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खबरों में जीने के जुनून में टूटी जिंदगी की डोर या तोड़ी गयी

पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार अगर स्टेट ही टेरर में बदल जाये, तो आप क्या करेंगे. मुश्किल तो यही है कि समूची सत्ता खुद के लिए और सत्ता के लिए संस्थान काम करने लगे, तब आप क्या करेंगे. तो फिर आप जिस तरह स्क्रीन पर तीन दर्जन लोगों के नाम, मौत की तारीख और मौत […]

पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
अगर स्टेट ही टेरर में बदल जाये, तो आप क्या करेंगे. मुश्किल तो यही है कि समूची सत्ता खुद के लिए और सत्ता के लिए संस्थान काम करने लगे, तब आप क्या करेंगे. तो फिर आप जिस तरह स्क्रीन पर तीन दर्जन लोगों के नाम, मौत की तारीख और मौत की वजह से लेकर उनके बारे में सारी जानकारी दे रहे हैं, उससे होगा क्या. सरकार तो कहेगी, हम जांच कर रहे हैं.
रिपोर्ट बताती है कि सारी मौत जांच के दौरान ही हो रही है. इस अंतर्विरोध को भेदा कैसे जाये या यह सवाल उठाया कैसे जाये कि जांच सरकार करा रही है. जांच कोर्ट के निर्देश पर हो रहा है. जांच शुरू हो गयी, तो सीएम कुछ नहीं कर सकते. लेकिन, जांच के साथ सरकार ही घेरे में आ रही है. एसआइटी और राज्य पुलिस किसी न किसी मोड़ पर टकराते हैं. एसआइटी से जुड़े अफसर रह तो उसी राज्य में रहे हैं, जहां मौतें हो रही हैं.
हर मौत के साथ पुलिस को तफ्तीश करनी है. इसी दायरे में अगर तथ्यों को निकलना है, तो कोई पत्रकार कैसे काम कर सकता है. पत्रकार को उन हालात से लेकर मौत से जुड़े परिवारों के हालात को भी समझना होगा. सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को भी उभारना होगा. अगर हर मौत राज्य के कामकाज पर संदेह पैदा करती है, तो फिर उन दस्तावेजों का भी जुगाड़ करना होगा, जो बताये कि मौत के हालात, मौत के बाद राज्य की भूमिका क्या थी?
दिल्ली से देखें, तो यही लगता है कि राज्य के सारे तंत्र सिर्फ राज्य सत्ता के लिए काम कर रहे हैं. यानी सारे संस्थानों की भूमिका सिर्फ और सिर्फ सत्ता के अनुकूल बने रहने की है, तो फिर ग्राउंड जीरो पर जाकर उस सच के छोर को पकड़ा जाये. लेकिन, सच इतना खौफनाक होगा कि ग्रांउड जीरो पर जाने के बाद अक्षय खुद ही मौत के सवाल के रूप में दिल्ली तक आयेगा, यह हफ्ते भर पहले की बातचीत में मैंने भी नहीं सोचा.
क्योंकि, व्यापमं में 42वीं और 43वीं मौत के बाद के बाद अक्षय के सवाल ने मुङो भी सोचने को मजबूर किया था कि क्या कोई रिपोर्ट इस तरीके से तैयार की जा सकती है, जहां स्टेट टेरर और स्टेट इन्क्वायरी के बीच सच को सामने लाने की पत्रकारिता की चुनौती को ही चुनौती दी जाये. काफी लंबी बहस हुई थी. अक्षय ने सवाल उठाया कि जब हम दिल्ली में बैठकर मध्यप्रदेश के व्यापमं की जांच के दौर में लगातार हो रही संदेहास्पद मौतों पर रिपोर्टिग को लेकर चर्चा कर रहे हैं, तो क्या यह सवाल मध्यप्रदेश के पत्रकारों में नहीं उठ रहा होगा.
उठ रहा होगा, तो क्या सत्ता इतनी ताकतवर हो चुकी है, जहां रिपोर्टर की रिपोर्ट सच न ला पाये या वह सच के छोर को न पकड़ सके. अक्षय याद करो, यही सवाल राडिया टेप के दौर में भी तुमने ही उठाया था और मुङो याद है, रात में ‘बड़ी खबर’ करने से ऐन पहले एंकर ग्रीन रूम में मुझे देखकर तुमने पहली मुलाकात में मुङो टोका था कि आप तो पाउडर भी नहीं लगाते, तो फिर आज यहां? मैंने कहा, बाल संवारने आया हूं.
तुम्हारा सवाल था, क्या आज राडिया टेप में आये पत्रकारों का नाम ‘बड़ी खबर’ में दिखायेंगे. मैंने कहा था, बिलकुल. तब तो देखेंगे. उस वक्त भी तुमने ही कहा था पत्रकार भिड़ जाये, तो सच रुक नहीं सकता. (जारी)

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