38.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

सिस्टम को कोसने से काम नहीं चलेगा, उसका हिस्सा बन उसमें सुधार की गुंजाइश ढूंढ़नी होगी

झारखंड के गुमला की रहनेवाली सोना झरिया मिंज एक शिक्षाविद होने के साथ सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं. जेएनयू में करीब तीन दशक से कंप्यूटर साइंस पढ़ा रहीं मिंज ने गणित से ग्रेजुएशन और एमएससी किया है. फिर जेएनयू से कंप्यूटर साइंस में डिग्री हासिल की. बचपन से शिक्षा के प्रति जुनून के कारण आदिवासी समाज से आने के बावजूद उच्च शिक्षा हासिल कर जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में अध्यापन से जुड़ीं और अब सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय की कुलपति नियुक्त हुई है. शिक्षा, समाज, आदिवासी सहित अन्य मुद्दों पर प्रभात खबर के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख अंजनी कुमार सिंह से बातचीत के प्रमुख अंश

झारखंड के गुमला की रहनेवाली सोना झरिया मिंज एक शिक्षाविद होने के साथ सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं. जेएनयू में करीब तीन दशक से कंप्यूटर साइंस पढ़ा रहीं मिंज ने गणित से ग्रेजुएशन और एमएससी किया है. फिर जेएनयू से कंप्यूटर साइंस में डिग्री हासिल की. बचपन से शिक्षा के प्रति जुनून के कारण आदिवासी समाज से आने के बावजूद उच्च शिक्षा हासिल कर जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में अध्यापन से जुड़ीं और अब सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय की कुलपति नियुक्त हुई है. शिक्षा, समाज, आदिवासी सहित अन्य मुद्दों पर प्रभात खबर के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख अंजनी कुमार सिंह से बातचीत के प्रमुख अंश

आप इतना महत्वपूर्ण पद संभालने जा रही हैं. अपनी जिम्मेवारी का निर्वहन कैसे करेंगी?

इस पद की गरिमा को बहुत गंभीरता से लेती हूं. यह मरे लिये एक गौरवांवित करने वाला क्षण है. हालांकि, मुझे इसकी आशा नहीं थी. नियुक्ति की सूचना मिलने पर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. क्योंकि वीसी की नियुक्ति प्रक्रिया से लेकर नियुक्ति सर्च कमेटी की मीटिंग से लेकर इसकी सारी प्रक्रियाएं ऑनलाइन हुई हैं. किसी से बातचीत का कोई मौका नहीं मिला. अगर लॉकडाउन नहीं होता, मैं दुमका में नहीं होती, प्रभात खबर में छपे विज्ञापन को नहीं देखा होता, तो शायद मेरा चयन भी नहीं होता. दादी, मां-पिताजी की सेवा के लिए रांची गयी थी. लॉकडाउन में कल तक वहीं रहीं. पढ़ने-लिखने के अलावा और कर क्या सकती थी. पिताजी प्रभात खबर ही लेते हैं, उसी में इसका विज्ञापन देखा, फिर सोची कि कितने दिनों तक सिस्टम को कोसते रहूंगी. सिस्टम का अंग बनकर बदलाव की पहल की जाये. फिर मैंने उस विज्ञापन को ऑनलाइन भरा और मेरे लिये यह सुखद आश्चर्य है कि मेरी नियुक्ति भी हो गयी. निश्चित रूप से कुछ सपने हैं, जिसे नियत समय में साकार करने की कोशिश करूंगी. नौ जून को पदभार ग्रहण करूंगी. मेरा यह भी मानना है कि सिस्टम को कोसने से ही काम नहीं चलेगा, बल्कि उसका हिस्सा बनकर उसमें सुधार की गुंजाइश भी ढूंढ़नी होगी.

झारखंड में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आप किस तरह के सुधार की गुंजाइश देखती हैं?

कोविड-19 के इस दौर में सभी ने कम्युनिकेशन टेक्नॉलाजी की उपयोगिता को देखा है. मीडिया के रोल को भी देखा है. यदि अपने शब्दों को डिप्लाेमेटिक न करते हुए कहूं, तो मीडिया रिस्पॉसिबल रोल अदा करती, तो इससे भी बहुत बड़ा फायदा होगा. क्योंकि कुछ भी काम आप कर लें, उसे लोगों तक ले जाने का काम मीडिया ही करता है. जेएनयू के मामलों में मीडिया का जो रोल रहा है, वह एकपक्षीय रहा है. मीडिया की भी अपनी सीमाएं हैं, लेकिन जो जरूरी मुद्दे है, उस पर मीडिया को और अधिक ध्यान देने की जरूरत है. मीडिया और शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर तालमेल की जरूरत है. क्योंकि लोगों को जागरूक करने में मीडिया का अहम रोल है. अच्छे सपने देखेंगे और उसे पूरा करने का भी प्रयत्न करेंगे.

जो वर्तमान शिक्षा व्यवस्था है, उसे आप किस रूप में देखती है?

क्या इसमें बदलाव की जरूरत है?देखिए, फार्मल एजुकेशन सिस्टम जो कक्षा एक से पांच तक है, वहीं से ही बदलाव की जरूरत है. इसमें शिक्षा का माध्यम या तो अंग्रेजी हो या हिंदी. क्योंकि हायर एजुकेशन में जो खोखलापन मैं देखी हूं, उसकी नींव नीचे से ही पड़ती है. इसलिए पहली से पांचवीं तक की जो शिक्षा है, वह अपनी भाषा यानी स्थानीय भाषा में हो. ऐसा होने से इसका ज्यादा फायदा होगा. क्योंकि ‘क’ से कलम बोल देते हैं, लेकिन गांव में कितने लोगों ने कलम देखी है. इसी तरह ‘द’ से दवात सिखाया जाता है. लेकिन, दवात किस चिड़िया का नाम है, इसे कौन जानता है. इसलिए जो सांस्कृतिक पहचान है, उसका अपना महत्व है. बच्चे जो चीज जानते हैं, जिन चीजों को देखा है, उसके द्वारा हम उसे शिक्षित करें, तो इसका फायदा पूरे एजुेकेशन सिस्टम पर पड़ेगा.

आदिवासियों के बीच आज भी शिक्षा की कमी और पिछड़ापन है. इसे दूर करने की दिशा में आप क्या करना चाहेंगी?

गणित की भाषा में बोलूं तो यह दोनों प्रत्यक्ष तौर पर एक दूसरे के प्रोपोर्शन(अनुपात) में है. इसका एक बड़ा कारण शिक्षा देने में कमी रही है. हम बच्चे के अंदर एक चाह पैदा करें, तो शिक्षा बोझ नहीं लगती हैं, बच्चे खुद से पढ़ना चाहते हैं. चीजों को समझा कर शिक्षा दें, तो उन्हें मजा आयेगा. बच्चे स्कूल सीखने की चाहत के साथ पढ़ने जाये न कि खाना खाने. दूसरी बात, ऐसा माहौल जिसमें मेरी भाषा और संस्कृति को तुच्छ दिखाया जा रहा हो, तो वहां लोग जाने से कतराते हैं. मेरा मानना है कि हम इन दोनों चीजों को दूर कर पाये, यानी स्थानीय भाषा में और दूसरी चीजों को समझाने और सांस्कृतिक विरासत को स्वीकार करने की बात होती है, तो इन समस्याआें को दूर करने में काफी मदद मिलेगी. इसके साथ ही हमें वहां की संस्कृति को भी ध्यान में रखना होगा. यदि हम भगत सिंह की चर्चा करते हैं, तो सिदो-कान्हू की भी चर्चा होनी चाहिए. वहां के बच्चे-बच्चे को पता है कि सबसे पहला विद्रोह उनका है, लेकिन उनके हीरो को क्यों नहीं स्थान मिला. ऐसे माहौल बच्चे को शिक्षा से दूर करता है. इसके साथ ही एेसे-ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति हो जाती है, जो लोग वहां जाते ही नहीं है. इसलिए साक्षरता भी नहीं हो पाती है. वहीं, दूसरी ओर एक शिक्षक पांच-पांच क्लास को पढ़ा रहे हैं, तो कहां से पढ़ाई होगी? मेरे ख्याल से इन समस्याओं का समाधान निकालना होगा. इन्हीं से हम दूसरों को शिक्षा भी दे सकते हैं. उन्हें बता सकते हैं कि हम पिछड़े नहीं है, बल्कि हमारी संस्कृति बहुत ही धनी है. यदि हम न होते तो जंगल नहीं बचता और आपकी आवो-हवा यह नहीं होती. संस्कृति का जो सम्मान है, उसे बरकरार रखना होगा.

जेएनयू से एसकेएमयू जाने में आप किस तरह की चुनौती या संभावना देखती हैं?

छोटे-छोटे जेएनयू के प्रतिविंब एसकेएमयू में आ जाये तो यह एक शुरुआत है. छोटे-छोटे ‘डॉट’ मिलकर एक बड़ा आकार ले लेता हैं. लोगों के बीच समानता और समान अधिकार होनी चाहिए. 1986 के जुलाई के महीने में जब पहली बार जेएनयू के कैंपस में दाखिल हुई थी. पहला दिन था. ब्यॉज ग्रुप भी थे, लेकिन कहीं से भी किसी ने मेरे उपर कोई छीटाकशीं नहीं की. यानी जहां कल्चर और वैल्यू के साथ प्रत्येक मानव की अपनी डिग्निटी है और उसका सम्मान किया जाता है. यह अहम बात है. जहां हर सोसाइटी का एक फ्लेवर आ जाये, तो यह अच्छी बात होगी. सब्जेक्ट ऐसे हो कि सब इंट्रेस्ट से पढ़ें. इसलिए यह टीचर की रिस्पांसब्लिटी भी बनती है. टीचर की रिस्पॉसब्लिटी लेक्चर देना नहीं, बल्कि पढ़ाना है. मेरी क्लास में स्टूडेंट कितना मार्क्स लाते हैं, यह मेरे लिये मायने नहीं रखता है, बल्कि पांच-दस साल बाद हमारे स्टूडेंट कहां पहुंचते हैं, यह मेरे लिये मायने रखता है और यही मेरा रिजल्ट होगा.

Posted By : Shaurya Punj

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें