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पति-पत्नी के रिश्ते में शक की न हो कोई जगह…नहीं तो

महिलाएं बर्दाश्त करती हैं, मगर उसकी भी एक हद होती है. पत्नी अपने पति की हजार गलतियां माफ कर देती है, मगर पति, पत्नी की एक भी गलती माफ नहीं कर पाता. उसका किसी के साथ बात करना, हंसना उसे हजम नहीं होता. क्या बात करना और हंसने का मतलब किसी के साथ अफेयर ही […]

महिलाएं बर्दाश्त करती हैं, मगर उसकी भी एक हद होती है. पत्नी अपने पति की हजार गलतियां माफ कर देती है,
मगर पति, पत्नी की एक भी गलती माफ नहीं कर पाता. उसका किसी के साथ बात करना, हंसना उसे हजम नहीं होता. क्या बात करना और हंसने का मतलब किसी के साथ अफेयर ही होता है? फिर तो आप खुद को देखिए, आपके जीवन में तो अफेयर्स की झड़ियां लगी होंगी. खुद को भी तो जरा अंदर तक झांकिए.
किसी भी रिश्ते में अगर विश्वास की नींव मजबूत है, तो रिश्तों को कोई हिला भी नहीं सकेगा. स्वयं आप भी नहीं. हमें कोई निर्णय जल्दबाजी में नहीं लेना चाहिए, चाहे छोटा हो या बड़ा. कम-से-कम उसे एक बार अपनी सोच के फिल्टर से जरूर गुजारें. खास कर जब वह आपसी रिश्ते को लेकर सवाल खड़े कर रहा हो. छोटो-मोटे निर्णय जो हमारे जीवन पर प्रभाव नहीं डालते, उनको तो आप अफोर्ड कर लेंगे, लेकिन जो निर्णय आपके जीवन को प्रभावित करें, वहां आपको एक बार नहीं, कई बार सोचना चाहिए.
पुरुष वर्ग महिला सहकर्मियों से खुलकर हंसी-मजाक करता है, फ्लर्ट भी करता है, मगर उनकी पत्नियां किसी सहकर्मी से हंसकर क्या बात कर लेती हैं कि घर में कलह हो जाती है. ये भेदभाव क्यों ? आप अपनी महिला मित्र को घर ड्रॉप कर सकते हैं, वहीं आपकी पत्नी को कोई ड्रॉप करता है, तो आपकी त्यौरी चढ़ जाती है. इसका मतलब तो महिलाओं को लेकर आपके अंदर गलत भावनाएं हैं, पाप हैं, जो आप समझ रहे हैं कि सभी पुरुषों में वही गलत भावनाएं होंगी.
अगर आपकी महिला मित्र आपसे कहती है कि उसके पति को पसंद नहीं कि वह किसी और के साथ आये-जाये, तो आप कहते हैं कि आपके पति बहुत शक्की हैं, उन्हें समझाइए जबकि आप अपनी पत्नी को समझने का प्रयास ही नहीं करते- ऐसा क्यों? जबकि रिश्ते निभाने में अमूमन महिलाएं ज्यादा सजग-सतर्क रहती हैं. वे कुछ भी क्यों न करें, लेकिन अपने बच्चों और पति के लिए सब छोड़ देती हैं. महिलाएं बर्दाश्त करती हैं, मगर उसकी भी एक हद होती है. पत्थर पर भी निरंतर पानी पड़ता रहे, तो भी घिसने लगता है.
जब पत्नी मजबूर होकर कोई कठिन निर्णय लेती है तब पति को क्यों परेशानी होती है? पत्नी अपने पति की हजार गलतियां माफ कर देती है मगर पति, पत्नी की एक भी गलती माफ नहीं कर पाता. उसका किसी के साथ बात करना, हंसना उसे हजम नहीं होता. क्या बात करना और हंसने का मतलब किसी के साथ अफेयर ही होता है? फिर तो आप खुद को देखिए, आपके जीवन में तो अफेयर्स की झड़ियां लगी होंगी. खुद को भी तो जरा अंदर तक झांकिए.
हर मजहब में पति-पत्नी वह रिश्ता है, जिसे उनका समाज स्वीकृति देता है- अपना खुद का परिवार, बागीचा बनाने, खिलाने का. बिना विवाह आज भी लड़के-लड़कियों के रिश्ते सांसे नहीं ले सकते. यकीन करना सीखिए.
अपनी पत्नी को खुलकर सांसें लेने दीजिए. कहीं आपके साथ भी वैसा न हो, जैसा उस युवक के साथ हुआ! तमाम झगड़ों के बावजूद तबियत खराब होने पर पत्नी ने ही देखभाल की, उसे संभाला और ठीक होने के बाद वह फिर पत्नी को मारने लगा. वह कब तक सहती? उसकी पत्नी अब भी मायके में है. लड़का डिप्रेशन में है. उसे खुद लगता है कि कहीं डिप्रेशन में वह कोई गलत कदम न उठा ले. मगर जब खेत ही चिड़िया चुग गयी, तो पछताने से क्या होगा?
हां, पहले देखभाल की होती, तो खेत बच सकते थे. अगर आपके विश्वास की डोर मजबूत है, तो कोई गलत रास्ते पर भी होगा तो वह आपके विश्वास की खातिर राह छोड़ देगा. मगर अभिमान में, शक में अपनी बात को सही मानकर जाले बुनना, धूल उड़ाकर शक की इमारत बनाते जाना संबंधों में दूरी बढ़ाते हैं. उस समय हमें जाले साफ करने चाहिए, रास्तों पर पानी डालकर उड़ती धूल को बैठाना चाहिये न कि सब तरफ से पंखे चला देने चाहिए!
हमेशा हम ही सही नहीं होते. हमारी सोच, हमारा ही मूल्यांकन सही नहीं होता. कमरे में जिस तरफ आप बैठे हैं, वहां से चीजों को देखिए, फिर अपना स्थान बदलिए. वहां से दोबारा देखिए, दृश्य बदल जायेगा. चीजें वहीं,उसी जगह होंगी, लेकिन एंगल बदलने से ही रूप बदल जायेगा. इसमें चीजों को दोष नहीं, बल्कि हमारे दो तरफ से देखने का नतीजा है.
शक केवल पुरुष ही नहीं, महिलाएं भी करती हैं. कई बार हम खुद शक के झूले में झूल रहे होते हैं और फिर हर बढ़ती पींग में शक का स्तर बढ़ता जाता है. उस समय हम झूले की गति नहीं रोकते, उरतने का प्रयास नहीं करते बल्कि गुस्से में और पींगे भरते हैं, चाहे झूला उलट जाये और हम चोटिल हो जायें.
शक के कीचड़ में सना मन यह नहीं देखता कि कमल भी वहीं खिला है, मगर कमल की जगह मन का सारा ध्यान केवल और केवल कीचड़ में ही धंसा रहता है. जब हम क्रोध में वह फूल तोड़ देते हैं तब समझ आता है कि फूल तो निर्दोष है, पवित्र है, पूजा में चढ़ने के योग्य है. वह फूल वहीं लगा होता तो वह यूं ही अपने अंत तक खिलखिला रहा होता, मगर हमने शक के कारण उसे उखाड़ फेंका और जो एक बार उखड़ जाता है, वह दोबारा नहीं खिलता.
वैसे भी अगर फूलों पर पतझड़ आ जाये, तो उनका मुरझाना निश्चित है फिर आप लाख बहारें लेकर आएं, वे फूल नहीं खिलेंगे. इसी तरह रिश्ते भी हैं. जरूरत है तो उन्हें बचाने के लिए हर संभव प्रयास करने की, न कि अहं और शक में अलगाव की दीवार उठाने की. जब ऐसी स्थिति आये, तो प्रयास करें रिश्तों को सहेजने का. ऐसा न हो आपके निर्णय बीच का पुल ढहा दें और फिर जीवन भर पुल बनाते-बनाते दम तोड़ दें. मैं फिर यही दोहराऊंगी कि तोड़ना, ढहाना, बिखेरना, खत्म करना आसान है, मगर बनाना, फिर से शुरुआत करना बहुत मुश्किल.
शक वह कीड़ा है जो एक बार दिमाग में घुस गया तो बड़ी मुश्किल से निकलेगा. वह दिमाग में रेंग-रेंगकर आपके पूरे सिस्टम को अपनी गिरफ्त में लेगा. यह ऐसा वायरस है, जो अंतत: आपके सोचने-समझने की शक्ति चट कर जायेगा.
क्रमश:

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