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जमशेदपुर से रीमा डे की रिपोर्ट: बेकरारी से बेखुदी तक ले जाती है कव्वाली

आज में नये तरह का संगीत बनता है. ऐसा संगीत जो कंप्यूटर से पैदा होता है. एक ऐसा संगीत जिसमें गाने वाले की आवाज कम सुनाई देती है और इलेक्ट्रॉनिक साज ज्यादा सुनाई देते हैं. एक ऐसा संगीत जो धड़कता है बड़े बड़े ड्रम्स के सहारे लेकिन तमाम इक्विपमेंट को इस्तेमाल करने वाला ये संगीत […]

आज में नये तरह का संगीत बनता है. ऐसा संगीत जो कंप्यूटर से पैदा होता है. एक ऐसा संगीत जिसमें गाने वाले की आवाज कम सुनाई देती है और इलेक्ट्रॉनिक साज ज्यादा सुनाई देते हैं. एक ऐसा संगीत जो धड़कता है बड़े बड़े ड्रम्स के सहारे लेकिन तमाम इक्विपमेंट को इस्तेमाल करने वाला ये संगीत पल भर के लिए थम जाता है जब कोई भी कव्वाल अपनी बुलंद आवाज में एक तान छेड़ दे. कव्वाल गाए तो समा बंध जाए, गुजरते हुए मुसाफिर रूक जाएं, हवा के परिंदे अपनी परवाज रोक दें.

आम तौर पर कव्वाली गायकी बलपूर्वक और जोश से भरी हुई होती है. इसकी वजह है कव्वाली की तासीर. जो किसी इंसान को बेकरारी से बेखुदी तक ले जाती है. जिसमें हिंदुस्तान की मिट्टी की खुशबु है. जो सुनने वालों के दिल-ओ-दिमाग के साथ-साथ रूह में बस जाती है. इतिहास बताता है कि सूफी संत जब भारत आए तो अपने पसंद का तराना भी साथ लेकर आए थे. हजरत अमीर खुसरो ने जिस संगीत की परंपरा को शुरू किया वो सूफीयत के सहारे आज भी जिंदा है. जिसे हम कव्वाली के तौर पर जानते हैं. अपने झारखंड के जमशेदपुर में भी कई ऐसे कव्वाल हैं जिन्होंने गायिकी की दुनिया में खूब शोहरत हासिल की. इनकी नजर से कव्वाली के आज की हालात को समझने की कोशिश है रीमा डे की यह रिपोर्ट.

जिन्हें फनकारी नहीं पता वे भी कव्वाल बने बैठे हैं
मंजूर आलम साबरी

विरासत में मिला संगीत जीवन का अहम हिस्सा बन गया. यह कहना है कि मंजूर आलम साबरी का. उनके पिता मुहम्मद आलम साबरी भी जाने-माने कव्वाल थे. मानगो के रहने वाले मंजूर आलम बताते हैं कि पहले उनका परिवार यूपी में रहता था, फिर दादाजी मेरे पिताजी को लेकर बंगाल आ गये. वहीं से सूफीयाना अंदाज में कव्वाली का सिलसिला शुरू हुआ. पिता के जाने के बाद मैं उनकी परछाई बन इस क्षेत्र में आया और हमेशा ही उनके अंदाज में गाने की कोशिश की. मैट्रिक तक की पढ़ाई करने के बाद आगे पढ़ने का अवसर नहीं मिला, क्योंकि उन दिनों कई जगहों से कार्यक्रम करने का आमंत्रण आता था. वर्ष 2012 में समंदर के निकट एलबम निकला. इसी साल नूर बरसे झमाझम, दया न होती अगर जो तेरी जैसे एलबम में कुल 12 गाने थे. जो सूफी कव्वाली में गाये है. मंजूर ने बताया कि उन्हें देश के हर कोने में जाने का मौका मिला और यही देखा कि कव्वाली हर किसी को पसंद है, बशर्ते कव्वाली को उसके सही अंदाज में ही पेश किया जाये. जो आज नहीं हो रहा है. ख्वाजा गरीब नवाज के दरबार में कव्वाली आज भी जिंदा है. लेकिन अन्य जगहों पर देखें तो जो फनकार नहीं है वे भी कव्वाल बने बैठे है. ऐसे में हम जैसों के लिए कठिनाई तो है लेकिन कोशिश का दामन हमने अब भी छोड़ा नहीं है. मंजूर आलम की तीन संताने हैं. बेटे का संगीत में रुझान है.

यह संगीत के लिए सबसे खराब दौर है
खुर्शीद आलम उर्फ मुन्ना

एक मुकम्मल कव्वाल बनने के लिए जिंदगी के 40 साल देने पड़े. यह कहना है मानगो निवासी 65 वर्षीय कव्वाल खुर्शीद आलम उर्फ मुन्ना कव्वाल का. इनका नाम शहर के जाने-माने कव्वालों में शुमार है. खुर्शीद बताते हैं ‘आज की नस्ल ‘चट मंगनी, पट ब्याह’ वाली हो गई है. यह संगीत के लिए सबसे खराब दौर है. कपड़े बदल ली, दो-चार लाइन याद कर ली और कव्वाल बन गए. न लय है, न सुर. मुझे 65 साल हो गए, कव्वाली गाते. हवाई जहाज में सफर करने में सालों लग गए. संगीत में संपूर्णता हासिल करने के लिए खुद को मिटाना होता है.’ मेहंदी हसन, गुलाम अली के दीवाने मुन्ना कव्वाल बताते है कि 20 साल की उम्र में शहर के सबसे पुराने बिनाका म्यूजिक पार्टी में वे फिल्मी गाना गाते थे. इस बीच उनका कव्वाली गाने का शौक परवान चढ़ा. उन दिनों रेडियो का जमाना था, जब भी रेडियो पर कव्वाल को गायिकी को सुनते थे तो मानो सांझ उनके रुह में बस जाता था. धीरे-धीरे इस ओर रुझान बढ़ा और ख्वाहिश मन में लिये मुंबई चला गया. वहां टी-सीरिज के मालिक एवं गायक गुलशन कुमार के भाई दर्शन कुमार से मुलाकात हुई और उन्होंने सूफीयाना अंदाज में कव्वाली एलबम में गाने का मौका दिया. करिश्मा कपड़े का… पहला एलबम था जो वर्ष 1998 में रिलीज हुआ. उसी वर्ष ख्वाजा महाराजा… दूसरी एलबम आयी जो सुपर-डुपर हिट रही. खुर्शीद बताते हैं कि कव्वाली की महफिलों ने धर्म व मजहब की दीवारों को गिराने में सराहनीय भूमिका निभायी. आज जरा दुख होता है कि हम अपने ही शहर में बेगाने में होते जा रहे हैं, स्थानीय आयोजनों में बाहर के कव्वालों को बुलाया जा रहा है.

कव्वाली ही मेरा पेशा और पहचान
छोटे जानी

मानगो निवासी जाने-माने कव्वाल छोटे जानी का मानना है कि कव्वाल की पहचान उनकी गायिकी से होती है न कि उसके पहनावे व बाहरी रहन-सहन से. अंतरराष्ट्रीय कव्वाल जानी बाबू को अपना गुरु मनाने वाले छोटे जानी ने अब तक देश के हर कोने में कव्वाली गाये है. वे आशान्वित लहजे में बताते हैं कि कव्वाली की स्थिति पहले भी अच्छी थी और आज भी है. हां चुनौती जरूर है. पहले कव्वाली में हरमोनियम, बैंजो, तबला, ढोल जैसे वाद्य यंत्र विशेष रूप से बजते थे. इससे गायन की ओरिजिनालिटी बनी रहती थी. आज नये-नये वाद्ययंत्र प्रयोग में लाये जा रहे है. फिर भी इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि अच्छे कव्वाली गायक को रियलिटी शो व अन्य कई कार्यक्रमों में अवसर भी मिल रहे है. छोटे जानी बताते है कि वर्ष 1990 से 95 तक उनके कई अलबम निकले. चल री सखी ख्वाजा के मेले में… लोगों के दिलों में बस गयी. एलबम के अलावा जानी बाबू के साथ लाइव प्रोग्राम करने का मौका मिला और इस तरह से कव्वाली गाने का सिलसिला चलता रहा. आज भी सूफी कव्वाली लोगों को उतना ही पसंद है जितना कि पहले था. अब कव्वाली को मुजरा का रूप दे दिया गया है. कहें तो अश्लीलता की चादर ओढ़ा दी गयी. मेरे उस्ताद कहते थे ‘थोड़ा खाओ मगर अच्छा खाओ, थोड़ा गाओ मगर अच्छा गाओ’. इसे मैंने अपने मन में गांठ बांध लिया. छोटे जानी के पिता टाटा स्टील में कार्यरत थे. अपने परिवार में छोटे इकलौते ऐसे सदस्य हैं जिनकी बचपन से ही संगीत के प्रति रुचि रही. आज भी वे पंडित शिवशंकर शर्मा का संतूर वादन सुनते है.

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