।।पार्थ सारथी भट्टाचार्य।।
(पूर्व चेयरमैन, कोल इंडिया)
सन् 2009 में चीन के दौरे पर जाने वाले सेंट्रल पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज (सीपीएसइ- केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र प्रतिष्ठान) के प्रतिनिधिमंडल का मैं भी एक सदस्य था. यह शिष्टमंडल चीन में राजकीय स्वामित्ववाले प्रतिष्ठानों की कार्यदक्षता में उल्लेखनीय सुधार के संबंध में अध्ययन करने के लिए गया था. चीन ने 2000 के दशक में अपने लोक उपक्रमों की कार्यशैली में काफी प्रगति हासिल की थी.
अध्ययन के क्रम में ज्ञात हुआ कि 2002-03 के दौरान चीन ने अपने चंद आर्थिक मंत्रलयों को विघटित कर दिया. राजकीय स्वामित्ववाले 150 से भी ज्यादा उपक्रमों को एक छतरी के नीचे ला खड़ा किया. इस छतरी को नाम दिया गया – स्टेट एसेट्स सुपरविजन एंड एडमिनिस्ट्रेशन कमीशन (एसएएसएसी) यानी राजकीय परिसंपत्ति पर्यवेक्षण एवं प्रबंधन आयोग. इस आयोग के चेयरमैन एक मंत्री होते हैं, जिसे इस संगठित संघ का सर्वोच्च पदधारी माना गया है. चेयरमैन के सहयोग के लिए चंद वाइस चेयरमैन नियुक्त किये गये हैं. राजकीय स्वामित्वाधीन उपक्रमों (एसओइ) के मुखियागण (एसओइ चीफ) इन्हीं वाइस चेयरपर्सन्स को रिपोर्ट-प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हैं.
वाइस चेयरपर्सन्स आयोग (एसएएसएसी) राजकीय उपक्रमों (एसओइ) की भूमिका और जिम्मेवारियों के विभाजन के संबंध में निष्पक्ष और बेबाक राय पेश करने के लिए अधिकृत हैं. आयोग ही एसओइ चीफ की नियुक्ति, असंतोषपद कार्य निष्पादन के लिए हटाने या दंडित करने, बेहतर कार्यदक्षता के लिए पुरस्कृत तथा उनके कार्यो के कार्य संचालन हेतु शक्ति प्रदान करने के लिए स्वतंत्र एवं अधिकृत है. वृहद संस्थानों के लिए एसओइ चीफ के लिए वैश्विक स्तर पर योग्य एवं कर्मठ चीनी नागरिकों में से ही उपयुक्त व्यक्ति का चयन किया जाता है. उन्हें प्रतिस्पर्धात्मक संपूर्ति पारिश्रमिक उपलब्ध कराया जाता है. इसका उद्देश्य होता है कि समुचित पड़ताल के बाद उचित कार्य के लिए सुयोग्य व्यक्ति को ही पदासीन किया जाये. इसके बाद चयनित अधिकारी पर ही पूर्ण भरोसा किया जाता है, बशर्ते जाने-अनजाने में वह व्यक्ति कोई गंभीर असंतोषप्रद कार्य नहीं करे या संस्थान की अखंडता प्रभावित नहीं करे.
चीन के लोक उपक्रमों का चौंकानेवाला प्रदर्शन : 2003 से लेकर 2008 तक की अवधि के दौरान चीन में आयोग द्वारा नियंत्रित लोक उपक्रमों ने निम्नतम स्तर से लेकर उच्चतम स्तर तक औसतन 200 फीसदी विकास का प्रदर्शन कर दुनिया को चौंका दिया. चीन में इससे पहले प्रचलित संस्थागत अलग-अलग कार्य प्रदर्शन के विपरीत उपयुक्त पांच वर्ष की अवधि में राजकीय लोक उपक्रमों के बीच परस्पर सहयोगात्मक कार्यदक्षता की शैली से उत्पादन और क्षमता में आशातीत सफलता हासिल हुई. भारतीय लोक संस्थानों के शिष्टमंडल के चीन दौरे के करीब एक साल बाद नवंबर, 2010 में ब्रुसेल्स में आयोजित वर्ल्ड कोल एसोसिएशन कॉन्फ्रेंस में मेरी मुलाकात चाइना शेन्हुआ के चेयरमैन से हुई. उन्होंने स्वीकार किया कि उनकी कंपनी ने आइपीओ जारी करने तथा एसएएसएसी के नियंत्रण के अधीन आने के बाद अपनी कार्यशक्ति की श्रेष्ठता को हासिल किया है. पूर्ण अधिकार प्राप्ति के साथ विविधतापूर्ण विकासोन्मुख पथ पर निरंतर आगे कदम बढ़ाया है.
भारत में लोक उपक्रम : भारतीय लोक संस्थानों को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आधुनिक भारत का मंदिर की संज्ञा से विभूषित किया था. इनमें से अधिसंख्य 1950, 1960, 1970 के दशकों में बड़े पैमाने पर स्थापित किये गये थे. तब इन सबों के लिए एक सुनिश्चित उद्देश्य था. उद्देश्य यह कि ये उपक्रम देश की अर्थव्यवस्था के उच्चतम स्तर पर अपना नियंत्रण स्थापित करेंगे. इन उपक्रमों के लिए पूंजीगत व्यय और कुछ मामलों में संचालन व उत्पादन व्यय के लिए समुचित कोष केंद्र सरकार द्वारा मुहैया कराया गया था. परिणाम यह हुआ कि केंद्रीय लोक उपक्रमों ने ऐसे अचिह्न्ति प्रमुख क्षेत्रों (कोर एरियाज) में पदार्पण किया, जहां भारी-भरकम पूंजीगत कोष का व्यय हुआ. ऐसे क्षेत्रों से निजी संस्थान अब तक दूरी बनाये हुए थे, क्योंकि उन्हें इन क्षेत्रों में भारी जोखिम का बोध हो रहा था. देखते-ही-देखते स्टील, कोयला, ऊर्जा, तेल एवं गैस, उर्वरक, हैवी इंजीनियरिंग, रक्षा उपकरण एवं इन्फ्रास्ट्रर आदि वृहद लागतवाले क्षेत्रों में केंद्रीय लोक उपक्रमों का बोलबाला हो गया. आरंभिक दौर में लोक प्रतिष्ठानों ने वित्तीय प्रबंधन एवं उपयोगिता के बजाय कंपनियों की कार्यदक्षता को बढ़ावा दिया. साथ ही उत्पादन के विकास पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया.
बजटीय सहायता बंद : अस्सी के दशक तक लोक उपक्रमों को केंद्र से पूंजीगत आर्थिक सहायता निर्बाध रूप से मिलती रही. योजना लागत व्यय को बजटीय समर्थन एवं नॉन प्लान सपोर्ट (गैर योजना मद में खर्च) भी. नब्बे के दशक शुरू होते-होते केंद्र सरकार द्वारा व्यापक आर्थिक सहयोग कायम रखना कठिन होता गया. इसकी उपयोगिता का औचित्य भी अर्थशास्त्रियों के लिए अबूझ पहेली बन गयी. 1991 में केंद्र सरकार ने आर्थिक सुधार कार्यक्रम के तहत लोक प्रतिष्ठानों की बजटीय सहायता को चरणबद्ध ढंग से घटाने की योजना बनायी, ताकि सरकार पर राजकीय कंपनियों की निर्भरता कम की जा सकें. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का समर्थन और वित्तीय मदद हासिल करने के लिए यह कदम उठाना सरकार के लिए अनिवार्य हो गया था. सरकार की ओर से लोक उपक्रमों को आर्थिक सपोर्ट बंद करने का कदम लंबे समय से की जा रही भविष्यवाणियों के अनुरूप केंद्रीय लोक उपक्रमों के लिए कयामत बन कर आया, लेकिन बहुत कम समय में लोक प्रतिष्ठानों ने इस चुनौती को स्वीकार किया. अपनी कार्यशैली में काफी हद तक बदलाव भी लाया. हां, आर्थिक मदद बंद होने के बाद भी सरकार की तरफ से अन्य प्रकार के सहयोग किये गये. (अनुवाद : डॉ रवींद्र कुमार सिंह)