंबे समय तक जार्ज फर्नांडीस का बायकाट चला. 1996 के बाद केंद्र में लगातार सरकारों का आना-जाना लगा है, पर 1996 के बाद ही यह हुआ कि प्रधानमंत्री के शपथग्रहण का बहिष्कार होने लगा. दलों में व्यक्तिगत शत्रुता-स्पर्द्धा आ गयी. क्या लोकतंत्र व्यक्तिगत स्पर्द्धा-शत्रुता से चलता है?
कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं की गरिमा को बढ़ाना और उन्हें मजबूत करना, भारतीय समाज-सिविल सोसाइटी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है.
आज राजनीतिक दलों में प्रतिभा, काम, सेवा, समर्पण की पूंजी से कार्यकर्ता आगे नहीं बढ़ते. पैसा, अपराध, चाटुकारिता से आगे बढ़ते हैं.
आज अलोकतांत्रिक दलों से निकले लोगों पर लोकतंत्र चलाने की जिम्मेवारी है, यह सबसे बड़ी विसंगति है. लोकतंत्र को विनयशील बनाना जरूरी है. विनयशीलता, प्रजातंत्र की सबसे अच्छी सहचर है. इस कसौटी पर भारतीय लोकतंत्र को परखा जा सकता है.
अब यह यूपीए सरकार अगर एनडीए के पूर्व मंत्रियों के खिलाफ सीबाआइ जांच बैठाती है और अपने लोगों के खिलाफ चल रही जांच रोकती है, तो ‘ संस्थाएं’ महज शासकों के हाथ की कठपुतली रह जायेंगी.
अब यह स्थिति बनती जा रही है कि अभियुक्त तय करेंगे कि अदालत कैसी हो, कौन जज हों? यह सवाल कोई नहीं उठा रहा कि 10-11 वर्षों से चल रहे पशुपालन घोटाले के मामले में त्वरित न्याय क्यों नहीं हो रहा?
यह समाज यहां पहंच गया है. कोई नैतिक सरोकार नहीं, कोई मूल्य नहीं, कोई लाभ नहीं. देहात में एक कहावत है ‘ सेंध पर बिरहा गावे’. आज हिंदी इलाके का समाज यहां पहुंच गया है.
दिनांक : 14-05

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