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वरुण गांधी ने विशेष बातचीत में कहा- कृषि संकट पर राष्ट्रव्यापी चर्चा की सख्त जरूरत

देश में कृषि संकट गहराता जा रहा है, जिसकी वजह से किसान मुंबई-दिल्ली समेत देश के प्रमुख हिस्सों में कर्जमाफी व न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने जैसी मांगों के साथ प्रदर्शन करते रहे हैं. इससे सरकारी नीतियां सवालों के दायरे में हैं ही, किसानों को कृषि संकट से उबारने के लिए बड़े नीतिगत बदलावों की जरूरत […]

देश में कृषि संकट गहराता जा रहा है, जिसकी वजह से किसान मुंबई-दिल्ली समेत देश के प्रमुख हिस्सों में कर्जमाफी व न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने जैसी मांगों के साथ प्रदर्शन करते रहे हैं. इससे सरकारी नीतियां सवालों के दायरे में हैं ही, किसानों को कृषि संकट से उबारने के लिए बड़े नीतिगत बदलावों की जरूरत भी महसूस की जा रही है.

इसी बीच कृषि संकट समेत ग्रामीण भारत की समस्याओं और उनके समाधान के अध्ययन पर आधारित लोकसभा सांसद वरुण गांधी की किताब ‘ए रूरल मैनिफेस्टोः रियलाइजिंग इंडियाज फ्यूचर थ्रू हर विलेजेज’ आयी है. इसमें उन्होंने खेती, पशुपालन, शिल्प और सरकारी नीतियों का गंभीर विश्लेषण किया है. इस किताब तथा किसानों और गांवों की दशा एवं दिशा को लेकर वरुण गांधी से समाचार संपादक प्रकाश के रे की बातचीत…

Qआपने ग्रामीण भारत को अपनी किताब का विषय क्यों बनाया है?

बीते सालों में मैं अपने संसदीय क्षेत्रों- पीलीभीत एवं सुल्तानपुर- समेत देश के विभिन्न हिस्सों का दौरा करता रहा हूं. इस दौरान मैंने सीमांत किसानों की समस्याओं और मौजूदा बहदाली को नजदीक से देखने-समझने की कोशिश की है.

जब 2009 में मैं पहली बार सांसद बना, तो यह तय किया कि अपना वेतन उन किसान परिवारों को दान करूंगा, जिनमें आत्महत्या की त्रासदी घटी हो. पर, यह बेहद मामूली सहयोग था. साल 2014 के बाद एक मित्र के साथ मैंने एक आर्थिक मॉडल पर काम करना शुरू किया, जिसमें हर पीड़ित परिवार की स्थिति को समझ कर अलग-अलग तरह से सहयोग का खाका बना. हमने कुल 4,672 परिवारों की सहायता की और इस मॉडल से इनमें से 80 फीसदी किसानों को कर्ज के चंगुल से बाहर निकाल पाने में कामयाब हुए.

पर, किसानों की समस्या एक बौद्धिक और भावनात्मक समस्या है तथा इसका कोई सरल समाधान निकाल पाना संभव नहीं है. मेरा मानना है कि हमारे देश में जहां नीति-निर्धारण ग्रामीण निर्धनता, सामाजिक तनाव और अपर्याप्त बुनियादी ढांचा जैसे कारकों के कारण विभाजित है, वहां हमारी प्राथमिकता भविष्य के विकास के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करते हुए ग्रामीण कठिनाईयों को दूर करना होना चाहिए.

स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद भी हमारी 70 फीसदी जनसंख्या गांवों में बसती है और उसका बहुत बड़ा हिस्सा खेती पर निर्भर है. खेती में बढ़ोतरी का सकारात्मक असर अर्थव्यवस्था के समूचे ढांचे पर होता है. कृषि में तीन फीसदी की सामान्य बढ़त सकल घरेलू उत्पादन में 1.7 फीसदी की वृद्धि कर सकती है. मेरी दृष्टि में संकट से मुक्त ग्रामीण भारत देश के भविष्य की संभावनाओं को वास्तविकता में बदलने की आशा और उसके अवसर का प्रतिनिधित्व करता है. मेरी किताब इसी प्रयास में एक हस्तक्षेप है.

Qपिछले कुछ समय से कृषि संकट लगातार गंभीर होता जा रहा है. हाल ही में किसानों द्वारा दिल्ली समेत अनेक जगहों पर बड़े प्रदर्शन हुए हैं.

हमारा ग्रामीण संकट कोई नयी समस्या नहीं है. बड़े मुद्दे दशकों से हमारे सामने हैं. कर्ज के चंगुल को ही लें, तो शोषणकारी सरकारी नीतियां, मौसम की अनिश्चितता और महाजनी बहुत लंबे समय से किसानों के लिए अभिशाप रहे हैं.

साल 1878 में आयी दक्कन रैयत आयोग की रिपोर्ट में एक जगह लिखा है कि कभी-कभार की शादी की तुलना में खाने और अन्य जरूरी चीजों, बीज, बैल, सरकारी आकलन आदि के लिए लगातार लिये जानेवाले छोटे कर्ज किसान को कर्ज के जाल में फंसाने के लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं. ऐसा लगता है कि भारत में किसानों की दशा में शायद ही कोई बदलाव आया है.

किसी सरकार को, चाहे वह आज की हो या पहले की, कोसने के बजाय, हमें ग्रामीण संकट के कारणों को समझने तथा विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से अपनी नीतियों पर पुनर्विचार की जरूरत है. इस प्रयास में लोगों का कल्याण प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए. इस किताब के माध्यम से मेरी कोशिश ग्रामीण संकट पर एक बहस शुरू करने तथा ग्रामीण नीति में बदलाव के बीज बोने की है.

Qइतना व्यापक संकट होने के बावजूद खेती-किसानी, गांवों में रोजगार आदि से जुड़ी समस्याएं चुनाव में बड़े मुद्दे क्यों नहीं बन पाती हैं?

सच्चाई तो यही है कि ग्रामीण संकट वास्तव में एक बड़ा चुनावी मुद्दा है तथा देश के ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से जागरूकता फैलने से इसका महत्व बढ़ता जा रहा है.

इसमें सूचना क्रांति की विशेष भूमिका है. लोग अब सरकार के कामकाज को लेकर अधिक सजग हैं और कुछ मामलों में अच्छे प्रदर्शन के कारण सरकारों को फिर से जनादेश भी मिला है. लेकिन, हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि किसान एक समुदाय के रूप में एक साथ मतदान नहीं करते हैं. यह मात्र एक पहचान नहीं है, बल्कि इसमें कई कारक समाहित हैं. ऐसे में जातिगत और धार्मिक कारण भी मतदान को प्रभावित करते हैं.

Qचूंकि आप एक राजनेता हैं, तो आपकी किताब के कुछ राजनीतिक निहितार्थ भी निकाले जा सकते हैं.

यह किताब बिना किसी राजनीतिक हित या सोच को ध्यान में रखते हुए लिखी गयी है. इसमें किसी चुनावी दृष्टिकोण से कोई समाधान या योजना का सुझाव भी नहीं दिया गया है.

Qग्रामीण आबादी, खासकर किसानों, को राहत देने के लिए आप किन उपायों पर जोर देना चाहेंगे?

एक तो किसानों की आय बढ़ाने पर ध्यान देने की जरूरत है. बाजार को, और बाजार नहीं, तो सरकार को, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसान को उसकी मेहनत का समुचित दाम मिले. किसी उपज की जो कीमत उपभोक्ता चुकाता है और जो किसान कमाता है, इनमें भारी अंतर है. वितरण की प्रक्रिया में मूल्य का बड़ा हिस्सा खप जाता है.

उपज का नुकसान भी चिंता की बात है. हमारे देश में पैदा होनेवाले फलों का 15 से 50 फीसदी भाग बाग से बाजार के बीच खराब हो जाता है. उत्तर प्रदेश का उदाहरण लें. वहां औसतन हर साल दो हजार टन आम की पैदावार होती है, लेकिन भंडारण की क्षमता सिर्फ 70 से 110 टन की है. ऐसे में बर्बादी तो तय है. इस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है.

किसानों की कर्जमाफी तो जरूरी है, पर उनकी मुश्किलें कम करने के और रास्ते भी हैं. कृषि उपकरणों, खाद और कीटनाशकों की खरीद पर अनुदान बढ़ाये जा सकते हैं. राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत चिकित्सकीय बीमा का दायरा बढ़ाया जा सकता है. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के विस्तार का भी विकल्प है. सीमांत किसानों को अपने खेत में काम करने के एवज में भुगतान किया जा सकता है, जिससे उनकी लागत का भार कम हो जायेगा.

ऐसे किसान खेतिहर मजदूरों से काम कराने की क्षमता नहीं रखते हैं और सामाजिक कारणों से दूसरों के खेत में काम करना भी उनके लिए मुश्किल होता है. ऐसे उपायों से आमदनी बढ़ेगी और संकट का असर कम होगा. ऐसी छोटी पहलें किसानों को बड़ी राहत दे सकती हैं. इन उपायों से भी ज्यादा जरूरी कृषि संकट पर राष्ट्रीय चर्चा का होना है.

चंपारण सत्याग्रह जैसे माहौल की कमी है. देश के सीमांत किसानों के साथ सहानुभूति रखते हुए हमें उनकी सहायता के लिए समुचित कदम उठाने ही होंगे. भारत में 72 फीसदी किसान सीमांत और छोटे खेतिहर हैं. ध्यान रहे, कृषि संकट बड़े पैमाने पर सामाजिक अशांति का कारण बन सकता है, इसलिए इसके समाधान को प्राथमिकता देने की जरूरत है. इस प्रक्रिया में हर स्तर पर और हर योजना में विकेंद्रीकरण पर जोर देना होगा.

Qमनरेगा, लाभुकों के खाते में सीधा हस्तांतरण, फसल बीमा, आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं को आप किस तरह से देखते हैं?

यदि विभिन्न सरकारों की योजनाओं में एक योजना को चुनना हो, तो मनरेगा निश्चित रूप से एक बेहतरीन योजना है, जिसने लाखों ग्रामीण परिवारों को अर्थपूर्ण रोजगार देकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर डाला है.

इसने ग्रामीण श्रम बाजार में प्रभावशाली हस्तक्षेप किया है, न्यूनतम मजदूरी बढ़ायी है, ग्रामीण परिवेश की तकलीफों को कम किया है तथा इससे कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. इसके तहत हुए पानी और जमीन के कामों से खेती का इलाका भी बढ़ा है, पानी की उपलब्धता बढ़ी है और जमीन की गुणवत्ता बेहतर हुई है.

जैसा कि मैंने पहले कहा है, इसका दायरा बढ़ाये जाने की जरूरत है. फिलहाल दो फसल बीमा योजनाएं चल रही हैं- प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और मौसम-आधारित बीमा व्याप्ति योजना. फसल बीमा योजना किसान के सामर्थ्य के अनुरूप प्रीमियम होने के कारण काफी सफल है. इसमें 1.5 से पांच फीसदी तक किसान को देना होता है. फिर भी कवरेज, दावों के निपटान और बकाया भुगतान के लिहाज से इसमें चुनौतियां हैं. इससे बीमा कंपनियों को बहुत बचत हो रही है.

साल 2017-18 के खरीफ के मौसम में योजना में शामिल पांच सार्वजनिक क्षेत्र और 12 निजी क्षेत्र की कंपनियों ने प्रीमियम के तौर पर 17,796 करोड़ हासिल किया, लेकिन दावों के निपटान में मात्र 2,767 करोड़ ही किसानों को भुगतान किये गये यानी कंपनियों की बचत 85 फीसदी रही. दूसरी योजना में भी यही हाल रहा है. बीमा क्षेत्र का बंटवारा प्रशासनिक स्तर पर है, इस वजह से गलतियों और भ्रष्टाचार की आशंका बढ़ जाती है. हालांकि, बीमा की व्यवस्था दशकों से है, फिर भी किसान इसे एक खर्च के रूप में ही देखता है.

जब किसान महाजन से कर्ज लेता है, तो इसे नजरअंदाज भी कर देता है. चूंकि दो साल से किसान आत्महत्याओं के आंकड़े जारी नहीं किये गये हैं, इसलिए बीमा योजनाओं के इसमें असर के बारे निश्चित तौर पर कहना मुश्किल है. फिर भी, किसान को फसल के खराब होने के खतरे से उबारना बहुत जरूरी है.

लाभुकों के खाते में राशि के हस्तांतरण और जन-धन योजना से इसे जोड़ना एक बेहतर उपाय है, लेकिन इसमें तीन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए- लाभुकों की सही पहचान, समय से हस्तांतरण और इसका लाभ उठा पाने के ठीक इंतजाम. किस क्षेत्र में इस योजना को लागू करना है, इसका भी ख्याल होना चाहिए. ग्रामीण इलाकों में बैंकिंग की सुविधा का अभाव भी गंभीर समस्या है. पांच किलोमीटर के भीतर बैंक शाखा सिर्फ 27 फीसदी आबादी को ही मयस्सर है. वहीं सड़कों की खराब दशा भी एक समस्या है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के मामले में छत्तीसगढ़ का उदाहरण अनुकरणीय है, जहां चावल मिल मालिकों और राशन दुकानदारों के गठजोड़ को तोड़ा जा सका है.

डेढ़ लाख स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना तथा दस करोड़ परिवारों को पांच लाख का बीमा देने के इरादे के लिए आयुष्मान भारत योजना की सराहना की जानी चाहिए. यह योजना स्वास्थ्य सेवा और रोजगार के क्षेत्र में बहुत व्यापक योगदान कर सकती है. परंतु मौजूदा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में कार्यरत लोगों की कम संख्या और बजट में कटौती बड़ी चुनौती है. चूंकि स्वास्थ्य राज्य का विषय है, तो राज्य-स्तरीय योजनाओं के साथ इसे जोड़ना एक जटिल प्रक्रिया होगी. इस योजना और राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना में आउटपेशेंट खर्च को भी कवरेज दिया जाना चाहिए. इस योजना की सफलता के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में निवेश बढ़ाने की जरूरत है.

अनेक योजनाओं के साथ कुछ अतिरिक्त चीजें भी जोड़ी जानी चाहिए, जैसे- उज्ज्वला योजना जैसी सफल योजना के साथ गोबर गैस संयंत्रों पर भी जोर होना चाहिए. किताब में इन बातों पर विस्तार से चर्चा की गयी है.

Qपर्यावरण की चिंता भी देश के सामने है. नदियों को जोड़ने की बातें होती रहती हैं. इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है?

देखिए, पर्यावरण और विकास को अलग-अलग देखने की जरूरत नहीं है.ये दोनों साथ चल सकते हैं. नीति-निर्धारण की प्रक्रिया में हमेशा से पर्यावरण की चिंता मुख्य बिंदु रही है. कानूनों को मजबूत कर और उनके पालन को सुनिश्चित कर उद्योग और पर्यावरण के संतुलन को बरकरार रखा जा सकता है. औद्योगिक विकास के केंद्र में सतत विकास होना चाहिए और यह पर्यावरण की रक्षा से ही हासिल किया जा सकता है.

नदियों को जोड़ने के मसले में बड़ी खामियां हैं. इससे बजट पर भारी दबाव पड़ेगा तथा पारिस्थितिकी का भयावह विनाश होगा, जिसका अनुमान भी लगाना संभव नहीं है. नदियों को जल आपूर्ति का साधन समझना और अपनी मर्जी से काटना, जोड़ना एवं उनके रास्ते बदलना एक तकनीकी घमंड है तथा पवित्र नदियों के साथ हिंसक आचरण है.

एक आवश्यक हस्तक्षेप

स्वतंत्र भारत के सात दशकों के इतिहास में ग्रामीण क्षेत्रों और किसानों के विकास के लिए कई योजनाएं और नीतियां लागू की गयी हैं. इनका लाभ भी ग्रामीण भारत और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मिला है, किंतु किसानों और खेती पर निर्भर बड़ी आबादी आज भी संकटग्रस्त है.

कर्ज न चुका पाने, उपज का उचित दाम न मिलने और तबाह फसल का सही मुआवजा न मिलने के कारण ही किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं. ऐसी स्थिति में नीति-निर्धारण की प्रक्रिया पर पुनर्विचार की आवश्यकता है. सांसद वरुण गांधी ने देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों के अनुभव, कार्यक्रमों से जुड़ी सूचनाओं और आंकड़ों तथा गहन शोध के आधार पर लिखी गयी किताब के जरिये राष्ट्रव्यापी चर्चा का आह्वान किया है. इस किताब की मुख्य चिंता किसानों की आमदनी बढ़ाना तथा ग्राम्य आर्थिकी को स्थायी स्वावलंबन देना है.

ग्रामीण जीवन के विभिन्न आयामों को ध्यान में रखते हुए लेखक ने न केवल किसानों और अन्य ग्रामीणों के भविष्य की प्रस्तावना रखी है, बल्कि समूचे देश के आनेवाले कल की बेहतरी का प्रारूप भी प्रस्तुत किया है. वरुण गांधी का यह अध्ययन राजनेताओं, नीति-निर्धारकों, शोधार्थियों तथा किसान संगठनों के लिए एक ठोस संदर्भ ग्रंथ है. इस किताब का हिंदी संस्करण जल्द ही उपलब्ध होगा.

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