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किसान के अस्तित्व की लड़ाई

योगेंद्र यादव राजनीतिक विश्लेषक आज किसान को इस तीसरे हथियार (वोट) का इस्तेमाल कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होगी. हो सकता है कि यह हमारे इतिहास में किसान की अंतिम बड़ी लड़ाई हो. हालत उसके खिलाफ है.सरकार ही नहीं, सारा सत्ता-प्रतिष्ठान उसके खिलाफ है. गजेंद्र की मौत पर आंसू इसलिए बहाये जा रहे हैं, […]

योगेंद्र यादव
राजनीतिक विश्लेषक
आज किसान को इस तीसरे हथियार (वोट) का इस्तेमाल कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होगी. हो सकता है कि यह हमारे इतिहास में किसान की अंतिम बड़ी लड़ाई हो. हालत उसके खिलाफ है.सरकार ही नहीं, सारा सत्ता-प्रतिष्ठान उसके खिलाफ है. गजेंद्र की मौत पर आंसू इसलिए बहाये जा रहे हैं, ताकि बाकी बड़े सवालों को न उठाना पड़े. इस पर किसान आंदोलन बुरी तरह बंटा हुआ है.
टेलीविजन चैनलों ने किसान को याद किया, ताकि पूरा देश किसान को भूल सके! यही किसान और खेती की त्रासदी है. क्या किसान आंदोलन इस त्रासदी को पलट सकेंगे?
असली त्रासदी यह नहीं कि गजेंद्र नाम का एक और किसान अब इस दुनिया में नहीं रहा, उसके मां-बाप ने अपने बुढ़ापे का सहारा खो दिया और बच्चों ने अपना पिता. असली त्रासदी है कि किसानों की आत्महत्या का यही सिलसिला पिछले दस सालों से हम सबकी आंखों के सामने चल रहा है, लेकिन हम बेखबर बने हुए हैं और शायद आगे भी बने रहेंगे.
असली फूहड़ता यह नहीं है कि इस दुखद घटना के बाद कैसे बोलना है, इस बात की तमीज भी कुछ राजनेताओं को नहीं है, बल्कि असली फूहड़ता यह है कि किसान के सवाल पर ‘समझदार’ लोग भी बिना कुछ जाने-समङो बतियाते रहते हैं, और रहेंगे.
इस सवाल पर अश्लीलता यह नहीं है कि चिता की राख को राहत के चेक से ढकने की कोशिश हुई; राजनीति की अश्लीलता इस बात में है कि अगर टीवी कैमरा न हो तो चिता को ढकने की जरूरत भी महसूस नहीं होती.
आज से पचास साल पहले किसान की राजनीति में हिम्मत थी. चौधरी चरण सिंह पूछ सकते थे कि देश के भविष्य में किसान और उद्योग का कितना-कितना हिस्सा होगा. पच्चीस साल पहले चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत और प्रोफेसर नन्जुन्दास्वामी एक कदम पीछे हट चुके थे, फिर भी उन्होंने पूछा था कि किसान को उसकी फसल का वाजिब दाम कैसे मिलेगा.
लेकिन, आज की थकी-हारी किसान राजनीति कई कदम पीछे जा चुकी है. अब सवाल है कि किसान को बर्बाद फसल का मआवजा कैसे मिले, मनमाने भूमि-अधिग्रहण से कैसे बचाया जाये, किसानों की आत्महत्याओं को कैसे रोका जाये. इस तरह हर दस साल में किसान राजनीति एक कदम पीछे होती जा रही है. यह है खेती और किसानी की असली त्रासदी.
किसान आज जितना बेबस है, इससे पहले कभी नहीं था. इस साल सरकारी अनुमान है कि देश में करीब 180 लाख हेक्टेयर में खड़ी फसल ओले और बारिश से बर्बाद हो गयी है.
कहने को तो सरकार ने अनेक फसल बीमा योजनाएं बनायी हैं, लेकिन ज्यादातर सरकारी योजनाओं की तरह वे भी कागजों में ही हैं. फसल बीमा के नियम ऐसे हैं कि जब तक एक बड़े इलाके में फसल लगभग पूरी तरह से बर्बाद नहीं हो जाती, तब तक उस इलाके में किसी को भी मुआवजा नहीं मिलता. और अगर मिलता भी है तो नाम मात्र का..
लेकिन असली संकट यह भी नहीं है. प्राकृतिक आपदा ने तो कंगाली में आटा गीला कर दिया है, लेकिन कंगाली की असली वजह यह है कि खेती पूरी तरह घाटे का धंधा बन गयी है. किसानी में अब इतनी आमदनी नहीं हो रही है कि पांच एकड़ काश्त करनेवाला कोई किसान मेहनत करके अपना घर-बार ठीक से चला सके. अगर सब कुछ ठीक रहा तो फसल बेचकर वह आढ़ती के उधार वापस कर पाता है.
अच्छी फसल वाले सालों में भी उसके हाथ में कुछ बचता नहीं है. लेकिन, अगर फसल को नुकसान हो गया, या फिर घर में शादी या कोई बीमारी आन पड़ी, तब तो कर्ज वापस होने के बजाय बढ़ता ही जाता है. इसी हालत में शुरू होता है आत्महत्या के लिए मजबूर होने का सिलसिला.
अगर आप यह जानना चाहें कि किसानी घाटे का धंधा क्यों है, तो आपको फसलों के दाम का गोरखधंधा समझना पड़ेगा. खेती की लागत साल-दर-साल बढ़ती जा रही है. बीज, खाद, बुआई, कटाई- सबका दाम हर साल बढ़ रहा है, लेकिन फसल के दाम जस-के-तस हैं, या फिर धीरे-धीरे रेंगते हुए बढ़ रहे हैं.
कहने के लिए तो सरकार किसानों को ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ की गारंटी देती है, लेकिन वास्तव में यह सरकारी दाम या तो किसान की लागत की भरपाई भर करता है, या कई बार तो लागत से भी कम होता है.
और वह भी कुछ ही फासलों के लिए और देश के कुछ ही इलाकों में मिलता है. इस साल से केंद्र सरकार ने ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ पर खरीद से भी हाथ खींचने शुरू कर दिये हैं. किसान फसल लेकर मंडी में खड़ा है, कोई खरीदने को तैयार नहीं है.
सरकारी कर्मचारियों के वेतन भत्तों में सुधार के लिए हर दस साल बाद सरकार एक नया वेतन आयोग बना देती है. आजकल सातवां वेतन आयोग काम कर रहा है. लेकिन, किसान की आमदनी सुनिश्चित करने के लिए कभी कोई आयोग क्यों नहीं बनाया गया?
हां, किसान की दशा पर विचार करने के लिए स्वामीनाथन आयोग बना था. कांग्रेस के राज में बने इस आयोग ने सिफारिश की थी कि किसान को हर फसल पर पूरे देश में लागत से ड्योढ़ा दाम मिलना चाहिए. लेकिन, मनमोहन सरकार ने अपनी ही सरकार द्वारा बनाये गये आयोग की इस सिफारिश पर कान नहीं दिया.
बीजेपी ने इसे अपने चुनावी घोषणापत्र में जरूर शामिल कर लिया, लेकिन सरकार में आने के बाद वह भी इससे साफ मुकर गयी. बीते फरवरी माह में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बताया है कि किसान को लागत का ड्योढ़ा दाम देने का उसका कोई इरादा नहीं है!
अब इस हालत में किसान क्या करे?
आज किसान के पास सिर्फ तीन चीजें बची हैं. पहली, उसके सिर पर झूठी शान की प्रतीक उसकी पगड़ी है. दूसरी, उसके पांव तले उसकी एकमात्र संपत्ति यानी जमीन है. यह जमीन ही उसकी जीविका का प्रधान स्नेत है. भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश के जरिये उसे भी छीन लेने की तैयारी चल रही है. मोदी सरकार इस अध्यादेश पर जितनी भी चाशनी लपेट ले, लेकिन हकीकत यही है कि यह 120 साल बाद किसान को मिली रियायतों को वापस लेने की कोशिश है.
इन रियायतों में पहली बार एक प्रकार की भलमनसाहत दिखी थी. भलमनसाहत यह कि जमीन किसान की है तो उसे बरतने से पहले सरकार किसान की मर्जी भी पूछेगी. लेकिन, किसान की यह मर्जी मोदी सरकार के लिए शायद मायने नहीं रखती. तीसरी चीज है, उसके हाथ में वोट और संघर्ष की ताकत.
आज किसान को इस तीसरे हथियार का इस्तेमाल कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होगी. हो सकता है कि यह हमारे इतिहास में किसान की अंतिम बड़ी लड़ाई हो. हालत उसके खिलाफ है.
सरकार ही नहीं, सारा सत्ता-प्रतिष्ठान उसके खिलाफ है. गजेंद्र की मौत पर आंसू इसलिए बहाये जा रहे हैं, ताकि बाकी बड़े सवालों को न उठाना पड़े. इस पर किसान आंदोलन बुरी तरह बंटा हुआ है. ऐसे में किसान यूनियन से काम नहीं चलेगा. किसान को खुद अपनी राजनीति करनी पड़ेगी, ताकि टेलीविजन चैनलों के चुप होने के बाद फिर से देश उसे भूल न जाये.

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