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दवा कंपनियों से सांठगांठ कर अस्पताल हर महीने बेच लेते हैं तीन करोड़ रुपये की दवा

राजीव पांडेय रांची : दवा कंपनी डिस्ट्रीब्यूटर के माध्यम से अस्पतालों तक दवाओं की बड़ी खेप पहुंचाती है. जीवन रक्षक दवा (क्रिटिकल केयर) बनानेवाली कंपनी सबसे ज्यादा अपनी दवाओं को अस्पताल में खपाती है. सूत्र बताते हैं कि राज्य के हरेक कॉरपोरेट व बड़े अस्पताल में दवा का कारोबार महीने में तीन करोड़ रुपये तक […]

राजीव पांडेय
रांची : दवा कंपनी डिस्ट्रीब्यूटर के माध्यम से अस्पतालों तक दवाओं की बड़ी खेप पहुंचाती है. जीवन रक्षक दवा (क्रिटिकल केयर) बनानेवाली कंपनी सबसे ज्यादा अपनी दवाओं को अस्पताल में खपाती है.
सूत्र बताते हैं कि राज्य के हरेक कॉरपोरेट व बड़े अस्पताल में दवा का कारोबार महीने में तीन करोड़ रुपये तक का होता है. अन्य बड़े नर्सिंग होम भी 40 से 50 लाख रुपये तक का कारोबार कर लेते हैं. राजधानी के बड़े अस्पतालों में आइसीयू, सीसीयू में भर्ती एक मरीज पर प्रतिदिन आठ से 10 हजार रुपये की दवाओं की खपत दिखायी जाती है.
एक दवा डिस्ट्रिब्यूटर ने नाम नहीं छापने की शर्त पर अस्पतालों व दवा कंपनियों को होनेवाले मुनाफे का गणित समझाया. उन्होंने कहा कि 100 बेड के कॉरपोरेट अस्पताल में अनुमानत: एक मरीज पर यदि 10 हजार रुपये का खर्च दवा मद में आता है, तो हर दिन करीब दस लाख रुपये की दवाओं की खपत
होती है. यानी एक माह में करीब तीन करोड़ रुपये का दवा का कारोबार उस अस्पताल में होता है. यदि राज्य में 15 दवा कंपनियों ने ऐसे 15 कॉरपोरेट (100 बेडवाले) अस्पतालों से सांठगांठ कर ली, तो महीने में करीब 45 करोड़ का उनका कारोबार होगा. इनमें छोटे नर्सिंग होम व अस्पतालों को शामिल कर लिया जाये, तो उनका कारोबार 60 करोड़ रुपये से अधिक हो जायेगा.
कॉरपोरेट अस्पताल खुद बेचते हैं दवा : दवाओं का मुनाफा देख कॉरपोरेट व बड़े अस्पताल संचालक खुद अस्पताल परिसर में ही दवा दुकान खोल लेते हैं. अस्पताल मेें भर्ती मरीजों को दवा वहीं से खरीदनी होती है.
वहीं, क्रिटिकल केयर यूनिट में भर्ती मरीजों को जो दवाएं दी जाती है, उसकी जानकारी परिजन को नहीं होती है. बाद में बिल में दिखा दिया जाता है कि स्थिति गंभीर होने पर इन दवाओं का प्रयोग किया गया. कुछ अस्पताल मरीज को इमरजेंसी दवाओं की सूची दे देते हैं और अपनी फार्मेसी से दवा खरीदकर लाने को कहते हैं. दूसरी दुकान से दवा लाने पर लौटा भी दिया जाता है.
डॉक्टरों को मिलता है दवा खपाने का टारगेट
अस्पताल प्रबंधन व दवा कंपनियां मिलजुल कर तय करते हैं कि उनको कौन-कौन सी दवा का उपयोग करना है. वैसी दवाओं का ज्यादा उपयोग किया जाता है, जिसमें कमीशन अधिक हो. इसके बाद अस्पताल परिसर स्थित उन दुकानों में स्टॉक रखा जाता है. इसके बाद अस्पताल के हर डॉक्टर को दवाओं की सूची थमा दी जाती है.
उन्हें निर्देश दिया जाता है कि महंगी एमआरपी वाली दवा मरीजों को लिखें. डॉक्टर उसी सूची के अनुसार मरीजों को दवा लिखते हैं. एक डॉक्टर ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि अगर वह मरीज को सस्ती दवा लिख देते हैं, तो अगले दिन अस्पताल प्रबंधन इस पर एतराज जताता है. उन्होंने कहा कि कई अस्पताल प्रबंधन डॉक्टरों को भी दवा खपाने का टारगेट देते हैं.
अस्पताल परिसर में दवा दुकान के लिए होती है मारामारी
कई कॉरपोरेट अस्पताल भाड़े पर दवा दुकान दे देते हैं. मुनाफा देख उन दुकानों के लिए मारामारी होती है. इसके एवज में अस्पताल प्रबंधन आठ से दस लाख रुपये तक किराया भी वसूलता है. राजधानी के दो-तीन बड़े अस्पतालों में किराये पर दवा दुकानें चलती हैं. उनसे आठ-आठ लाख रुपये तक किराया वसूला जा रहा है.
मरीजों की जेब से पैसा निकालने का हुनर कॉरपोरेट अस्पतालों से सीखा जा सकता है. इनमें दवा कंपनियां भी साथ निभाती हैं. यही वजह है कि राजधानी में दवा कंपनियां जहां हर माह 50 से 60 करोड़ रुपये का कारोबार कर रही हैं, वहीं हर कॉरपोरेट अस्पताल महीने में तीन करोड़ रुपये तक का दवा का कारोबार कर लेता है. अन्य बड़े निजी अस्पतालों में भी प्रति माह 40 से 50 लाख रुपये का दवा का कारोबार होता है.
एक ही ब्रांडनेम से मिल रही गैस, पेट व कीड़े की दवा
महिला पाठक ने पूछा क्या कर रहे हैं ड्रग इंस्पेक्टर साहब
अस्पताल व दवा कंपनियों के गोरखधंधे की खबर प्रकाशित होने के बाद एक महिला पाठक ने अखबार के माध्यम से औषधि निरीक्षक को कटघरे में खड़ा कर दिया है. उन्होंने पूछा है कि एक ही ब्रांडनेम मेडजॉल से गैस, कृमि, एंटीबॉयोटिक व बच्चों की पेट की बीमारी की दवाएं बिक रही हैं. अगर डॉक्टर ने सिर्फ ब्रांड नेम लिख दिया, तो दुकानदार कोई भी दवा दे सकता है. इससे किसी की जान भी जा सकती है.
कार्रवाई होगी
अगर कोई कंपनी ऐसा कर रही है, तो उनके खिलाफ नियम संगत कार्रवाई की जायेगी. ऐसी कंपनियाें को चिह्नित किया जायेगा.
सुरेंद्र प्रसाद, संयुक्त निदेशक (औषधि)

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