प्रीति सिंह परिहार
बीते कल में जिनकी कामयाबी के चर्चे थे, पर आज कभी-कभार ही उनकी बात कहीं होती है. सांवले चेहरे और सामान्य से नैन-नक्श वाली एक लड़की अनु अग्रवाल. एक विख्यात फिल्मकार ने उसके लिए फिल्म ‘आशिकी’ लिखी. फिल्मकार ने इसमें काम करने का प्रस्ताव उसके सामने रखा और कहा कि उसकी हां के बिना ये फिल्म साकार नहीं हो सकती. हाल ही में अनु अपनी आत्मकथा ‘अनयूजवल: मेमोइर ऑफ ए गर्ल हू केम बैक फ्रॉम डेड’ को लेकर सुर्खियों में बनी हुई थी. इस फिल्म में उन्होंने अपनी जिदंगी से जुड़ी कई पहलुओं का उजागर किया. जानें उनके बारे में कुछ दिलचस्प बातें.
फिल्म ‘आशिकी’ का हर गीत चाहे वो ‘मैं दुनिया भुला दूंगा तेरी चाहत में हो’ या ‘धीरे धीरे से मेरी जिंदगी में आना’ उसकी आशिकी में ही लिखे गये. इस पहली ही फिल्म ने उसे स्टारडम का ताज पहना दिया. दर्शकों ने ‘आशिकी’ से इतनी गहरी ‘आशिकी’ की कि उसकी थाह आज भी कई दिलों में टटोली जा सकती है. इसके गाने और अदाकारा दोनों खूब सफल हुए. सफलता की देहरी को छू कर इस अदाकारा का अभिनय सफर आगे बढ़ा है. लेकिन इसमें न पहलेवाली बात रही, न किसी को उससे पहले की तरह ‘आशिकी’ हुई. कुछ फिल्में और फिल्मी दुनिया के गिनती के साल उसके साथ जुड़े, पर इस तरह नहीं की आगे तक हमसफर रह सकें.
अचानक कहीं से एक हादसा आया और मौत को सामने ला खड़ा किया. लेकिन उनकी किस्मत की डायरी में जिंदगी ने मौत को बैरंग लौटा दिया. अरसे बाद इस हादसे से उबर कर वह लौटी, तो कुछ और ही हो कर. गालिब के लफ्जों में कहें तो ‘रंज से खूगर हुआ इंसा तो मिट जाता है रंज, मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गयीं.’ गालिब का ये शेर जो कुछ कहता है, उसकी जिंदगी में साफ दिखता है. ये जिंदगी है अनु अग्रवाल की.
वही अनु जिनसे तकीरीबन दो दशक पहले हम मिले थे वाया महेश भट्ट फिल्म ‘आशिकी’ में. अनु अभिनीत ‘आशिकी’ के गानों की लोकप्रियता के चर्चे आज दो दशक बाद भी हैं. इन गानों के साथ राहुल रॉय और अनु अग्रवाल की तसवीर भी जब तब टेलीविजन के सामने से गुजर जाती है. राहुल ‘बिग बॉस’ जैसे कार्यक्रम में आये और फिल्मों में नहीं, फिल्मी पाटिर्यों में नजर आते रहते हैं, लेकिन अनु नहीं दिखती थीं कहीं. आज कहां थी अनु अग्रवाल? ये सवाल कइयों के जेहन में उठता होगा उन्हें अरसे से परदे पर न देख कर.
हाल ही में अनु सबके सामने आयीं अपनी जिंदगी को शब्दों में ढाल कर. अनु अब सिनेमा से दूर एक आम मगर खुशनुमा जिंदगी बिता रही हैं. खुशनुमा इस मायने में कि ये जिंदगी मौत से जूझकर हासिल हुई है. वह मुंबई में हैं. अकेली हैं. योगा सिखाती हैं और खुद के सवालों के जवाब तलाशते हुए एक किताब लिख रही थीं, जो अब पूरी हो चुकी है. परदे से उनकी विरक्ती की वहज उसकी चकाचौंध के पीछे का स्याह अंधेरा है और मीडिया से दूरी का कारण उसमें बेबुनियाद गढ़ी जाने वाली खबरें.
11 जनवरी 1969 को दिल्ली में जन्मी अनु अग्रवाल ने मॉडलिंग से कॅरियर शुरू किया.1990 में महेश भट्ट ने अपनी संगीतमय फिल्म ‘आशिकी’ में पहला ब्रेक दिया. महज 21 साल की उम्र में अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाली अनु अपने बहेतरीन अभिनय और मासूम चेहरे के बूते दर्शकों की पसंदीदा अदाकाराओं में शुमार हो गयीं. लेकिन उनका स्टारडम का ग्राफ आगे मिली फिल्मों में बढ़ने की बजाय घटता गया.
उन्हें मिली ‘गजब तमाशा’, ‘खलनायिका’ ,‘किंग अंकल’, ‘बीपीएल ओए’, ‘कन्यादान’ और ‘रिटर्न टू ज्वेल थीफ’ फिल्में कब परदे पर आयीं और कब चली गयीं, पता ही नहीं चला. हिंदी फिल्मों की असफलता के बीच उन्होंने एक तमिल फिल्म ‘थिरुदा-थिरुदा’ में काम किया. एक लघु फिल्म भी उनके कॅरियर में जुड़ी, जिसने उन्हें चर्चा के केंद्र में भी ला खड़ा किया था. यह लघु फिल्म थी मणिकौल निर्देशित ‘द क्लाऊड डोर’ यानी ‘बादल द्वार’. 1996 के बाद अनु किसी और फिल्म में नहीं दिखार्इं दीं.
कुछ दिन एम टीवी वीजे भी रहीं. 1997 में वे योगा की ओर मुखातिब हो गयीं. यहीं से गुमानमी की ओर भी मुड़ गयीं. 1999 में एक सड़क दुघटर्ना ने उनके जीवन का रुख ही मोड़ दिया. इस हादसे ने न सिर्फ उनकी याददाश्त को प्रभावित किया. उन्हें चलने फिरने में अक्षम कर दिया. 29 दिन के कोमा के बाद वह होश में आई, तो खुद को ही नहीं अपनी भाषा भी भूल चुकी थीं. शरीर का निचला हिस्सा पैरलाइज्ड था. लंबे उपचार और प्रबल जीजिविषा के चलते वह इससे उबरने में कामयाब हो सकीं.
दोबारा अंग्रेजी और फिर हिंदी सीखी. योगा की शिक्षिका के तौर पर काम शुरू किया. एक स्टार की चकाचौंध भरी दिखावे की जिंदगी से दूर एक आम इंसान की तरह छोटे छोटे सुखों और शांति से भरे जीवन को उन्होंने मुश्किल से हासिल किया है. अब इसमें किसी का दखल नहीं चाहतीं, न ही कोई पुराना जिक्र ही उन्हें अब जरूरी लगता है.