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दुर्लभ प्रजाति का कछुआ विलुप्ति के कगार पर

अगरतला : नरम खोल वाले दुर्लभ एन निगरीकन कछुऐ विलुप्ति के कगार पर हैं. इस प्रजाति के कछुए त्रिपुरा के गोमती जिले के तारिपुरेश्वरी मंदिर के जलाशय में पाए जाते हैं. अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संगठन :आईयूसीएन: ने बोसतमी के लोकप्रिय नाम से पहचाने जाने वाले इन विशेष प्रकार के कछुओं के बारे में बताया है […]

अगरतला : नरम खोल वाले दुर्लभ एन निगरीकन कछुऐ विलुप्ति के कगार पर हैं. इस प्रजाति के कछुए त्रिपुरा के गोमती जिले के तारिपुरेश्वरी मंदिर के जलाशय में पाए जाते हैं.

अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संगठन :आईयूसीएन: ने बोसतमी के लोकप्रिय नाम से पहचाने जाने वाले इन विशेष प्रकार के कछुओं के बारे में बताया है कि वे विलुप्ति के कगार पर हैं.

अगरतला से करीब 55 किमी दूर उदयपुर के राजा धन्यमाणिक्य द्वारा बनवाया गया यह पंद्रहवीं सदी का मंदिर देश का सबसे पवित्र हिंदु मंदिर माना जाता है ओर देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है.

इस मंदिर को कर्म पीठ के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि मंदिर परिसर का आकार कर्म :कछुआ :की याद दिलाता है. मंदिर के पूर्व की तरफ बने कल्याण सागर जलाशय में बोसतमी प्रजाति के कछुओं का निवास है.

जलाशय 6 4 एकड़ क्षेत्र में फैला है और यह इन कछुओं का प्राकृतिक पर्यावास है. जलाशय के कछुओं को खाना खिलाने का मंदिर आने वाले श्रद्धालुओं के लिए बहुत महात्म्य है. कछुए वहां आने वाले लोगों द्वारा लाया भोजन खाने के लिए तट तक चले आते हैं. इन्हें डालने के लिए खाना वहीं बने छोटे छोटे स्टालों में बिकता है. श्रद्धालु उन्हें चूड़ा और बिस्कुट खिलाते हैं.

माताबारी मंदिर समिति ने करीब एक दशक पहले जलाशय के किनारों को सीमेंट से पक्का करा दिया था जिसके बाद से कछुओं की संख्या में लगातार कमी आ रही है.

राज्य के मत्स्य विभाग के अधिकारियों के अनुसार जलाशय के किनारों को 1998 में पक्का कराए जाने के अगले ही वर्ष कम से कम सात कछुए मर गए. उन्होंने बताया कि इस समस्या का एक और कारण यह है कि यात्री , पर्यटक ,श्रद्धालु और अन्य लोग जलाशय में हर दिन प्लाटिक के थैले आदि फेंक देते हैं जिसके कारण पूरे जलाशय के पानी की सतह पर हर ओर पालिथीन और प्लास्टिक के थैले तैरते दिखाई देते हैं.

त्रिपुरा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक दल ने पाया है कि इस जलाशय के पानी की गुणवत्ता उत्तम है और यह पीने लायक है.

विशेषज्ञों का मत है कि जलाशय के तटों को पक्का किए जाने के कदम से ही कछुओं का प्राकृतिक पर्यावास बिगड़ गया और उनके अंडे देने के स्थान भी छिन गए जिसके परिणामस्वरुप उनकी मौत ही नहीं हो रही बल्कि उनकी जन्म दर में भी कमी आई है.

लेंबुचेरा स्थित सेंट्रल फिशरीज कालेज के प्रोफेसर मृणाल कांति दत्त ने बताया ,‘‘तत्काल जरुरत इस बात की है कि कछुओं को प्राकृतिक वातावरण और रेतीला तट मुहैया कराया जाए जोकि जलाशय के चारों ओर दीवार बना देने और तटों को पक्का कर देने के चलते उनसे छिन गया है.

पर्यावरणविद् और राज्य वन्यजीव बोर्ड के सदस्य ज्योति प्रकाश रायचौधरी ने बताया कि कछुओं को पक्के कर दिए गए तट पर आकर सुस्ताने और घूमने फिरने में दिक्कत आ रही है. मुख्यमंत्री माणिक सरकार की अध्यक्षता में गत तीन जून को हुई राज्य वन्यजीव बोर्ड की बैठक में रायचौधरी ने सुझाव दिया था कि जलाशय के तटों को फिर से रेतीला बनाया जाए और उसके आसपास की भूमि का अधिग्रहण किया जाए ताकि कछुए वहां आराम से अपने अंडे दे सकें.

मत्स्य पालन विभाग के सूत्रों ने बताया कि इन कछुओं को इस जलाशय से निकालकर अन्यत्र भेजा जाना लगभग असंभव है क्योंकि यह स्थानीय लोगों की धार्मिक आस्था से जुड़ा मामला है.

रायचौधरी ने बताया कि इसी प्रजाति के कछुओं की कुछ संख्या असम के गुवाहाटी स्थित कामाख्या मंदिर के निकट नीलाचल पहाड़ी पर बने कच्चा पुकरी :जलाशय : में पाई गई है.

कुछ समय पहले तक समझा जाता था कि ये कछुए लगभग विलुप्त हो चुके हैं और सिर्फ चटगांव की हजरत बायजिद बोसतामी दरगाह के जलाशय में ही शेष बचे हैं.उन्होंने बताया कि लेकिन अब पता लगा है कि असम में ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी जिया भरोली में भी इनकी कम से कम एक प्रजाति मौजूद है. रायचौधरी ने कहा कि ऐसा भी हो सकता है कि क्योंकि यह छोटे छोटे समूहों में झीलों और जलाशयों में पाले जा रहे हैं इसलिए उन्हें कोई अनुवांशिक समस्या हो गई हो. इसलिए जरुरी है कि किसी भी अनुवांशिक बीमारी या दिक्कत से इन्हें बचाने के लिए इनके नए समुदायों के बीच प्रजनन कराने के प्रयास किए जाएं.

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