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18 वर्षों बाद फिर फ्रैंकफर्ट में!

– हरिवंश – नये अनुभव, नयी राह और पहले-पहल की स्मृति की प्रतीक्षा रहती है, इनसान के मन को. बार-बार उसी राह गुजरना, अभ्यस्त होना है. अनुभव समृद्ध होना है, पर पहला अनुभव, पहली स्मृति, पुरानी यादें, हर बार लौटती हैं, अनुभव संपदा के संदर्भ में नये अर्थ, नयी व्याख्या के साथ. प्रधानमंत्री का विशेष […]

– हरिवंश –
नये अनुभव, नयी राह और पहले-पहल की स्मृति की प्रतीक्षा रहती है, इनसान के मन को. बार-बार उसी राह गुजरना, अभ्यस्त होना है. अनुभव समृद्ध होना है, पर पहला अनुभव, पहली स्मृति, पुरानी यादें, हर बार लौटती हैं, अनुभव संपदा के संदर्भ में नये अर्थ, नयी व्याख्या के साथ.
प्रधानमंत्री का विशेष विमान ‘आगरा’ 16 जून 2012 की दोपहर निश्चित समय से उड़ता है. मैक्सिको-ब्राजील के लिए. जर्मनी के फ्रैंकफर्ट के रास्ते. लौटान में दक्षिण अफ्रीका होते हुए आना है. कई महादेश (कांटिनेंट), देश होते हुए, लौटना है.
विमान जैसे-जैसे ऊपर पहुंचता है, राहत मिलती है. आसमान में अद्भुत गहरा नीलापन है. ऊपर से नीचे देखता हूं, शायद अफगानिस्तान की घाटियों के ऊपर से हम गुजर रहे हैं. भारत के अंदर-बाहर आने-जाने का इतिहास में यह मशहूर रास्ता रहा है.
यह कहना शायद गलत ना हो कि भारत का इतिहास भी इस रास्ते चला है. पहले पैदल, अब युग-तकनीक बदल जाने पर हवा से, इसी रास्ते आना-जाना है. नीचे दर्रे-घाटियां हैं, ऊपर से बंजर, अनुपजाऊ, पेड़-वनस्पति विहीन मटमैले रेगिस्तान की झलक है.
नक्शा देखता हूं. दिल्ली से पंजाब होते. पाकिस्तान के फैसलाबाद, अफगानिस्तान के काबुल के नीचे-नीचे होकर फ्रैंकफर्ट. इतिहास के कितने मशहूर नाम नक्शे में दिखाई देते हैं. हेरात, कंधार, अंकारा वगैरह. 1994 से विदेश जाना होता रहा है. यूरोप, रूस, पाकिस्तान और अमेरिका के लिए यही मुख्य राह है.
अधिसंख्य विदेश यात्राएं देर रात में ही शुरू होती हैं. इसलिए दिन में इस ऐतिहासिक धरती या भारत के इतिहास के मशहूर प्रवेश मार्ग को देखने का कम मौका मिला है. पर वीवीआइपी उड़ान दिन में ही शिड्‌यूल रहती है. इस तरह की यात्रा के अवसर में दिन में बार-बार पाकिस्तान, अफगानिस्तान की धरती देखने की इच्छा रहती है.
याद आता है, पहली बार 24.09.94 को देर रात दिल्ली से उड़ा. फ्रैंकफर्ट के रास्ते अमेरिका जाने के लिए पहली विदेश यात्रा. दुनिया देखने की ललक थी. फ्रैंकफर्ट पहुंच कर कुछेक घंटे एयरपोर्ट पर रहा. भव्य, आधुनिक, विशाल एयरपोर्ट. पहला विदेशी हवाई अड्डा देखा था. फिर एक रपट भी लिखी ‘फ्रैंकफर्ट से एक साथ कई विमान उड़ान भरते हैं.’ डेल्टा एयरलाइंस (अमेरिकी) से. यह पहली विदेश यात्रा थी.
फ्रैंकफर्ट से दिल्ली की दूरी 3723 मील (लगभग साढ़े पांच हजार किमी) है. इस यात्रा (1994) अनुभव के कुछ अंश याद आते हैं. उस दिन फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर पहुंच कर लिखा था ‘इयरफोन से स्पष्ट आवाज है विमान परिचारिका की. विमान (डेल्टा एयरलाइंस) पाकिस्तान के सिंध इलाके से गुजरेगा. देर तक नींद नहीं आती. जो अपना मुल्क था, वतन था, जिसमें आज भी अपने लोग हैं, जिनकी पीड़ा, जिनका दुख-दर्द अपना लगता है. आज वे कितनी दूर हो गये हैं.
दोनों (भारत-पाक) के शासकों के सौजन्य से. इच्छा होती है कि इस देश की धरती को नजदीक से देखता. अंधेरे में 8000-9000 फीट नीचे देखने की ललक है. पर एक शून्य डरावने अंधेरे के सिवा और क्या है? अचानक विमान परिचारिका आकर कहती है, रात का समय है, खिड़की बंद कर लें, रोशनी बाहर दिखाई न दे, आसमान में भी भय है.’
18 वर्षों पहले, इस रूट से पहली यात्रा का यह अनुभव अंश है. आज इसी राह दिन में गुजरते हुए, खिड़की से बार-बार नीचे देखता हूं, हालात कहां और कितने बदले?
तब फ्रैंकफर्ट देख कर बहुत चमत्कृत था. स्तब्ध जैसा, यह जानकर कि मनुष्य में कितनी सृजन क्षमता है? उस पहली यात्रा (1994) में लगभग पांच घंटे हम फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर रहे. वाशिंगटन उड़ान की प्रतीक्षा में. तब एयरपोर्ट घूम कर लिखा था.
‘फ्रैंकफर्ट विशाल हवाई अड्डा है. खूबसूरत, साफ-सुथरा. बंबई-दिल्ली एयरपोर्ट इसके आगे गांव लगते हैं. हवाई अड्डे के ऊपर आसपास घने जंगल दिखते हैं. जर्मनी में काफी जंगल हैं. ग्रीन पार्टी का अंदोलन रंग ला रहा है. दूसरी ओर भारत के आबाद जंगल उजड़ रहे हैं. फ्रैंकफर्ट हवाई अड्डे पर विमानों की भरमार है, तो हवाई अड्डे के अंदर, सुंदर दुकानों की. भारी तादाद में यात्री हैं. भारतीय, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी भी अच्छी संख्या में हैं.
दुनिया में प्रतिभा, क्षमता और काम में इस उपमहाद्वीप के लोग कहीं भी चमक सकते हैं. पर अपने मुल्क में असहाय हैं. किसी भी काम को सुंदर और प्रेरक तरीके से करना एक कला है. यह कला हमें सीखनी पड़ेगी.’
आज 18 वर्षों बाद उसी एयरपोर्ट पर उतरना होता है. वीवीआइपी जहाज-उड़ान है, इसलिए विशेष व्यवस्था है. एयरपोर्ट के अंदर जाना नहीं होता, विशेष व्यवस्था के तहत बाहर-बाहर ही होटल जाना होता है.
पर उतरते ही लगता है, दुनिया के व्यस्ततम हवाई अड्डों में से एक. विमान उड़ने-उतरने की कई पट्टियां (रन-वे) हैं. एक साथ कई विमान उतरते हैं. एक पट्टी पर एक उतरता है. एक उतरने के क्रम में ऊपर है. उसी राह सुदूर तीसरे की झलक है, उतरने के क्रम में. इसी तरह उड़ान का क्रम है. पल-पल उतरना-उड़ना, कितनी चौकस प्रबंध व्यवस्था है. पर पर्यावरण में ताजगी है.
लगता है हम जंगल के बीच उतर आये हैं. एयरपोर्ट के पास ही हिल्टन-फ्रैंकफर्ट होटल जाना होता है. दिन के चार बजे (लोकल टाइम) के आसपास का समय है. भारत में रात के आठ बजे होंगे. देश की याद आती है, तो बरसों पहले ब्रिटेन के अल्बर्ट हॉल में जगजीत सिंह की सुनी पंक्ति भी याद आती है, हम तो हैं परदेस में, देश में निकला होगा चांद. औपचारिकताएं और कामकाज के बाद एक घंटे शहर देखने का प्रस्ताव है.
बेतरह थकान है. पर शहर देखने की इच्छा है. यह यूरोप का फाइनेंशियल कैपिटल या हब (वित्तीय राजधानी) माना जाता है. 40 भारतीय कंपनियां यहां हैं. जर्मन गाइड बताता है, इंफोसिस, टीसीएस भी हैं. दो भारतीय बैंकों (स्टेट बैंक, आइसीआइसीआइ) को संकेत कर जर्मन गाइड दिखाता है. पूरी दुनिया के कई बड़े बैंकों के कार्यालय यहां हैं. जर्मन इंजीनियरिंग का इतिहास में सिक्का रहा है. बहुमंजिली सुंदर और भव्य इमारतें हैं. आकर्षक आर्किटेक्चर.
जर्मनी के बड़े शहरों में से एक. दूसरे विश्व-युद्ध में ध्वस्त हो गया था पर पुन: उठ खड़ा हुआ. यहां मैक्सम्यूलर भवन भी है. मशहूर जर्मन कवि गेटे की यह धरती है. पूरे वायुमंडल में ताजगी है. कार्बन उत्सर्जन या प्रदूषण की आहट नहीं. दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार मेला (ट्रेड फेयर) यहां लगता है. 470 हजार वर्ग मीटर में 11 बड़े हॉल हैं. ऑटो एग्जिबिशन (मोटर-कार प्रदर्शनी) भी. सबसे बड़ा स्टॉक एक्सचेंज भी यहीं है. विश्व मशहूर मुख्य पुस्तक मेला यहां लगता है. इतनी व्यस्तता, भाग-दौड़, पर अद्भुत शांति है.
व्यवस्था (सिस्टम) का राज है. कानून का प्रताप है. सार्वजनिक जीवन में एक अनुशासन है. सड़कों पर सफाई है. गाड़ियों की लंबी कतारें हैं. पर ट्रैफिक में भी अनुशासन. एक हॉर्न की आवाज नहीं. दुनिया के 70 देशों के कांसुलेट कार्यालय हैं. चीन का कांसुलेट बड़ा और भव्य है.
दुनिया की उभरती महाशक्ति के प्रतीक जैसा. 1848 में जर्मनी की पहली निर्वाचित लोकतांत्रिक संसद इसी शहर में बैठी थी. 606 वर्ष पुराना टाउनहॉल है. सबसे पुराना चर्च है. पुरानी चीजों, हेरिटेज स्मारकों को संजो कर रखा है. पुराने और अधुनातन भवन-आर्किटेर साथ-साथ. 5227 किमी लंबी राइन नदी के किनारे बसे इस शहर में हम भटकते हैं. भारतीय समय के अनुसार देर रात (एक बजे) तक, पर यहां रात के दस बजनेवाले हैं.
फ्रैंकफर्ट की सड़क पर पैदल चलते हुए मौसम की पहली बरसात में हम भींगते हैं. फुहार है. यहां बरसात भी है, हरे-भरे पेड़ भी. जंगलनुमा पर्यावरण में ताजगी भी. हरियाली और बड़े पार्क भी.
मन में बार-बार सवाल उठता है, हम ऐसे क्यों हैं? हम अपना परिवेश-देश -समाज-व्यवस्था-माहौल, सुंदर क्यों नहीं बना पाते? कहां कमी है? हमारे कर्म में, पौरुष में, संकल्प में, सृजन में या पुरुषार्थ में? याद आती है, सरदार पटेल की कही बात, आजादी के ठीक बाद की.
सरदार ने हर बात में क्रांतिकारी तेवर, बागी एप्रोच और बुनियादी सवाल उठानेवाले समाजवादियों को प्रस्ताव दिया, देश के किसी एक राज्य का दारोमदार-भार ले लें, उसे आदर्श राज्य बना कर अपनी सृजन क्षमता प्रमाणित कर दें. अपना हुनर, काबिलियत और क्षमता भी. व्यावहारिक धरातल पर यह काम संभालने को कोई तैयार नहीं हुआ? जर्मनी दूसरे विश्वयुद्ध में तबाह हो गया था.
जापान भी. सिंगापुर कछार था. दियारा जैसा. मछुआरों का गांव. खुद चीन 30 वर्षों पहले कैसा था? पर इन देशों ने अपनी तकदीर संभाली और अपने कर्म-पौरुष से इतिहास से इतिहास बना दिया. बदल दिया. दक्षिण कोरिया देखा. तब भी ऐसा ही सवाल उठा था.
झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश या देश में पाता हूं, एक संस्था विश्वविद्यालय हो या कॉलेज, ठीक से चला नहीं पाते. न श्रेष्ठ बना पाते हैं, न आदर्श. बात करें, तो अपनी कमी, काम-चोरी कोई मानने को तैयार नहीं. सभी दोष दूसरों का. दूसरों की शिकायत या पर निंदा से हम बेजोड़ हैं. कोई अच्छा काम न होने देना, न करने देना, हमारी रगों में है. नकारात्मक मिजाज हमें बचपन से मिलता है, विरासत में.
राजनीति से लेकर समाज, शिक्षा, किसी भी क्षेत्र में देख लीजिए. न हम टीम बना सकते हैं, न टीम में एकजुट काम कर सकते हैं.
बड़े-बड़े मॉल में आप अपना बैग-सामान लेकर जायें, कोई रखने को नहीं कहता. एयरपोर्ट से लेकर सार्वजनिक स्थलों पर सुरक्षा का आतंक नहीं, पर व्यवस्था का प्रताप है. टेक्‍नालॉजी से निगरानी होगी, पर लोगों को भरोसा है कि गलत करनेवाला बच नहीं सकता. यह राज्य या सरकार या व्यवस्था का प्रताप या इकबाल है. समाज में लोग एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं.
एक दूसरे की ईमानदारी की कद्र भी. कहीं-कहीं चौराहों पर भीड़ है, पर शोर नहीं. जोर-जोर से बात या शोर नहीं. कहीं-कहीं युवा-युवती चिपके खड़े हैं, कोई गौर भी नहीं करता. भीड़ है, पर भीड़ के चेहरे पर सुकून है, तृप्ति है. अभाव-तंगी का फ्रस्टेशन नहीं. अघाये होने का बोध. पश्चिम के समाज-परिवार और रिश्तों में बिखराव है. असहज स्थिति. उसकी झलक मिलती है.
यूरोप अमेरिका में आमतौर से देर-सवेर घूमने में उज्र नहीं. कुछ इलाकों को छोड़ कर. पर लैटिन अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका और एशिया के देशों में किस शहर में कब-कहां जायें, यह यात्रियों के लिए निर्देश होता है. हमें रियो जाना है.
वहां अकेले न घूमने, मुद्रा साथ न ले जाने, वगैरह की हिदायतें हैं. क्या अभावग्रस्त और पिछड़े देशों में ही यह मानस रहा है?
क्या इस भारतीय या नकारात्मक ऊर्जा को बदलने के लिए कहीं कोई ईमानदार कोशिश है? यह सवाल उठते ही पूर्व राष्ट्रपति कलाम याद आते हैं. डेढ़ हजार वर्षों से गुलाम रहे देश के हीन और नकारात्मक मानस को, सिर्फ एक इनसान निजी संकल्प के तहत सकारात्मक बनाने के अभियान में आज लगा है.
छात्रों में, किसानों में, वैज्ञानिकों में, युवाओं में, विश्वविद्यालयों में, यानी हर फोरम पर स्वविकास से लेकर देश विकास के लिए एक ठोस रोडमैप के साथ. भारत का भविष्य गढ़ने का यही एकमात्र रास्ता है. समाज का मानस बदले, तो भारतीय नियति बदले.
दिनांक 19.06.2012

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