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ईद के मौके पर लोगों ने याद किये पुराने दिन, कहा – नर हो, न निराश करो मन को

आज देश के कई इलाकों में मुसलिम समुदाय के लोगों ने बाजू में काली पट्टी बांधकर ईद का विशेष नमाज अदा किया गया. आजाद भारत में शायद यह पहला मौका है, जब ईद जैसे प्रमुख त्यौहार में विरोध का यह तरीका अपनाया गया हो. सोशल मीडिया में काली पट्टी का कुछ लोग विरोध कर रहे […]

आज देश के कई इलाकों में मुसलिम समुदाय के लोगों ने बाजू में काली पट्टी बांधकर ईद का विशेष नमाज अदा किया गया. आजाद भारत में शायद यह पहला मौका है, जब ईद जैसे प्रमुख त्यौहार में विरोध का यह तरीका अपनाया गया हो. सोशल मीडिया में काली पट्टी का कुछ लोग विरोध कर रहे हैं, वहीं कई लोगों ने इस विरोध के तरीके को उचित ठहराया है.दोनों समुदाय के बीच खराब संबंधों के पीछे की वजह क्या है, यह अंतहीन बहस शायद ही कोई अंतिम बिंदु तक पहुंच पाये. हिंदू – मुसलिम संबंध के बीच तमाम विसंगतियों के बावजूद ऐसे उदाहरण आज भी मिल जायेंगे, जो भाईचारा का मिसाल पेश करते हैं. सोशल मीडिया में भले ही तल्खी का माहौल हो लेकिन जमीन की कहानी कुछ अलग ही होती है.ईद के मौके पर फेसबुक में लोगों ने अपने पुराने अनुभव साझा किये. ऐसे अनुभव जो हिंदू – मुसलिम खराब संबंधों के मिथक को तोड़ती है.

पेशे से पत्रकार धर्मवीर सिंह अपने फेसबुक वॉल पर लिखते है, करीब दो साल पहले की बात है. एक मुस्लिम नौजवान बस में मेरे बगल की सीट पर बैठा था.पत्रकारिता के पेशे की आदत कहिये या मुस्लिम समाज के बारे में अधिक से अधिक जानने की मेरी उत्सुकता की मैंने उस नौजवान से बात करना शुरू किया. उसकी बातों में जो अपनापन था उसने बस का सफ़र ख़त्म होने तक मुझे एक दोस्ती का एहसास दिला दिया. बस से उतरने से पहले नाम पूछा तो उसने अपना नाम मोहम्मद राशिद खान बताया. वह अम्बाला के एक सरकारी ऑफिस में क्लर्क था. रोज एक ही रूट के मुसाफ़िर होने के कारण अक्सर मुलाक़ात होती. इन मुलाकातों ने दो अलग धर्म के लोगों को एक मजबूत इंसानी रिश्ते में बांध दिया. लेकिन बाद में राशिद का तबादला होने के कारण करीब एक साल से नियमित मुलाक़ात का यह सिलसिला बंद हो गया. फिर भी सोशल मीडिया के बहाने दुआ सलाम का दौर जारी रहा.
आज ईद के मौके पर राशिद का फोन आया और घर का पता पूछा. घर के दरवाजे पर राशिद खान ईद की मुबारक मिठाई लिए खड़ा था. गले लग कर राशिद को ईद मुबारक बोला और मिठाई स्वीकार की. धर्म के नाम पर द्वेष पैदा करने वाले कितनी भी नफ़रत फैलाएं. लेकिन जब तक राशिद खान जैसे युवा और प्रेम-प्यार बाँटने का यह सिलसिला जारी रहेगा, तब तक नफ़रत कभी भी इंसानियत पर हावी नहीं हो सकती. वहीं इस पोस्ट के जवाब में सूफी सैयद इजहार अली ने लिखा ‘नर हो न निराश करो मन को ‘ अभी भी भारत की 85%जनता गंगा जमनी तहज़ीब की अलमबरदार है ,लेकिन आप का यह व्यंग्यात्मक लेख समय की पुकार है.
ईद के मौके पर एक अन्य फेसबुक यूजर्स सुबोध राय उन नेताओं को आड़े हाथों लेते हैं जिन्होंने अपने मुसलिम साथियों को त्यौहार के मौके पर बधाई नहीं दिया. सुबोध राय लिखते हैं "सबको ईद की बहुत-बहुत मुबारकबाद, मुबारक उन वरिष्ठों, मित्रों, की ओर से भी जिन्हें लगता है ईद पर कुछ मुबारक बोल देने से वो सब अपने देवतातुल्य नेता की नज़रों में कम हो जाएंगे. क्या है न जिन्हें शमशान और कब्रिस्तान के फर्क में मुर्दों का मज़हब देखने की आदत हो वो त्योहारों में खुशियां कहां देखेंगे. ऐसे बीमारों के जल्द ठीक होने की दुआ कीजिएगा और हो सके तो ऐसे लोगों को माफ कीजिएगा"
अपने बचपन के दिनों को याद करने वालों में एक अन्य पत्रकार अवीश तिवारी भी है जिन्होंने लिखा कि "मुझे जिसने पहली राखी बांधी वो एक मुस्लिम लड़की थी. उस वक्त मेरी उम्र पांच छह साल रही होगी,फूल जैसी मेरी बहन,उसके मुंह से भईया भी बमुश्किल निकलता होगा. फिर पड़ोस में मिर्जा अंकल आये उनकी बिटिया का नाम रूबी था, घर मे आती तो माँ उसे भी खीर देती. मैँ हमेशा का लालची उसकी कटोरी का भी खीर खा जाता,उसने भी मुझे राखी बांधना शुरू किया,आशु भाई ,आशु भाई. फिर मेरे कस्बे की किस्मत दोनों बहनें जाने अपने माता पिता के साथ न जाने कहाँ गुम हो गई थोड़ा बड़ा हुआ तो दुर्गा पूजा एक ऐसा त्यौहार था जिसका हमे साल भर इंतजार रहता. मगर आरिफ न हो तो कैसी दुर्गा पूजा? वो हम सबसे ज्यादा जागता,सबसे ख़ूबसूरती से पंडाल सजाता. खुर्शीद जिसके साथ मैँ बड़ा हुआ. मुफ़्ती केसर रजा ,जिसने मुझे बताया कि गम को भुलाने के तरीके क्या क्या हो सकते हैं.तुम सभी ईद पर बहुत आते हो मेरे यार, तुम लोग जहां भी रर्हो,आसमान चूमो और खूब खुश रहो."
दलित चिंतक दिलीप मंडल आरएसएस पर निशाना साधते हुए लिखते हैं कि मैं ट्रेवल में हूँ. आपकी सेंवई नहीं खा पाऊंगा. हो सके तो मेरा हिस्सा किसी रोते हुए बच्चे को दे दीजिए, ताकि उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाए.ईद मुबारक दोस्तों, और हाँ संघियों, तुमको भी मीठी ईद मुबारक. मीठा खाओ, ताकि ज़िंदगी की कड़वाहट कम हो.
वहीं निर्मल कुमार ने लिखा है कि कैसे दे दूं मुबारकबाद कि कहीं कुछ सुलगता सा अहसास हो रहा है.खुशनसीबी कहें या बदनसीबी इस मुल्क की कि कत्लो-आ म भी अब आम होता जा रहा है.जो कल तक पीठ पे था खंजर अब सीने पे ही भोंका जा रहा है.कैसे कह दूँ मुबारकबाद कि कहीं कुछ सुलगता सा अहसास हो रहा है. त्यौहार को समाज अलग होता है"
सच पूछा जाये तो सिर्फ धर्म के लिए नहीं बल्कि समाजिकता के बोध के लिए भी जरूरी है. कह सकते हैं ईद हो या दीपावाली एक साझा बिंदु है, जहां पहुंचकर हम दूसरे समुदायों के साथ मिलकर सामूहिकता का अहसास पाते हैं

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