26.2 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

एक दूसरे के सहयोग से स्वास्थ्य सेवा में हो सकता है और सुधार

यूनिसेफ बिहार में डॉ. घनश्याम शेट्टी की पहचान स्वास्थ्य सेवा में निरंतर सक्रीय रहने वालों में से है. मूल रुप से ओडिसा के निवासी डॉ. शेट्टी गुजरे पांच साल से बिहार के उन क्षेत्रों में अपने अनुभव का लाभ दे रहे हैं, जहां स्वास्थ्य की हालत में नितांत सुधार की आवश्यकता है. ओडिसा और दिल्ली […]

यूनिसेफ बिहार में डॉ. घनश्याम शेट्टी की पहचान स्वास्थ्य सेवा में निरंतर सक्रीय रहने वालों में से है. मूल रुप से ओडिसा के निवासी डॉ. शेट्टी गुजरे पांच साल से बिहार के उन क्षेत्रों में अपने अनुभव का लाभ दे रहे हैं, जहां स्वास्थ्य की हालत में नितांत सुधार की आवश्यकता है. ओडिसा और दिल्ली से मेडिकल की शिक्षा ग्रहण कर चुके डॉ. शेट्टी को पढ़ाई के दौरान ही बेस्ट टीचिंग स्टूडेंट के पुरस्कार से नवाजा जा चुका है. राज्य में बच्चों के कुपोषण की हालत और उसमें सुधार की संभावित गुंजाइश को लेकर सुजीत कुमार ने विस्तृत बात की. प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश.

देश में बच्चों की स्वास्थ्य की स्थिति क्या है?
बच्चों की स्वास्थ्य की स्थिति की अलग-अलग तसवीरें हैं. एक माह तक के बच्चे को ‘न्यूबॉर्न’, एक साल तक के बच्चे को ‘इंफैंट’ और पांच साल तक के बच्चे को ‘अंडर फाइव ’ कहा जाता है. एक रिपोर्ट के अनुसार अभी बिहार में न्यूबॉर्न बच्चों की मौत प्रसव के वक्त प्रति हजार 28 है. जबकि देश में यह औसत प्रति हजार 29 है. ये सारी मौतें एक माह के अंदर होती हैं. वैसे ही इंफैंट बच्चों की मौत राज्य में प्रति हजार 43 है, जबकि देश स्तर पर 42 है. अंडर फाइव बच्चों की मौत की रिपोर्ट देश में प्रति हजार 64 है. इन मौतों को रोकने के लिए केंद्र और राज्य सरकार के कई तरह की योजनाएं हैं.

पांच साल तक की उम्र के जितने बच्चों की मौतें होती हैं. उनमें 50 प्रतिशत की मौत एक माह के अंदर होती है. इसलिए सरकार के बहुत सारे कार्यक्रम न्यूबॉर्न बच्चों के लिए केंद्रित होते हैं. ध्येय यही होता है कि अगर न्यूबॉर्न बच्चों का उचित देखभाल होगा तो पांच साल तक के बच्चों की होने वाले मौत पर काफी हद तक रोक लगेगी. अगर रिपोर्ट के आधार पर देखा जाये तो कुल मिला कर पहले दिन में सबसे ज्यादा बच्चों की मौत होती है. सरकार की एक पहल है, इसे एनबीसीसी (न्यूबॉर्न केयर करनल) कहते हैं. यह लेबर रूम में होता है. ध्यान देने वाली बात यह होती है कि मरने वाले ये बच्चे जन्म के बाद रोते नहीं हैं. एनबीसीसी में कई तरह के यंत्र होते हैं. इस यंत्र में जो बच्चे रोते नहीं हैं, उन्हें रखा जाता है. हर स्तर पर कई तरह के प्रोग्राम हैं, लेकिन जागरूकता का अभाव है. कई तरह की बातें सामने आती हैं. कही देखभाल नहीं तो कहीं कुछ और कारण. इस यंत्र को चलाने के लिए स्किल की जरूरत है. एक और बात, दुनिया भर में कही भी डॉक्टर या नर्स के द्वारा प्रसव कराया जाता है. जबकि बिहार में ज्यादातर मामलों में यह काम एएनएम करती हैं. एएनएम का कार्य क्षेत्र में टीकाकरण करने का है. अगर उनसे ही यह कार्य लेना है तो उन्हें सीखाने की जरूरत है. नर्सो की कमी के कारण एएनएम को कार्य पर लगाया जाता है.

राज्य में नर्सिग स्कूलों की हालत पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है. एक और जीवनरक्षक यंत्र है एसएनसीयू ( सीक न्यूबॉर्न केयर यूनिट) राज्य के हर जिले में एक-एक एसएनसीयू की राशि मौजूद है. साल 2010-11 में राज्य के सभी जिलों में न्यूबॉर्न के लिए इसे भेजा गया, लेकिन अभी तक के रिपोर्ट के अनुसार कार्य पूरा नहीं हुआ है, भवन बन गये, लेकिन सब बिना उपयोग के ऐसे ही पड़ा हुआ है. इसे संचालित करने के लिए करीब 800 लोगों को भर्ती करने का प्रावधान था. भारत सरकार ने राशि भी वितरित कर दी थी लेकिन स्थायी और संविदा की नियुक्ति को लेकर मामला फंसा हुआ है. जबकि दूसरे राज्यों ने इसमें तेजी दिखाई. अगर एसएनसीयू सारे जगह बन जाये तो हम प्रति साल करीब 40 हजार बच्चों को मरने से बचा सकते हैं. यूनिसेफ ने लगभग 10-12 जगहों पर कार्य किया. राज्य सरकार के कुछ वरीय अधिकारियों ने दिलचस्पी दिखाई थी लेकिन उनका तबादला दूसरी जगह होने से रफ्तार धीमी पड़ गयी. अगर समुचित देखभाल होता तो अच्छा असर देखने को मिलता. एसएनसीयू बन नहीं रहा, जो बना वह कार्य नहीं कर रहा.

हर गांव में न्यूबॉर्न को बचाने की योजना है. एक से 10 माह तक का समय बच्चों के लिए विशेष होता है. इसे आशा के द्वारा देखने का प्रावधान है. इसमें डेढ़ माह के अंदर छह बार देखभाल करने की जरूरत होती है. जिसके बाद रिपोर्ट देने का प्रावधान है, दुर्भाग्य से यह कार्यक्रम भी उतनी रफ्तार कायम नहीं रख सका. आशा को रखने का कई तरह का प्रावधान है. इन्हें सैलरी नहीं मिलती. प्रसव के लिए चार सौ, ऑपरेशन के लिए सौ रुपये व न्यूबॉर्न के लिए 250 रुपये देने का प्रावधान है. भर्ती प्रक्रिया में भी कुछ अनेदखी हो जाती है. सीधे तौर पर देखा जाये तो जीवनरक्षक कार्यक्रम की कोई कमी नहीं है. अगर कोई आशा बच्चों को देखती है और सेहत में सुधार के लिए अस्पताल भेजती है तो एंबुलेंस की दिक्कत सामने आ जाती है. कई तरह की खामियां है बावजूद बिहार में आईएमआर बहुत कम है. इसका भी एक कारण है. राज्य में निजी क्षेत्र के अस्पताल में इलाज कराना. फिर भी सन् 2010 से अब तक बहुत सुधार हुआ है. अस्पतालों की हालत सुधरी है. दवाइयां मिल रही हैं. कई और जरूरी सुधार हुए हैं. डॉक्टरों की कमी को पूरा किया जा रहा है. बच्चों की मौत का बड़ा कारण डायरिया और न्यूमोनिया जैसे रोग हैं. इससे कैसे बचें? इसके लिए यूनिसेफ अक्तूबर में प्रोग्राम शुरू करेगा. पहले बीसीजी जैसे कम से कम पांच टीके दिये जाते थे, अब इसकी जगह पर ‘ पेंटा वैलेंट वैक्सीन ’ देने की योजना है. ये पांच बीमारियों को खत्म करने की क्षमता रखता है. डायरिया से बचाव के लिए कार्यक्रम शुरू हुआ था. हर बच्चे को ओआरएस और जिंक की गोली देने की योजना थी. लेकिन लोग जागरूक ही नहीं हैं.

बाल मृत्युदर और कुपोषण के रोकथाम के लिए बिहार-झारखंड में सरकारी और सांगठनिक स्तर पर मिल के किस तरह के प्रयास हो रहे हैं?
जो बच्चे डायरिया से प्रभावित होते हैं, वह कुपोषित हो जाते हैं. कोई बच्च डायरिया प्रभावित होता है तो इसके लिए अस्पताल में न्यूट्रिशन रिहाबलिटेशन सेंटर (एनआरसी) की व्यवस्था है. इसमें ग्रेड होता है, एक, दो, तीन, चार कर के. तीन और चार ग्रेड वाले बच्चों को इसमें भर्ती किया जाता है. दिक्कत यह है कि तमाम कोशिशों के बाद भी चाहे जितने भी बच्चे प्रभावित क्यों ना हो. हमारी क्षमता केवल चालीस बच्चों के इलाज करने की है. जबकि दूसरे राज्यों की स्थिति इससे अलग है. अगर हम बच्चों को विटामिन ए की गोली देते हैं तो संक्रमण में कमी आ जाती है. साल भर में दो बार इस तरह का प्रोग्राम चलता है. इसी तरह पेट में कीड़े होते हैं तो इसके लिए साल में दो बार एल्बेंडाजोल की गोली दी जाती है. इन मौतों में एक मुख्य कारण यह है कि कोई भी बच्च बीमारी से कम, संक्रमण से ज्यादा मरता है. संक्रमण को रोकना जरूरी है. अगर डायरिया हो गया तो सफाई पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है. अगर बच्चे को 14 दिनों तक जिंक की गोली देते हैं तो इससे दोनों बीमारियों के होने का खतरा कम हो जाता है. इन दोनों से बच्चे अगर बच जायेंगे तो कुपोषण में कमी आ जायेगी. इसके लिए स्वच्छता, पेयजल पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है.

डायरिया और कुपोषण को रोकने को लेकर सामाजिक जागरूकता का असर क्या है? इसे बढ़ाने के लिए क्या कुछ किया जा रहा है और क्या कुछ हो सकता है?
बहुत कुछ हो सकता है. डायरिया के संदर्भ में बिहार में करीब 70 प्रतिशत परिजन वैसे निजी चिकित्सकों के पास चले जाते हैं, जिसे मूलभूत जानकारी भी नहीं होती. वह डॉक्टर के पास नहीं पहुंच पाते. वहां इनको ओआरएस या जिंक भी नहीं मिलता. परिजन खुद इलाज और दवा के लिए बोलते हैं. लोगों में ऐसी हालात को लेकर जागरूकता लानी होगी. वह सक्षम डॉक्टर के पास जाये. या लोग जो भी दवा ले, उसमें तीन चीजों का ध्यान जरूर रखें. ओआरएस, जिंक और मां का दूध. आमतौर पर यह भी देखा गया है कि बीमार होने पर लोग मरीज को खाना कम देते हैं, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए. ऐसी हालत में खूब खाना होना चाहिए. इसमें मीडिया का भी सहारा जरूरी है. राज्य में एक अधिकारी थे, स्वास्थ्य विभाग में हर पहल को लेकर काफी उत्सुक रहते थे. उन्होंने जनहित के लिए कई योजनाओं को लांच कराया था. इसमें एनजीओ, सीडीओ की मदद ली गयी थी. उनका तबादला हुआ और सारे कार्यक्रम ठप हो गये. एक बात और सप्लाई और डिमांड होनी चाहिए. अगर ओआरएस की मांग है तो उसे मिलना चाहिए. एएनएम की भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए. उनकी जहां नियुक्ति होती है, कोशिश होनी चाहिए वो वहां अपने काम में मुस्तैद रहें. आशा बहू, एएनएम प्रारंभिक कड़ी हैं, इन्हें मुकम्मल जानकारी देनी होगी. विकासमित्र, स्वयं सहायता ग्रुप को भी इन सारे प्रायोजन में जोड़े तो काफी मदद मिल सकती है. क्रांति लानी होगी.

बाल स्वास्थ्य को लेकर सरकारी योजना के कार्यान्वयन में किस तरह की चूक है? इसे दूर करने के लिए क्या सुझाव हो सकते हैं?
मानव संसाधन की कमी बड़ी बात है. बिहार में आबादी के हिसाब से प्रति पांच हजार लोगों पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए लेकिन यह दस हजार लोगों पर है. दूसरे राज्यों में ऐसे हालात नहीं हैं. प्रखंड स्तर पर दूूसरे राज्यों में 30 शैय्या अस्पताल हैं, यहां छह शैय्या है. प्रखंड स्तर से नीचे स्वास्थ्य सेवा को लेकर कोई आधारभूत व्यवस्था नहीं है. जो है वह न के बराबर है. सन् 2013 में एक मिशन बना, मानव विकास मिशन. इसमें 16-17 सोशल इंडिकेटर के अनुसार प्लान मांगा गया. यूनिसेफ से रोड़मैप बना. राज्य की जनसंख्या का घनत्व दुनिया में सबसे ज्यादा है. लेकिन मूलभूत सुविधाओं में उतनी ही कमी हैं. भारत सरकार का स्कीम है, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन. इससे राज्य को लाभ मिला. इसकी राशि केंद्र सरकार देती है. असर दिख सकता है. बस मानव संसाधन को पूरा करने और सोच बदलने की जरूरत है. दूसरे राज्यों में पीएचआई, मैनेजमेंट संस्थान की संख्या ज्यादा है, यहां कम है. ऐसे संस्थानों से काफी मदद मिलती है. बिहार में यूनिसेफ, केयर जैसी ही संस्था मदद कर पाती हैं.

सफाई के प्रति लोगों के सोच और आदत को बदलने की शुरुआत कैसे हो सकता है?
राज्य में जब छठ पूजा की तैयारी होती है तो पूरा पटना एकदम साफ नजर आता है. राज्य के दूसरे हिस्सों में भी यही तसवीर होती है. प्रश्न यह है कि जब छठ पूजा में सफाई हो सकती है तो अन्य दिनों में क्यों नहीं हो सकती है? विदेशों में लोग थुकने के पहले सोचते है. क्योंकि वो जगह साफ सुथरा है. ऐसी जगहों को गंदा करने से पहले लोग सोचेंगे. इस मुहिम में नगर निगम, नगर पालिका सभी को साथ देना होगा. उन्हें सर्तक होने की जरूरत है. लोग गंदे जगह को ही गंदा करते हैं. लोग हैं, तो कूड़ा भी होगा. इस मामले में सभी को गंभीरता से सोचने की जरूरत है. ‘

डॉ. घनश्याम शेट्टी

स्वास्थ्य विशेषज्ञ

यूनिसेफ, बिहार

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें