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संकट में पड़ा ‘इस्पाती ढांचा’
पवन के वर्मा पूर्व प्रशासक एवं लेखक pavankvarma1953@gmail.com नौकरशाही के एक अखिल भारतीय स्वरूप के संदर्भ में भारत के ‘इस्पाती ढांचे’ (स्टील फ्रेम) के सृजन का श्रेय सरदार पटेल को दिया जाता है. भारतीय प्रशासनिक सेवा एवं भारतीय पुलिस सेवा समेत अन्य अखिल भारतीय सेवाओं के इस चौखटे से ये उम्मीदें बांधी गयी थीं कि […]
पवन के वर्मा
पूर्व प्रशासक एवं लेखक
pavankvarma1953@gmail.com
नौकरशाही के एक अखिल भारतीय स्वरूप के संदर्भ में भारत के ‘इस्पाती ढांचे’ (स्टील फ्रेम) के सृजन का श्रेय सरदार पटेल को दिया जाता है.
भारतीय प्रशासनिक सेवा एवं भारतीय पुलिस सेवा समेत अन्य अखिल भारतीय सेवाओं के इस चौखटे से ये उम्मीदें बांधी गयी थीं कि वे तरफदारी की सियासत से परे निष्पक्षता के मानक स्थापित करते हुए एक ऐसी आचार संहिता से निर्देशित होंगी, जो तटस्थता तथा प्रशासनिक प्रभावशीलता प्रदर्शित करती हो. सरकारें भले आती-जाती रहें, मगर इस इस्पाती ढांचे को सरकारी कामकाज का उभयपक्षीय सातत्य सुनिश्चित करना था.
सरदार पटेल ने पिछले दिनों कोलकाता में घटित किसी वैसी घटना की संभवतः कल्पना भी नहीं की होगी, जिसमें एक वरिष्ठ आइपीएस अफसर को सीबीआइ द्वारा गिरफ्तार किये जाने से बचाने के लिए ममता बनर्जी के दबंग नेतृत्व में राज्य सरकार ही ढाल हो गयी. यह केंद्र तथा राज्य सरकार के परस्पर राजनीतिक विरोध का एक निकृष्ट नमूना बन गया, जिसमें दोनों की प्रतिद्वंद्विता के परे उन बुनियादी मान्यताओं को क्षति पहुंची, जिनके आधार पर भारत के ‘इस्पाती ढांचे’ का निर्माण किया गया था.
इस समस्या का मूलभूत बिंदु यह है कि लोक सेवाओं के वर्तमान स्वरूप की परिकल्पना करते वक्त सरदार पटेल यह मानते हुए चले थे कि इन अफसरों का पर्यवेक्षण केंद्र एवं राज्य के दोहरे स्तरों पर होगा.
जब ये अफसर केंद्र सरकार के एक हिस्से के रूप में पदस्थापित होंगे, तो वे दिल्ली स्थित अपने नियंत्रक प्राधिकार से निर्देशित होंगे और जब उनका पदस्थापन राज्यों में होगा, तो वे मुख्यतः राज्य सरकार के प्राधिकार में रहेंगे.
जहां तक कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार का सवाल है, तो इस पद पर वे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के प्रति उत्तरदायी हैं, मगर उनका संवर्गीय नियंत्रक प्राधिकार केंद्रीय गृह मंत्रालय है. जैसा पहले से ही साफ है, वह अपने वर्तमान पदस्थापन में किसे रिपोर्ट करते हैं और एक अखिल भारतीय सेवा के सदस्य के रूप में कौन उनके समग्र आचार के लिए जिम्मेदार है, इसे लेकर हमारी व्यवस्था में किंचित द्वैध मौजूद है.
सीबीआइ के सामने राजीव कुमार के आत्मसमर्पण को रोकने में इसी द्वैध ने ममता बनर्जी को समर्थ बनाया. दूसरी ओर, इसी द्वैध ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को भी पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिदेशक तथा वहां के कई अन्य पुलिस अफसरों समेत राजीव कुमार के विरुद्ध अखिल भारतीय सेवाएं 1968 के कई नियमों के संदर्भ में कार्रवाई के लिए प्रेरित किया, जिसके अंतर्गत ‘दोषी अफसरों’ को केंद्र की सेवा करने से रोकने के अलावा उत्कृष्ट सेवाओं के लिए उन्हें प्रदत्त पदक या अन्य अलंकरण उनसे वापस लिये जा सकते हैं.
केंद्र सरकार इस मुद्दे को सुप्रीमकोर्ट में भी ले गयी, जिसने राज्य सरकार एवं केंद्रीय अन्वेषण एजेंसी के रूप में सीबीआई के विशेषाधिकारों के बीच एक सूक्ष्म संतुलन साधते हुए अपने न्यायिक निर्देश में कहा कि चिट फंड घोटाले के दोषियों के विरुद्ध उनके असहयोग के आरोपों के लिए राजीव कुमार से पूछताछ तो की जा सकती है, पर उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सकता.
उसने यह भी कहा कि यह पूछताछ कोलकाता या कि दिल्ली से अलग शिलांग में की जायेगी. सुप्रीमकोर्ट के निर्देश का स्वागत करते हुए ममता बनर्जी एवं केंद्र सरकार दोनों पक्षों ने उसे अपनी जीत करार दिया.
बात इस घटना के किसी फौरी समाधान की नहीं, बल्कि अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों के संदर्भ में केंद्र-राज्य संबंधों के कहीं अधिक गंभीर मुद्दों की है.
सरदार पटेल द्वारा सृजित इस्पाती ढांचा केंद्र एवं राज्य के बीच सहयोगात्मक संबंधों पर आधारित था. पर यदि यह सहयोग ही समाप्त हो जाये, तो फिर पूरी व्यवस्था के अव्यस्थित हो जाने का अंदेशा उठ खड़ा होगा. उदाहरण के लिए, यदि अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों के विरुद्ध कार्रवाई के संदर्भ में केंद्र सरकार की नेकनीयती पर संदेह करते हुए राज्य सरकारें मौजूदा सेवा प्रक्रियाओं के क्रियान्वयन में असहयोग करना शुरू कर दें, तो इसके नतीजे अत्यंत गंभीर हो सकते हैं.
तब अपने निर्धारित राज्यों में सेवाएं देते अफसर अपने संवर्गीय नियंत्रक प्राधिकार के रूप में केंद्र सरकार के निर्देशों की राज्य के मुख्यमंत्री के समर्थन से अनदेखी कर सकते हैं. चूंकि प्रायः केंद्र में सत्तासीन पार्टी की विरोधी पार्टियां राज्यों में सत्तारूढ़ रहती हैं, सो ऐसे सियासी टकरावों की संख्या बढ़ सकती है और उसके परिणामस्वरूप ऐसे कई राजीव कुमार सामने आ सकते हैं.
इसका एक बहुत घातक नतीजा नौकरशाही के और अधिक राजनीतिकरण के रूप में उभर सकता है, जिसके तहत केंद्र की सेवा में प्रतिनियुक्त अथवा राज्य में सेवाएं देते अफसर अपने लिए निर्दिष्ट सियासी तटस्थता छोड़कर सियासी पार्टियों के प्रति खुले पक्षपात में उतर सकते हैं.
भारतीय पुलिस सेवा के मामले में तो स्थिति और भी जटिल है, क्योंकि संविधान के अंतर्गत ‘पुलिस’ और ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ राज्य सूची के विषय हैं, समवर्ती सूची के नहीं, जिन पर केंद्र तथा राज्य दोनों के क्षेत्राधिकार होते हैं.
यह राज्यों में सत्तारूढ़ सियासी पार्टियों द्वारा उनके क्षेत्राधिकार में केंद्रीय सरकार के किसी अतिक्रमण का विरोध करने को और भी मजबूती दे सकता है. फिर वैसे अपराधों का क्या होगा, जो एक ही राज्य तक सीमित न रहकर अंतरराज्यीय प्रकृति के हों? चिट फंड घोटाले का मामला इसकी नजीर है, जो कई राज्यों तक फैला है. फर्जीवाड़े की इस विशाल स्कीम ने लगभग 17 लाख निवेशकों के 35 हजार करोड़ रुपये ठग लिये.
इसका अन्वेषण कई राज्यों में किया जाना है, पर निर्धारित अन्वेषक एजेंसी एक केंद्रीय एजेंसी है. इस स्कीम के शिकार न्याय की पुकार लगा रहे हैं, पर अन्वेषण अब केंद्र तथा राज्य में सत्तारूढ़ दलों के सियासी संघर्ष में फुटबॉल बना ठोकरें खा रहा है.
इस्पाती ढांचे की बुनियाद हमारे गणतंत्र की संघीय शासन व्यवस्था में कई अन्य संस्थाओं की तरह केंद्र और राज्यों के बीच विश्वास पर टिकी है.
यदि इन दोनों के बीच अविश्वास की खाई ज्यादा चौड़ी हो जाती है, तो इस प्रकृति की संस्थाएं उसी खाई में समा जायेंगी. निकट आते आम चुनावों के संदर्भ में बढ़ते दबावों के साथ तीव्रतर होते सियासी मतभेदों और विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के राजनीतिक नक्कारखाने में उन समयसिद्ध संस्थाओं को पहुंचती चोटों को लेकर हमें अत्यंत सावधान रहने की जरूरत है, जिन्होंने हमेशा ही राष्ट्र की रक्षा की है.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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