गांधी और उनके ग्राम स्वराज के सपने पर नयी दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष और प्रसिद्ध गांधीवादी राधा भट्ट्र से पंचायतनामा के लिए संतोष कुमार सिंह ने
बातचीत की. प्रस्तुत है प्रमुख अंश :
अक्सर इस बात पर चर्चा होती है कि भारत गांवों का देश है, देश की प्रगति तभी संभव होगी जब गांवों की प्रगति होगी? लेकिन वास्तविकता के धरातल पर इस चर्चा को कितनी जगह मिल पायी है? और, गांधी के ग्राम स्वराज की दिशा में हम कितना कदम बढा पाये हैं?
भारत गांवों का देश है और देश की प्रगति तभी संभव होगी जब गांवों की प्रगति होगी. लेकिन यह तो सर्वव्यापी तथ्य है. इसमें चर्चा की जरूरत कहां है, इस पर तो काम किये जाने की जरूरत है. जब पंचायती राज संस्थाओं को लागू किये जाने की बात हो रही थी, तो लगा था कि गांधी के ग्राम स्वराज की संकल्पना पूरी होगी. लेकिन पंचायती राज संस्थाओं के कार्यान्वित होने के बाद ऐसा नहीं हो पाया. क्योंकि गांव तभी सशक्त होंगे जब बुनियादी स्तर पर योजनाएं बनायी जायें. जबकि आज अधिकार केंद्र सरकार के हाथ में है. सारा हलन-चलन उनके हाथ में है. पंचायतों को 29 विषयों पर काम करने का अधिकार है, लेकिन इन विषयों के अंतर्गत होने वाले कार्यो पर निर्णय लेने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है. इस लिहाज से देखें तो सही अर्थो में ग्राम स्वराज केवल सभा-संगोष्टियों में चर्चा का विषय मात्र बन कर रह गया है.
तो फिर ग्राम स्वराज किस तरह से हासिल किया जा सकता है?
देखिए, स्वराज का मतलब है, अपना राज. इस अर्थ में ग्राम स्वराज पाने के लिए हमारे अनुसार तीन शर्त है. पहला, ग्रामीण जीवन से जुड़े संसाधन मसलन जल, जंगल, जमीन, खनिज प्रबंधन का अधिकार गांव को दिया जाना चाहिए. इससे उनके पास संसाधन आयेगा और केंद्र या राज्य पर उनकी निर्भरता कम होगी. यह ग्राम स्वराज की दिशा में पहली शर्त है. जबकि इसके उलट आज विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की लूट मची हुई है. होना यह चाहिए था कि प्राकृतिक संसाधन किसानों, मजदूरों और कारीगरों के हाथ में हो.
दूसरा, ग्राम स्वराज तभी आयेगा, जब गांवों में पार्टी आधारित राजनीति को खत्म किया जाये. ग्रामसभा का एक सदन हो जो खुद कानून बनाये, और उसे कार्यान्वित करे. पंचायती राज के जरिए गांवों में पार्टी तंत्र का प्रवेश तो हो गया है, लेकिन उनके पास अधिकार कुछ नहीं है. ये सब ग्राम स्वराज के रास्ते में रुकावट पैदा कर रहे हैं.
तीसरा, महात्मा गांधी और विनोबा भावे दोनों ने ही कहा है कि हमारे गांवों पार्टी लेस तंत्र हो, और ग्राम विकास के फैसले सर्वानुमति से लिये जायें, या कम से कम किसी भी फैसले में 80-90 फीसदी लोगों की राय जरूर हो, तभी ग्राम स्वराज का सपना धरातल पर हकीकत में बदल सकता है.
बात गांव के विकास की होती है, लेकिन नीतिगत स्तर पर कॉरपोरेट को बढ़ावा देने वाले फैसले लिये जाते हैं. उत्पाद का दाम किसान के बजाय उद्योगपति तय करता है. जब पूरे देश में ऐसा वातावरण बनेगा तो गांव कैसे बचेगा. गांव बचेगा तभी देश बचेगा. लेकिन लगातार छह-सात दशकों की उपेक्षा की वजह से गांवों की हालत खराब हो गयी है. पहले अधिकार मिलेगा तभी ग्राम स्वराज आयेगा. ऐसी नीतियों के रहते गांव वालों का सहयोग कभी नहीं मिलेगा, क्योंकि योजना तय करने में उनकी कोई भूमिका नहीं होती.
कहा तो यह जाता है कि देश में पंचायती राज संस्थाएं बेहतर तरीके से काम कर रही है? पंचायतें अपना फैसला अपने चुने हुए पदाधिकारियों के जरिए ले रही हैं?
मुश्किल यही आ रही है. आज जब हम ग्राम स्वराज की बात करते हैं तो सरकार कहती है, पंचायती राज तो है. ग्राम सभा 18 वर्ष या उससे ऊपर की उम्र के वयस्क लोगों की सभा है. जबकि पंचायत चुने हुए प्रतिनिधियों की सभा है. यह भी नियत कर दिया गया है कि ग्राम सभा की बैठक नियमित अंतराल पर होगी. मेरी राय है कि आखिर यह समय क्यों नियत किया जाये. ग्राम सभा को जब जरूरत होगी तब वह बैठेगी. पंचायती राज में बात तो गांव के विकास की हो रही है, लेकिन ग्रामवासियों की राय को प्रमुखता नहीं मिलती. गावं वासियों को पानी चाहिए तो सड़क बनवा रहे हैं. स्कूल चाहिए तो तालाब खुदवा रहे हैं. ग्रामसभा की प्रमुखता नहीं है, पंचायत की प्रमुखता है. इसीलिए टकराव की स्थिति है. ग्रामसभा एक बहुत ही सशक्त इकाई है. ग्रामसभा का मजबूत होना पंचायती राज व्यवस्था ही नहीं लोकतंत्र के मजबूती का भी द्योतक है. ग्राम सभा के जरिए पंचायतों पर दबाव बनाया जा सकता है. लेकिन अभी भी ग्रामसभाओं को मजबूत नहीं किया जा सका है.
कई राज्यों में महिलाओं को पंचायती राज में 50 फीसदी आरक्षण दिया गया है. जबकी संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिये जाने की मांग पर राजनीतिक दल लंबे समय से टालमटोल का रवैया अख्तियार करते रहे हैं?
महिलाओं को पंचायती राज और नगर निकायों में 50 फीसदी आरक्षण दिया जाना अच्छी बात है. लेकिन इसके साथ ही उनको प्रशिक्षित करने, उनकी समझदारी बढ़ाने का उपाय भी किया जाये तो अच्छी बात होगी. गांवों मे घूमने पर यह पता चलता है कि ज्यादातर महिलाओं को उनको प्राप्त अधिकारों के विषय में जानकारी ही नहीं है. हो भी कैसे आज तक तो कुछ करने नहीं दिया, और सिर्फ अधिकार दे दिया गया. उत्तराखंड में पंचायती राज से जुड़ी महिलाओं को प्रशिक्षण देने के लिए शिविर लगाए गये हैं. अन्य जगहों पर भी ऐसा किया जाना चाहिए. जब हम परिवर्तन की संभावना बनाए रखेंगे, तब सही अर्थो में उनकी शक्ति सामने आयेगी. इसके साथ ही पुरुषों को भी अपनी मानसिकता बदलनी होगी. ज्यादातर गांवों में पूछने पर कई लोग अपना परिचय देते हैं कि वे मुखिया पति, सरपंच पति हैं, अर्थात वे चुने हुए प्रतिनिधियों को भी उनके अधिकार देने को तैयार नहीं है. जब तक पुरुषों की मानसिकता नहीं बदलेगी, तबतक स्त्रियों में भी बदलाव नहीं होगा. इसी तर्ज पर अगर संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया जाये तो निश्चित रूप से महिलाओं का सशक्तीकरण होगा, लेकिन साथ ही इनको प्रशिक्षण दिया जाना भी जरूरी है.
इसका मतलब तो यही हुआ कि पंचायती राज के जरिए महिलाओं के सशक्तीकरण में मदद नहीं मिली है?
नहीं, ऐसा नहीं है. समस्या नीतियों के निर्धारण को लेकर है. नीतियां विरोधाभाषी हैं. महिलाओं के विकास के लिए सिलाई-कढ़ाई या अन्य प्रशिक्षण दिये जा रहे हैं. जबकि उत्तराखंड जैसे इलाकों में जमीन या जल जिसके जरिए महिलाएं खेती करती हैं, उसको छीना जा रहा है. ऐसा किये जाने की वजह से ही जहां-तहां संघर्ष देखने को मिल रहा है. महिला सशक्तीकरण तब आयेगा, जब आजीविका का साधन उनके हाथ में हो.
देश के ज्यादातर नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकार विकास का काम करने की कोशिश कर रही है. फिर भी देश का एक बड़ा हिस्सा नक्सली दहशत में जीवन यापन कर रहा है?
इसके पीछे भेदभाव जिम्मेवार है. अगर नक्सलियों को अलग-अलग इलाकों में समर्थन मिल रहा है, तो इसका मतलब यही है कि जनता में उनकी पैठ है. नक्सलियों द्वारा उठाये गये मुद्दे सही हैं, लेकिन लक्ष्य को हासिल करने के लिए जो तरीका उन्होंने अपनाया है वह गलत है. हिंसा से कोई रास्ता हासिल नहीं हो सकता. कुछ लोगों को मार कर भले ही उन्हें खुशी मिल जाये, लेकिन लक्ष्य हासिल नहीं हो सकता.
देश एक बार फिर से आम चुनाव के दहलीज पर खड़ा है? प्रत्येक चुनाव के वक्त नेता व दल गांवों में जाते हैं, और गांवों की खुशहाली और उनको आत्मनिर्भर बनाने की बात कहते हैं?
मैनें पहले ही कहा है कि गांवों को पार्टी लेस होना चाहिए. इस राजनीति ने गांवों की एकता तोड़ दी है. पार्टीबाजी और वैश्विकरण के कारण जिस तरह की विषमता गांवों में बढ़ी है, इससे गांवों की आर्थिकी पूरी तरह से तहस-नहस हो गयी है. गांव एक नहीं हैं, यही सबसे बड़ा कष्ट है. पहले के नेता कहते थे, कि हम सब कुछ तुम्हारे लिए करेंगे. गांव वाले भी गांव को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हर संभव प्रयास करते थे. लेकिन आज नेता कहता है कि तुम कुछ मत करो सरकार तुम्हारे लिए सबकुछ करेगी. जो भी मसला आया, सबकुछ सरकार पर छोड़ दिया जाता है. जिसके आधार पर गांव आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो सकते हैं, उसके लिए कुछ भी नहीं किया जाता. सरकार सारी सत्ता अपने हाथ में केंद्रित रखना चाहती है. होना यह चाहिए था कि गांवों से जो लगान का पैसा आता है, उसे गांव विकास पर खर्च किया जाये. उन्हें उस पैसे को अपने मनमुताबिक खर्च करने का अधिकार दिया जाना चाहिए. गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के बजाय गांव उजाड़े जा रहे हैं.
चुनाव के मौके पर देश का हर दल खुद को गांधीवादी बता रहा है, गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करने की बात कह रहा है?
इनमें से कोई भी गांधीवादी नहीं है. अगर वे गांधी बनेंगे तो सत्ता के होड़ में नहीं पड़ेंगे. यहां तक की आम आदमी की बात करने वाले भी सत्ता की होड़ में हंै. आजादी के आंदोलन में सफलता मिलने के बाद गांधी ने कांग्रेस को समाप्त करने की बात कही थी. जब हमारे देश के राजनीतिक दलों की नीतियां गांधीवादी नहीं हैं, तो केवल गांधी की भाषा बोलने से कोई कैसे गांधीवादी हो सकता है.
राधा भट्ट
अध्यक्ष, गांधी शांति प्रतिष्ठान
नयी दिल्ली