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सरकारी शोषकों की नयी जमात

-हरिवंश- ‘बंधुआ मजदूरी प्रथा’ मिटाने का सरकारी नारा एक दशक पुराना है. 1976 में बड़े जोर-शोर से इसे खत्म करने का संकल्प किया गया. अब एक दशक पूरा होने पर सरकार अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीट रही है. कुछ स्वैच्छिक संगठन भी बंधुआ मजदूरी उन्मूलन में जी-जान से जुटे हैं, लेकिन कुल मिला कर आज […]

-हरिवंश-

‘बंधुआ मजदूरी प्रथा’ मिटाने का सरकारी नारा एक दशक पुराना है. 1976 में बड़े जोर-शोर से इसे खत्म करने का संकल्प किया गया. अब एक दशक पूरा होने पर सरकार अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीट रही है. कुछ स्वैच्छिक संगठन भी बंधुआ मजदूरी उन्मूलन में जी-जान से जुटे हैं, लेकिन कुल मिला कर आज दस वर्ष बाद भी स्थिति में कोई बुनियादी फर्क नहीं आया है.

वस्तुत: गुलाम बनाने, बिना पैसे दिये काम कराने और नजराना वसूलने की सामंती प्रवृत्ति को नये समाज का सपना दिखानेवालों ने अपना लिया है. द्विज होने का अहं और वर्ग भेद जब तक नहीं मिटेंगे, तब तक किसी-न-किसी रूप में यह समस्या कायम रहेगी. औद्योगीकरण इसका इलाज नहीं है. कारण, यह समस्या हमारी मानसिक गुलामी से जुड़ी है. राजनेता भी बंधुआ मजदूर रखते हैं. मंत्रियों की बात छोड़िए. हर संसद सदस्य और विधायक के यहां ‘सेवार्थ’ बेरोजगार पिछड़ों की एक फौज तैनात है. नये सरकारी शोषक पुराने सामंतों से अधिक क्रूर और बददिमाग हैं. कल-कारखानों और सरकारी कार्यालयों में जो नये बंधुआ मजदूर बढ़ रहे हैं, उनके बारे में हम नहीं जानते. दिहाड़ी पर लाखों मजदूरों से रोजाना सरकार काम लेती है. कहीं बांध बनवाने में, कहीं ऑफिस की रखवाली में, तो कहीं अस्थायी रोजगार दे कर.

ऐसे हजारों दिहाड़ी मजदूर सरकारी नौकरशाहों के ‘बंधुआ मजदूर’ (गुलाम) हैं. वस्तुत: सरकारी रजिस्टरों (मस्टर रोल) में ऐसे मजदूरों को दिहाड़ी मजदूर के रूप में दिखाया जाता है, पर वे सेवा करते हैं, अपने साहबों की. वर्षों तक ऐसे मजदूरों का शोषण होता है, फिर अचानक ये सड़क पर धकेल दिये जाते हैं. ये बेबस मजदूर हुक्मरानों के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकते. क्योंकि मौजूदा समाज में सत्ता और दौलत के संयोग से अहं जन्मता है. यह अहं गरीब मजदूरों को सिर उठाने की इजाजत नहीं देता. सरकारी साहब लोग अपने ऑफिस के दिहाड़ी मजदूरों का वर्षों तक शोषण करते हैं. जब वे कुछ मांग करते हैं, तो उनकी मरम्मत की जाती है. विरोध करने पर उनकी हत्या भी कर दी जाती है. कुछ सरकारी अधिकारी अपने पद -आतंक का लाभ उठा कर गरीब मजदूरों को गुलामों से बदतर जीवन जीने को विवश करते हैं.

पिछले दिनों बिहार विधानसभा में एक विधायक ने एक बंधुआ मजदूर का हवाला दिया. पलामू सामंतों का गढ़ है और बंधुआ मजदूरों की खान. यहां सरकारी अधिकारी और क्रूर सामंतों में गंठजोड़ है. पलामू जिले के भवनाथपुर थाने में प्रभारी अधिकारी थे, सदरूद्दीन खां. उसी थाने में केतार गांव है. इस गांव के गोपी दुसाध के नाबालिग लड़के को थाना प्रभारी ने अपने गांव में बंधुआ मजदूर बना कर रखा. पहले वह बालक देव प्रसाद (उम्र 9 वर्ष) उत्तरप्रदेश के एक कालीन कारखाने में बंधुआ मजदूर था. बाद में सरकारी मदद से उसे मुक्ति मिली. जब वह मुक्त हो गया, तो थाना प्रभारी ने देव प्रसाद के पिता को सौ रुपये माहवार देने तथा बुनाई के लिए सरकारी अनुदान दिलाने का प्रलोभन दिया और देवप प्रसाद को अपने गांव (उ.प्र) ले गये. तीन वर्षों तक गोपी को न एक धेला मिला और न उसे अपने लड़के से मिलने ही दिया गया.


इस वर्ष जुलाई में गोपी भवनाथपुर थाने गया. उसने अपने बच्चे को वापस करने की मांग की. लेकिन इसी बीच रहस्मय ढंग से उसकी हत्या हो गयी. उसकी लाश भवनाथपुर थाने के पास ही जंगल में मिली. लाश को लावारिस बता कर पोस्टमार्टम किया गया. काफी दिनों बाद यह भेद खुला कि मरनेवाला व्यक्ति गोपी दुसाध था. अब गोपी दुसाध की सुध लेनेवाला कोई नहीं है.
आज से 13 वर्ष पूर्व कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण हुआ था. लेकिन आज भी बिहार के कोयलांचल में करीब दो लाख मजदूर बंधुआ मजदूर की तरह जीने को विवश हैं. खदानों में ‘कैशियर’ कुछ मजदूरों से तनख्वाह पाने संबंधी कागजों पर अंगूठे का निशान ले लेते हैं, लेकिन वेतन नहीं देते. जिन मजदूरों को वेतन मिलता है, गुंडे उनसे वहीं ‘रंगदारी टैक्स’ वसूलते हैं. ट्रेड यूनियनों के लोग जबरदस्ती ‘चंदा’ वसूलते हैं. एक-एक मजदूर अनेक यूनियनों को माहवारी चंदा देने के लिए विवश है. चंदे की राशि प्रति मजदूर 10 से 20 रुपये है. सबसे अधिक चंदा वसूलनेवाला मजदूर संगठन हैं, ‘राष्ट्रीय कोलियरी मजदूर संघ’.

यह इंटक से जुड़ा है, जिसके अध्यक्ष बिहार के मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे हैं.जिस दिन कोयलांचल में वेतन का भुगतान होता है, उस दिन सूदखोरों की फौज खदानों के कार्यालयों में मंडराती रहती है. ‘रंगदारी’ और ‘यूनियनों के चंदे’ के भुगतान के बाद मजदूरों के पास जो शेष रहता है, वह उन्हें सूदखोरों के हवाले करना पड़ता है. हालांकि इस इलाके में सूदखोरों का धंधा वर्जित है, लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ा है. कारण इस धंधे के सूत्रधार राजनेता हैं, जो बी.सी.सी.एल. और राज्य सरकार के अधिकारियों को अपने ‘पेरोल’ पर रखते हैं. के.बी. सक्सेना जब धनबाद के डी.सी. थे, तो उन्होंने शोषकों से सख्ती की थी. लेकिन ये शोषक शक्तिशाली और पहुंचवाले लोग हैं. के.बी. सक्सेना को अंतत: वहां से जाना पड़ा.

धनबाद के नये डी.सी. मदन मोहन झा ने भी इन शोषकों के खिलाफ अभियान आरंभ किया है. उन्हें इस साहसिक अभियान में कहां तक कामयाबी मिलेगी, यह पटना में बैठे राजनेता ही तय करेंगे. कारण, इन महाजनों की शक्ति का स्रोत बिहार सरकार है. ये महाजन ही माफिया गिरोह के सरगना और राजनेता हैं. खदानों में फरजी मजदरों को रखवाना और उनसे पैसे वसूलना इन तत्वों का मुख्य पेशा है. माफिया सरदारों-महाजनों और राजनेताओं ने 2 लाख मजदूरों को कोयलांचल में बंधुआ मजदूरों की तरह जीने को विवश कर दिया है.

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