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वर्ष 2016: समाज का मुखौटा उघाड़ती फिल्म ”अलीगढ़”

मिहिर पांड्या निर्देशक ‘हंसल मेहता’ की फिल्‍म ‘अलीगढ़’ इस साल की सबसे गहरे पानी में डूबा एक मोती है. उनींदे से उत्तर भारतीय शहर के हृदय में बसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में मराठी पढ़ाने वाले विदुर प्रोफेसर के घर देर रात सनसनीखेज़ स्टिंग होता है. विश्वविद्यालय फौरन क़दम उठाता है. लेकिन स्टिंग करनेवालों की धरपकड़ के […]

मिहिर पांड्या

निर्देशक ‘हंसल मेहता’ की फिल्‍म ‘अलीगढ़’ इस साल की सबसे गहरे पानी में डूबा एक मोती है. उनींदे से उत्तर भारतीय शहर के हृदय में बसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में मराठी पढ़ाने वाले विदुर प्रोफेसर के घर देर रात सनसनीखेज़ स्टिंग होता है.

विश्वविद्यालय फौरन क़दम उठाता है. लेकिन स्टिंग करनेवालों की धरपकड़ के बजाए वो खुद प्रोफेसर को बरख़ास्त कर देता है. कारण, प्रोफेसर की समलैंगिक पहचान का उजागर होना. ‘अलीगढ़’ हमें लड़ाई को अनिच्छुक, लेकिन अद्भुत जीवट वाले इस प्रोफेसर श्रीनिवासन रामचंद्र सिरस की अकेली लेकिन निहायत ही कोमल दुनिया के भीतर लेकर जाती है.

साथ ही उस ‘सभ्य समाज’ का असल चेहरा भी हमारे सामने उजागर करती है, जिसे अपने से भिन्न कोई असहज करती पहचान बर्दाश्त तक नहीं. यह बहुमत नहीं, भीड़ है. आततायी भीड़. हत्यारी भीड़. कमाल की संवेदनशीलता के साथ बनाई गई ’अलीगढ़’ की चिंताओं का दायरा बड़ा है. यह फिल्म दरअसल हर उस अल्पसंख्यक पहचान के बारे में है, जिसकी रक्षा के वादे पर ही हमारा संविधान, हमारा लोकतंत्र और हमारा देश टिका है.

यहां मुख्य किरदार प्रोफेसर सिरस की भूमिका में मनोज वाजपेयी का निष्कपट अभिनय हमारे सिनेमा की थाती है. जिस सरलता से वे एक मराठी भाषी अधेड़ की भाव-भंगिमाओं को, उनके गुस्से को, उनके मैनरिज़्म को, उसकी बेबसी को अपने भीतर उतारते हैं, देखना विस्मयकारी है. कमरे में अकेले बैठे प्रोफेसर सिरस रेडियो पर लता मंगेशकर का गीत ‘आप की नज़रों ने समझा, प्यार के काबिल मुझे’ सुन रहे हैं. जैसे किसी समाधि में हैं और साक्षात ईश्वर समक्ष हैं.

गुणी कैमरामैन सत्य राय नागपॉल का तन्मय कैमरा ट्रांस टूटने नहीं देता. काबिल लेखक और संपादक अपूर्व असरानी दृश्य को जैसे किसी पतंग सा तरल खुला छोड़ देते हैं. आप बस डूब जाते हैं. लिख लीजिए, साल 2016 में इससे बेहतर आप कुछ नहीं देखेंगे.

‘अलीगढ़’ हमारे आधुनिक विश्वविद्यालयों के बदलते चेहरे के बारे में भी है. जिन संस्थानों को वैचारिक भिन्नताओं का संरक्षक होना था, वहां योजनाबद्ध तरीके से मतान्तर की जगह खत्म की जा रही है. भारत की विविधरंगी पहचानों का साझा गुलदस्ता होना था इन्हें, लेकिन आज़ादी के सत्तर साल बाद भी खुद इन्हीं के भीतर कैसी गैर-बराबरी पसरी है, ‘अलीगढ़’ इसका ज़िन्दा उदाहरण है.

चाहे वो अलीगढ़ के प्रोफेसर सिरस हों, सुदूर राजस्थान से दिल्ली पढ़ने आया अनिल मीणा, या हैदराबाद का शोध छात्र रोहित वेमूला, यह सभी नाम हमारी उच्च शिक्षण संस्थाओं के चेहरे पर लगे बदनुमा दाग़ हैं. हमें याद रखना होगा, न्याय के बिना कोई बराबरी संभव नहीं है.

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