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आठ बाइ दस के कमरे में हुई वह मुलाकात भूलती नहीं

विनय सौरभ गीता (पत्नी) ने एक दिन दफ्तर से लौटकर बताया कि उसका तबादला गिरिडीह हो गया है. यह 2009 की जुलाई का महीना था. खबर सुनकर मेरा मन एकाएक खिल उठा. उधर गीता परेशान थी, नयी जगह की परेशानियों और आशंकाओं से घिरी. गिरिडीह मेरे बचपन का शहर था. शहर छोड़े हुए 28 वर्ष […]

विनय सौरभ
गीता (पत्नी) ने एक दिन दफ्तर से लौटकर बताया कि उसका तबादला गिरिडीह हो गया है. यह 2009 की जुलाई का महीना था. खबर सुनकर मेरा मन एकाएक खिल उठा. उधर गीता परेशान थी, नयी जगह की परेशानियों और आशंकाओं से घिरी.
गिरिडीह मेरे बचपन का शहर था. शहर छोड़े हुए 28 वर्ष हो गये थे, लेकिन अपना वह मोहल्ला, सरकारी प्राइमरी स्कूल, खपरैल वाला किराये का घर, बचपन के दोस्तों के नाम मेरे भीतर आश्चर्यजनक ढंग से आज भी जीवित थे.
आखिरकार वो दिन भी आ पहुंचा जब मैं गीता को लेकर गिरीडीह आया. उसे दफ्तर में छोड़ अपने उस मोहल्ले में गया. सब कुछ बदल चुका था. अनगिनत मकान और दुकानें. घर के पास के जिन खेतों में हम पतंगें उड़ाया करते थे, अब वहां कंक्रीट के जंगल थे. लेकिन इन सबके बीच हमारा किराये वाला खपरैल घर वैसा ही था. मेरा मन भर आया.
मुझे अपने सहपाठी बसंत की याद आयी. वह हमारे घर के पास ही रहता था. सात-आठ सदस्यों वाला बसंत का परिवार उन दिनों काफी गरीब था. उसके पिता एक सेठ के यहां मुंशी थे और मां आया का काम करती थी. बचपन के अनगिनत यादों में बसंत समाया हुआ था. अपनी निर्धनता के बावजूद वह स्वाभिमानी और निडर लड़का था.
मैं राजेश से मिला, गिरीड़ीह छोड़ने के बाद एक वही था, जिससे मैं पत्रों के जरिये शुरू के कई साल जुड़ा रहा था. संयोग से वह उसी शहर में एक सरकारी नौकरी में लग गया था. मुझे इतने वर्षों के बाद देख कर उसे हैरानी हुई. कुछ देर की बातचीत के बाद मैंने उससे बसंत के बारे में जानना चाहा. जानकर मैं गहरी तकलीफ में भर गया. पता चला कि कई सालों तक दिल्ली- मुंबई में घरों की रंगाई- पुताई का काम करने के बाद अंततः वह इसी शहर में सरिया बनाने वाली एक फैक्ट्री में मजदूर हो गया था. राजेश ने कहा “बस अभी वह इधर से गुजरेगा ही मजदूरों वाली गाड़ी चौराहे पर आ गयी होगी”.
मेरा मन उसे देखने को बेचैन था. मेरे और उसके बीच ‘28 साल’ थे. मैं सड़क पर निकलकर बेचैनी से उसका रास्ता देख रहा था. अचानक वह आता दिखा. उसके शरीर पर साधारण कपड़े थे. एक पुरानी जींस, पालियस्टर की पुरानी शर्ट और हाथ में प्लास्टिक का झोला लिये बसंत सचमुच एक मजदूर ही दिख रहा था. खुशी से कांपते हुए मैंने उसे आवाज दी. वह ठिठका. उसने मुझे गौर से देखा और कहा. ….कौन विनय !
वह मुझे एक ही नजर में पहचान चुका था. एकाएक मेरे भीतर रूलाई फूट पड़ी. मेरे गले लगते हुए वह झिझका. फिर बोला, मुझे हमेशा लगता था कि हम मिलेंगे. बहुत आग्रह से वह मुझे अपने घर लिवा गया जो शहर के किनारे नदी के पास था. घर क्या था, 8 बाई 10 का एक कमरा था. सीलन से भरा. ऊपर टीन की छत‌. किराये के उस कमरे में मुझे काफी झुककर घुसना पड़ा. भीतर उसके अभाव में जीने के प्रमाण बिखरे पड़े थे. मैं नहीं समझ पाया कि इतनी सी जगह में अपने तीन छोटे बच्चों और पत्नी के साथ कैसे बसर करता होगा! पति के साथ अच्छे कपड़ों में एक अनजान आदमी को भीतर आता देख उसकी पत्नी लाज और संकोच से कोने में सिमट गयी थी. एकाएक बारिश तेज हो गयी थी.
मैं जैसे किसी सपने में था. …..दुनिया 28 साल में कितनी बदल गयी थी, पर दुर्भाग्य और गरीबी ने स्वाभिमानी बसंत को वहीं रख छोड़ा था. इस बीच वो बचपन के हम दोनों से जुड़े हुए तमाम प्रसंग अपनी पत्नी को पूरे उत्साह के साथ सुनाता रहा. मैं उसके रहन- सहन और उसके बच्चों को देख कर मन ही मन बेहद दुखी था. पर बसंत ने कहीं से भी अपनी इन स्थितियों के प्रति कोई लाचारी नहीं दिखायी थी. वह हीन भावना में भी नहीं दिखा. वह मुझसे मिलकर इतना खुश होगा, इस अप्रत्याशित स्थिति का मुझे अंदाजा नहीं था.
उसने कहा, “यार, एक जमाने के बाद मिले हैं. आज रात तुम्हें और भाभी जी को यहीं खाना खाना पड़ेगा, चिकन लाता हूं , फिर रात भर बातें करेंगे.” मेरे लाख मना करने के बाद भी वह बारिश में बाजार गया. खाने पीने की चीजें लेकर लौटा. उसके बच्चे पत्नी सब हैरान थे कि जैसे कोई उत्सव हो. मेरा हृदय भर आया.
कविताएं लिखने-छपने के कारण इस देश में मेरे कई दोस्त हैं. न जाने कितनी जगहों पर गया हूं. अच्छी मेहमान नवाजी का मजा लिया है. पर मूसलाधार बारिश के बीच बातों-बातों में कटी वह रात और आठ बाई दस के कमरे में बसंत और उसकी पत्नी के हमारे लिये बनाये गये भोजन में जो प्रेम की उष्मा थी, उसे महसूस करके आज भी आंखें नम हो जाती हैं.

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