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मानव जीन पर सबसे बड़ा अध्ययन : दक्षिण एशिया में खेती स्वाभाविक विकास, पश्चिम से अपनाया हुआ नहीं

हैदराबाद : सिंधु घाटी सभ्यता का हिस्सा रहे राखीगढ़ी नगर की एक महिला के जीनों के समूह को पहली बार क्रम में रखे जाने से इस बात की संभावना बढ़ गयी है कि प्राचीन सभ्यता के लोगों का यूरोपीय चरवाहों या ईरानी किसानों से कोई संबंध नहीं था. आनुवांशिकीविद्, पुरातत्वविदों और मानव विज्ञानियों की एक […]

हैदराबाद : सिंधु घाटी सभ्यता का हिस्सा रहे राखीगढ़ी नगर की एक महिला के जीनों के समूह को पहली बार क्रम में रखे जाने से इस बात की संभावना बढ़ गयी है कि प्राचीन सभ्यता के लोगों का यूरोपीय चरवाहों या ईरानी किसानों से कोई संबंध नहीं था. आनुवांशिकीविद्, पुरातत्वविदों और मानव विज्ञानियों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने 524 प्राचीन व्यक्तियों के जीन समूह का अध्ययन किया.

इस टीम में हैदराबाद के सीएसआइआर-सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (सीएसआइआर-सीसीएमबी) से कुमारसामी थंगराज भी शामिल थे. डीएनए के इन नमूनों में पूर्वी ईरान, तुरान (उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ताजिकिस्तान), कांस्य युग कजाखस्तान और दक्षिण एशिया से लिये गये नमूने शामिल हैं, जिससे यह प्राचीन मानव डीएनए का अब तक सबसे बड़ा अध्ययन बन जाता है.

इन डीएनए नमूनों के अध्ययनों का परिणाम दो पत्रिकाओं ‘साइंस’ और ‘सेल’ में प्रकाशित हुआ है, जो खेती की उत्पत्ति, दक्षिण एवं मध्य एशिया में भारतीय-यूरोपीय भाषाओं का स्रोत और सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों की वंशावली को लेकर लंबे समय से उठते आ रहे सवालों पर प्रकाश डालते हैं.

अध्ययनों में सामने आया कि आनुवंशिक स्रोतों के जटिल वर्ग ने अंतत: मिलकर आज के दक्षिण एशियाई लोगों की वंशावली तैयार की. साथ ही इनमें कहा गया कि दक्षिण एशिया में खेती स्वाभाविक विकास था और यह पश्चिम से नहीं आया था.

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