-हरिवंश-
केंद्र सरकार द्वारा प्रदत्त विशिष्ट ताम्रपत्र : बलिदान के ‘एवज’ मेंचौथेपन की दहलीज पर डग टिकाये राधिका देवी अपने समृद्ध और शानदार अतीत से संतुष्ट हैं, पर उन्हें मिला है- मौजूदा व्यवस्था, समाज, प्रशासन और सरकारी तामझाम से. संभव है, पतन के इस धुंध में उनके इस सामाजिक सरोकार और आक्रोश की बात की लोग खिल्ली उड़ा दें, लेकिन देश के लिए सर्वस्व होम करनेवालों के सपने अनदेखा कर कोई भी समाज खोखला ही बनता है.
हाजीपुर (बिहार) से लगभग 30 किमी उत्तर स्थित जलालपुर (लालगंज) गांव की इस महिला ने 18 वर्ष की उम्र में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया. उनके पति बैकुंठ शुक्ल शायद बिहार के पहले शहीद थे, जिन्हें अंगरेजों ने फांसी दे दी. खुद राधिका जी दो-दो बार जेल गयीं, पिकेटिंग, सत्याग्रह, नमक-निर्माण जैसे अनेक कार्यों में अग्रिम मोरचे पर रहीं, गांधी जी के साबरमती और वर्धा आश्रमों में रहीं, पर आजाद मुल्क के कृतघ्न राजनेताओं के सौजन्य से न जाने ऐसे कितने लोग हाशिये पर डाल दिये गये, जिन्हें अपने गुजारे के लिए तिल-तिल आहुति देनी पड़ी.
फिलहाल एक कमरे के एक छोटे और खपरैल घर में राधिका जी अकेले जीवन गुजार रही हैं. सामाजिक यंत्रणा-आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने अपने पति का नाम नहीं भुनाया और न ही अपने किये का प्रतिदान मांगा. यह गर्व से कहती भी हैं. अशक्त होने पर आजिज आ कर उन्होंने 27-1-1987 को तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को एक पत्र लिखा कि ‘मुझे न भरपेट खाने का उचित प्रबंध है और न शेष जीवन बिताने के लिए आवास ही.’
कागजी घुड़दौड़ शुरू हुई. राधिका जी को पटना में मकान ‘एलॉट’ करने के संबंध में सब कुछ हुआ, पर अंत में एक मुद्दे पर सिलसिला टूट गया. मकान एलॉट करनेवाले अधिकारी ने उनसे 3000 रुपये घूस की मांग की. उस क्षण उनको, जो सदमा लगा, उसे वह भूल नहीं पायी हैं. कहती हैं, ‘‘अब अफसोस होता है कि जिस देश के लिए महज 18 वर्ष की उम्र में सिंदूर धुलवा लिया, सिर्फ मैंने ही नहीं, मेरी जैसी अनेक स्त्रियों ने, उस मुल्क को आज घूसखोरी ने बिगाड़ दिया है. अगर यह देश ऐसे ही चला, तो नहीं रहेगा.’’ उन्हें यह भी दुख है कि स्वतंत्रता संघर्ष जैसे पावन कार्य में शरीक का स्वांग रच कर आज हजारों लोग ‘बोगस पेंशन’ ले रहे हैं.
राधिका जी, जिन्हें पास-पड़ोस के लोग ‘देवी जी’ कह कर पुकारते हैं- अपने पति बैकुंठ शुक्ल की प्रेरणा से स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा बनीं. 1927 में उनकी शादी हुई. वह मुहम्मदपुर, गढ़खा (सारण जिला) की रहनेवाली हैं. उनकी बारात में योगेंद्र शुक्ल भी गये थे. आरंभ से ही बैकुंठ शुक्ल संन्यासी प्रवृत्ति के व्यक्ति थे. दो-दो बार साधु हो गये. घर के लोग पकड़ लाये, फिर उन्हें मास्टरी दिला दी. पर उनका मन सांसारिक चीजों में रमता नहीं था. इसी बीच राधिका जी के साथ शादी हो गयी.
राधिका जी बताती हैं कि ‘‘एक बार वह एक मीटिंग में हाजीपुर गये. किशोरी प्रसन्न सिंह एक बड़े नेता थे. उनसे शुक्ल जी की बातचीत हुई. उन्होंने आग्रह किया, ‘सधुअई छोड़ दीजिए, राष्ट्रीय आंदोलन में आप जैसे तपस्वियों की जरूरत है.’ इसके बाद उनका जीवन ही बदल गया. हाजीपुर गांधी आश्रम में जा कर रहने लगे. मुझे भी साथ ले गये कहा, ‘जहां रहेंगे,साथ रखेंगे,’ चूंकि घरवाले उनका अपमान करते थे, क्योंकि वह कमाऊ पूत नहीं थे. इस कारण हम लोग साथ रहने लगे. हाजीपुर में हमलोग नमक बनाते-बेचते थे. यह 1928 की बात है. उस इलाके के गांव-गांव में जाकर लोगों को स्वाधीनता आंदोलन के बारे में बताने का हम काम करते थे. प्रदर्शन, जुलूस में भाग लेते थे, पिकेटिंग करते थे.’’
बिहार जैसी सामंती परिवेश में आज से लगभग 60 साल पहले परदा और द्विजत्व का अहं त्याग कर राधिका जी सार्वजनिक जीवन में उतरीं. पहले वह साइकिल चलाती थीं. आज भी खुद अपना सारा कामकाज करती हैं. किसी के भरोसे भार बन कर नहीं रहना चाहतीं.
स्वाधीनता की लड़ाई में शिरकत के बाद उनकी सक्रियता जैसे-जैसे बढ़ी, वह पुलिस-सीआइडी की नजरों में चढ़ गयीं. कहती हैं, ‘अगर उन दिनों हाजीपुर से मुजफ्फरपुर जाना होता था, तो समस्तीपुर का टिकट लेकर हम ट्रेन में सवार होते थे.’ दो बार प्रदर्शन-जुलूस आदि में हिस्सा लेने के कारण उन्हें सजा भी हुई. पहली बार 3-2-32 को छह माह की सजा, दूसरी बार 1933 में दो माह की. 1942 में हाजीपुर में विरोध प्रदर्शन के बाद वह नेपाल की तराई में भूमिगत हो गयीं.
उनकी स्मृति में आज भी एक-एक चीज ब्योरेवार दर्ज हैं – ‘1932 में मुजफ्फरपुर में कोई बड़ा प्रदर्शन था. पुलिस का भारी बंदोबस्त था. लोग जहां-तहां बिखरे थे. तिलक मैदान से स्टेशन तक भारी भीड़ थी. पुलिस ने तय कर रखा था कि झंडा नहीं फहरने देना है. हम नौ जनाना थे. दो बंगालिन, दो या तीन लक्षी बाबू के घर की. एक रामविनोद बाबू के घर की थीं. एक धरारो (गांव) की थीं. हमलोग झंडा लेकर जुलूस की शक्ल में चले. सरैयागंज तक पहुंचे. वहां लाठीचार्ज हुआ. मुझे 2-3 लाठी लगी. उसके बाद कुछ पता नहीं चला. होश आया, तो पाया कि बगल में राजिंदर बाबू (राजेंद्र बाबू) खड़े हैं. उन्होंने पूछा, ‘देवी, तू पहचानत बाड़ू, हम के हईं तू चिन्हत’ (देवी! क्या मुझे पहचान रही हो. मैं कौन हूं बताओ).
उनकी आंख खुली. पता चला, उन्हें बेहोशी की हालत में मुजफ्फरपुर से लाकर पटना अस्पताल में भरती किया गया. वह कई दिनों तक बेहोश रहीं. आज भी उनकी हथेलियों, केहुनी पर उस मार के लक्षण मौजूद हैं. लेकिन संकोचवश वह अपने त्याग-बलिदान की कहानी खुल कर नहीं बतातीं.
इसके पहले वह गांधी जी के आश्रम साबरमती में छह माह रह कर आयी थीं. राधिका देवी जब हाजीपुर गांधी आश्रम में रहती थीं, तो उन दिनों सांडर्स हत्याकांड के बाद 1929 के अंतिम दिनों में भगत सिंह इधर आये थे. योगेंद्र शुक्ल जी से भी उनका संपर्क था. मलखाचक के रामविनोद सिंह का परिवार क्रांतिकारियों का आश्रयदाता था. वह हर प्रकार का समर्थन देते थे. भगत सिंह कुछ दिनों हाजीपुर गांधी आश्रम में भी रहे, राधिका जी कहती हैं, ‘वहां हम 9-10 जनाना थे. उनके बीच में वह सोते थे. काफी लोग बाहर पहरा देते थे. विचित्र वेषभूषा में उन्हें रखा जाता था. उनके खाने के लिए जगह तय रहती थी. आसपास के कुछ संपन्न लोगों ने भी उन्हें मदद दी.
इसी दौरान बैकुंठ शुक्ल, भगत सिंह से मिले. इस इलाके में रहते हुए इन लोगों की क्रांतिकारी गतिविधियों के बारे में अनेक किंवदंतियां भी हैं. वैसे मलखाचक के रामविनोद सिंह के यहां इन लोगों की काफी जमावड़ा रहा. भगत सिंह को आम बहुत पसंद थे. बगल में जंगल-झाड़ में निशाना भी लगाते थे. काफी मात्रा में ये लोग गंगा किनारे बांस खरीदते थे, चाल बना कर उस पर बैठ कर मीटिंग करते हुए पटना चले जाते थे, फिर पटना में बांस बेचते थे. लोग समझते थे कि ये बांस के व्यापारी हैं.’
भगत सिंह को जब फांसी हुई, तो बैकुंठ शुक्ल बहुत विचलित हो गये. मुखबिर बना उनका पूर्व सहयोगी फणींद्र घोष, बेतिया के मुन्ना बाजार में दुकान करता था. सरकारी अंगरक्षक उसे दिये गये थे. उसकी गवाही के आधार पर ही भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को फांसी हुई थी. बेतिया निवासी फणींद्र घोष ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ की केंद्रीय समिति का सक्रिय सदस्य था. उसके विश्वासघात से क्रांतिकारी बहुत नाराज हुए, चंद्रशेखर आजाद के निर्देश पर सर्वप्रथम भगवानदास और सदाशिवराव मलकापुरकर जैसे क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या की विफल कोशिश की थी.
1932 के उत्तरार्द्ध में हाजीपुर में पंजाब के क्रांतिकारी साथियों ने पत्र भेजा कि ‘कलंक को धोओगे या ढोओगे.’ उनका तात्पर्य फणींद्र घोष से था. राधिका जी बताती हैं कि पंजाब से उपेंद्र नामक आदमी ने पत्र भेजा था. उन दिनों योगेंद्र शुक्ल हजारीबाग जेल में बंद थे. बैकुंठ शुक्ल उनसे मिलने गये. पुलिस का यह आरोप था कि उस मुलाकात के दौरान दोनों ने फणींद्र घोष की हत्या के संबंध में बातचीत की. लेकिन इसकी कहीं पुष्टि नहीं होती.
हाजीपुर में क्रांतिकारियों की बैठक हुई. उसमें सभी तैयार थे कि यह काम हम करेंगे. अंतत: लॉटरी से नाम निकाले गये. नाम निकले बैकुंठ शुक्ल और चंद्रमा सिंह के. आरा के एकौना गांव के जमादार रामदेव सिंह के लड़के थे, चंद्रमा सिंह. उनके पिताजी पहले पुलिस विभाग में मुलाजिम थे, बाद में स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हुए, उनके पिता को आश्वस्त करते हुए बैकुंठ शुक्ल ने कहा कि ‘मेरे रहते चंद्रमा पर कोई आंच नहीं आयेगी.’
अब समस्या थी फणींद्र घोष को पहचानने की. बैकुंठ जी के एक परिचित केदारमणि शुक्ल फणींद्र को पहचानते थे. वह उनके साथ बेतिया गये. मीनाबाजर में जा कर फणींद्र घोष को पहचान लिया.5 नवंबर 1932 को बैकुंठ शुक्ल, चंद्रमा सिंह के साथ अपने एक संबंधी के यहां मुजफ्फरपुर गये. उनकी साइकिल ले कर वहां से दरभंगा गये. उनके गांव का एक छात्र गोपाल शुक्ल वहां पढ़ता था. उन्होंने गोपाल से एक साइकिल, एक टार्च और धोती ली. 9 नवंबर को दोनों बेतिया पहुंचे. शाम को इन लोगों ने मीनाबाजार में प्रवेश किया. साइकिलें गेट पर छोड़ दी. धोती भी उस पर बंधी थी, फणींद्र दुकान पर किसी साथी के साथ गपशप कर रहे थे. दोनों ने मिल कर उन पर आकस्मिक प्रहार किया. वह वहीं ढेर हो गये. पूरे बाजार में खलबली मच गयी. लेकिन ये लोग सफलतापूर्वक निकल आये, पर इनकी साइकिलें यथास्थान ही छूट गयीं.
उस साइकिल पर बंधी धोती से ही पुलिस ने इन्हें पकड़ लिया. धोती पर 644 नंबर मार्क पड़ा हुआ था. इस तरह पुलिस गोपाल नारायण शुक्ल के पास पहुंची. उन्होंने सारा किस्सा बयां कर दिया. पुरस्कार स्वरूप उन्हें दारोगा का पद भी मिला. फरारी के दिनों में बैकुंठ शुक्ल काफी दिनों तक मलखाचक में रामविनोद बाबू के यहां रहे. एक बार वह अपनी ससुराल मुहम्मदपुर गड़खा से अपनी पत्नी राधिका देवी से मिल कर लौट रहे थे. उस वक्त उनके एक अंतरंग व्यक्ति ने मुखबिरी की. पुलिस को बता दिया कि आज रात 12 बजे सोनपुर पुल से गुजरनेवाले हैं. पुलिस ने उन्हें वहां गिरफ्तार कर लिया. कड़ी पूछताछ और शारीरिक यातना के बावजूद शुक्ल जी अडिग रहे. उन्होंने चंद्रमा सिंह का नाम नहीं लिया.
इसके बाद मोतिहारी जेल में ‘बेतिया षडयंत्र’ मुकदमा चलाया गया. शुक्ल जी ने न्यायाधीश से कहा कि हमें मालूम है कि फैसला क्या होना है, इस कारण हम वकील नहीं रखेंगे, जो करना है, करिए. लेकिन बिहार के दिग्गज राजनेताओं ने पटना के तत्कालीन मशहूर वकील रासबिहारी लाल को भेजा. यह एक माह वहां रहे. अंतत: मोतिहारी में उन्हें फांसी की सजा सुना दी गयी.
राधिका जी बताती हैं कि ‘फांसी की सजा होने के बाद मैं मुजफ्फरपुर लौटी. गांधी जी और राजेंद्र बाबू ने अपना-अपना एक-एक आदमी मेरे साथ रख दिया कि मेरी मन:स्थिति ठीक नहीं है. मैं कुछ कर न बैठूं. ये लोग साये की तरह मेरे साथ लगे रहते ते. मैं मुजफ्फरपुर आ कर ठहर गयी.’
‘चूंकि मोतिहारी में उन दिनों फांसी देने का प्रबंध नहीं था. इस कारण उन्हें गया ले जाया गया. गया जाते वक्त वह मुजफ्फरपुर स्टेशन पर ट्रेन की प्रतीक्षा में ठहरे. मुझे खबर भिजवायी. मैं दातुन कर रही थी. दातुन फेंक कर मैं स्टेशन की ओर भागी. राजेंद्र बाबू का तैनात आदमी मेरे पास आया, पूछा कहां जा रही हैं आप? मैंने बताया, शुक्ल जी जा रहे हैं, स्टेशन से बुलावा आया है.’
उन दिनों बिहार में भयानक भूकंप आया था. भूकंप राहत काम के सिलसिले में गांधी जी-राजेंद्र बाबू-जवाहरलाल जी, सेठ जमुनालाल बजाज सभी मुजफ्फरपुर में थे. सभी स्टेशन गये. भीड़ हो गयी. मुझसे कोई खास बात नहीं हो सकी. रजिंदर बाबू और जवाहरलाल जी ने पूछा, ‘शुक्ल जी अब क्या करना चाहिए?’ उन्होंने जवाब दिया कि मुझे बहुत खुशी है कि मैंने अपना काम पूरा कर दिया. आप लोग अपना काम पूरा कर आइएगा. आप लोगों की पीठ पर हम एक आदमी को छोड़ कर जा रहे हैं. खैर! इनके लिए लाखों लड़के हैं, इन्हें तकलीफ नहीं होगी.
इसके बाद बैकुंठ शुक्ल से राधिका जी की अंतिम मुलाकात गया जेल में हुई. फांसी से चंद दिनों पूर्व अंतिम मुलाकात में उन्होंने कहा, ‘जाओ तुम्हारे लिए लाखों लड़के छोड़ जा रहे हैं. तुम्हें कभी तकलीफ न होगी.’ कहते हैं, फांसी के पहले उनका वजन 10 पौंड बढ़ गया था. गया में उनसे मिलने किशोरी प्रसन्न सिंह गये. वे भावुक हो उठे. सिसकने लगे, तो शुक्ल जी ने कहा कि आप क्यों विचलित हो रहे हैं. आपको खुशी होनी चाहिए कि आपका छोटा भाई आपके बताये रास्ते पर चला. अब तो वहीं जा रहा हूं, जहां सबको जाना है. किशोरी बाबू ही बैकुंठ जी को राजनीतिक बीहड़ में रास्ता दिखानेवाले थे. लेकिन इस खुदगर्ज समाज में राधिका देवी की खोज-खबर लेने के लिए लाखों क्या एकाध लड़के भी नहीं मिले.
राजेंद्र बाबू जब तक जीवित रहे, पूछताछ करते रहे. वह देवी जी को सेवाग्राम भी ले गये. वहां गांधीजी के साथ राधिका देवी महिला आश्रम में रहीं. ‘रजिंदर बाबू जब भी वहां आते, मुझे बुलाते. गांधी जी हर शुक्रवार को मीटिंग करते थे. मुझे भी समझाते थे. धैर्य बंधाते थे – ‘देखो दुनिया को बेटा मानो. वह तो (बैकुंठ शुक्ल) अपना काम पूरा कर चले गये. अब हमलोग अपना काम पूरा करके चलें.’
वर्धा की उन्हें अनेक स्मृतियां हैं- ‘वहां इंदिरा गांधी भी साथ रहती थीं. मुझे पाखाना साफ करने से परहेज था. एक बार इंदिरा गांधी ने गांधी जी से मेरी बात कह दी, इसके बाद 10-15 दिनों तक गांधी जी ने साथ रख कर पाखाना साफ कराया. फिर तो वह भाव मिट गया. गांधी जी बराबर बेटा कह कर पुकारते थे.’
‘एक बार इंदिरा गांधी वहां आयीं, तो बहुत प्रेम से मिलीं. मैं दिल्ली गयी, तो खूब आवभगत की.’ बिहार में जब तक श्री बाबू-अनुग्रह बाबू जीवित रहे, राधिका जी की खोज-खबर लेते रहे. एक बार जेपी भी आये थे. उनका मौजूदा मकान श्रीबाबू का ही बनवाया हुआ है. राधिका देवी बताती हैं कि ‘एक बार मैं पटना गयी, तो श्रीबाबू ने मुझे देखते ही अनुग्रह बाबू को तुरंत बुलाया, अनुग्रह बाबू उन्हें भैया कहते थे. अनुग्रह बाबू से श्रीबाबू कहिन, ‘ये हो! हमलोग जब न रहेंगे, तब इनका क्या होगा.’ फिर एक बस का परमिट दिलवाया. (राधिका जी के पास पूंजी नहीं थी, इस कारण उन्होंने परमिट किसी को और दे दिया). पटना से चलते वक्त बराबर श्रीबाबू-अनुग्रह बाबू 25-25 रुपये देते थे. अक्सर दोनों कहते थे, ‘कईसन बाड़ू. अफसोस मत करिह.’ (कैसी हैं आप? अफसोस कभी मत करिएगा). चंद्रमा सिंह भी जब तक जीवित रहे, शुक्ल जी के ऋण को नहीं भुलाया. वह बराबर आकर पूछताछ करते रहे. पटना के कंकड़बाग में जब चंद्रमा सिंह ने अपना छोटा घर बनाया, तो उन्होंने तब तक गृहप्रवेश नहीं किया, जब तक शुक्ल जी का फोटो नहीं मिला. वह फोटो घर में पहले ले जाया गया, फिर घर भोज हुआ.’
बिहार में जातिवाद का उत्स तलाशनेवालों के लिए शायद उपरोक्त घटनाएं अप्रीतकर लगे. लेकिन हकीकत यह है कि बिहार का मौजूदा घृणित जातिवाद 1967 के बाद की उपज है. ‘वीर अर्जुन’ के संपादक चमनलाल आजाद बराबर इस गांव में आते थे. योगेंद्र शुक्ल के यहां जाते थे. लेकिन बिहार के स्वनामधन्य राजनेताओं ने कभी राधिका जी की सुध नहीं ली. बहुतों को तो अब उनका नाम भी नहीं मालूम होगा.
एक बार राधिका देवी किसी काम के सिलसिले में मुख्यमंत्री से मिलने पटना गयीं. उन दिनों डॉ जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री थे, बाहर आ कर जनता-जनार्दन से वह एक साथ मिलते थे. उस भीड़ में उन्हें भी खड़ा कर दिया. ‘डॉ मिश्र बाहर आये, हाथ से कागज लिया. अलग रखवा दिया. लेकिन काम नहीं हुआ.’ इसके बाद से देवी जी किसी मुख्यमंत्री से मिलने पटना नहीं जातीं.
युवा कांग्रेस के अमलेंदु सत्यवर्ती का यह कहना बिल्कुल सही है कि आज की पीढ़ी के कितने लोगों को शुक्ल जी या देवी जी के बलिदान का इतिहास मालूम है. इस पीढ़ी को इन लोगों के बारे में बताया नहीं गया, इस कारण ही नयी पीढ़ी आदर्शहीनता के इस दौर से गुजर रही है. हिंसा और भ्रष्टाचार में डूबी है, लेकिन इसके लिए दोषी यह पीढ़ी नहीं है.
सच भी है. इस संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं, बिहार के मुख्यमंत्री की पत्नी श्रीमती किशोरी सिन्हा. इस क्षेत्र से पिछले 30-35 वर्षों से केंद्रीय मंत्री ललितेश्वर प्रसाद शाही भी राजनीति करते रहे हैं. इन दोनों सत्ता केंद्रों के आलोक में प्रशासन या सत्ता में मदांध लोगों की निगाहें राधिका देवी तक न पहुंचे, तो कोई अचरज नहीं, पर जो मुल्क खुद अपनी जड़ें काट लेने पर उतारू हो जाये, वह कृत्रिम ऑक्सीजन के सहारे नहीं चल सकता.
सर्वस्व लूटा कर आज राधिका देवी अपने एक नौजवान संबंधी सुरेंद्रनाथ शुक्ल को नौकरी दिलाने के लिए दर-दर भटक रही हैं, जो बेरोजगार हो कर भी इस उम्र में उनका एकमात्र सहारा है. एक स्थानीय स्कूल में चपरासी पद पर उसे भरती कराने गयीं, तो 5000 रुपये घूस की मांग हुई. कलक्टर से कहा, तो उन्होंने फरमाया कि इनकी उम्र अधिक हो गयी है. स्वतंत्रता संग्राम के प्रतिदान में दिल्ली के एक भव्य समारोह में केंद्र सरकार द्वारा प्रदत्त विशिष्ट ताम्रपत्र के सहारे भला उनका जीवन कब तक गुजरेगा?