मुझे याद नहीं
पर घरवाले कहते हैं
मैंने सबसे पहले तुम्हे ही पुकारा था
मुझे उस सुख का अंदाजा नहीं
जो तुझे मिला था, मेरे मुंह से मां सुनकर
चूम ही लिया था मेरे माथे को
और चूमती जा रही थी निरंतर
और बह रही थीं तेरी आंखें झर-झर
याद है वो दिन
जब पापा मुझे पढ़ने के लिए दूर भेज रहे थे
तू उनसे हुई थी नाराज़
पर शायद मेरी भलाई के लिए
तूने छुपा लिए अपने आंसू
और मुस्कुराहटों के साथ
भेज दिया था मुझे अपने से दूर।
कैसे न याद रखूं
कि तू हर महीने आ जाती थी मुझे देखने
घर से 500 किलोमीटर दूर
और दे जाती थी कुछ और दिन
तेरे बिना रह पाने की हिम्मत।
मुझे ये भी याद है
कैसे मेरे घर आने वाले दिन
तू दरवाज़े पर नजरें गड़ाए रखती थी
जैसे तेरे लाल को तुझसे पहले
कोई और ना देख ले
और मेरे आते ही
फैला देती थी अपनी बाहें
कि मैं तेरे सीने में समा जाऊं।
आज मैं छटपटा जाता हूं
तुझसे मिलने को
कि मेरी दुनिया तो
सिर्फ तुमसे है।
मेरी उदासियों में तुम्हारी जुदाई का दर्द
मुस्कुराहटों पर तेरे वात्सल्य का अधिकार
मेरी आवाज तेरी इबादत का पैगाम
और मेरे आंसू तेरी ममता के मोल
मां, तेरी यादों को मैंने
समेट कर रखा है
बना ली है गठरी
जल्द ही आऊँगा तेरे पास
तेरे सीने से लगकर रोने
तेरे आंसुओं से तर- बतर होने
तेरे हाथों से निवाला खाने
और तेरी लोरियां सुन सोने
तेरे साथ बैठ दुनिया-जहां की बात करने
हठ करने, जिद करने और तुझसे लड़ने
तुझको रुलाने और खुद रोने।
मां, मैं जल्द आऊँगा।
-आशुतोष पाण्डेय 'अंश'
