गाजा विश्व के सबसे अशांत क्षेत्रों में से एक है. यहां की 42 फीसदी जनता बेरोजगार है, जो विश्व में सबसे अधिक है. यहां पर श्रमिकों में महिलाओं की हिस्सेदारी मात्र 15% है. लेकिन, इस इलाके की कई महिलाएं वर्कफोर्स में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए घर की चौखट लांघ रही हैं और उन क्षेत्रों में काम कर रही हैं जो आज तक सिर्फ पुरुष ही करते आये थे.
पढ़िए ऐसी ही तीन महिलाओं की कहानी, जिन्होंने अपने परिवार की खातिर उन क्षेत्रों में काम करने की हिम्मत जुटायी, जहां चौबीसों घंटे बम और गोलियों की बरसात होती है. इन तीन महिलाअों का जीवन संघर्ष भारत समेत सभी देशों की महिलाओं के लिए प्रेरक है.
* स्कूल की बस चलाती हैं साल्वा सरूर, बच्चे बुलाते हैं अंकल साल्वा
गाजा में स्कूल जानेवाले बच्चे अपने स्कूल बस की महिला ड्राइवर को प्यार से अंकल साल्वा बुलाते हैं. इसके पीछे बच्चों की यही मासूम सोच है कि बस सिर्फ और सिर्फ अंकल यानी पुरुष ही चला सकते हैं. वैसे अंकल साल्वा का असली नाम साल्वा सरुर है. साल्वा बताती हैं कि अपने परिवार के लिए उन्होंने परंपरा को तोड़ा और खुद बस चलाने का फैसला किया.
साल्वा हर दिन सुबह 6.30 में उठकर अपनी 1989 मॉडल फॉक्सवैगन बस को लेकर गाजा शहर की गलियों में निकल जाती हैं और बच्चों को उनके घरों से पिक करके स्कूल छोड़ती है़ं यह स्कूल 2005 में साल्वा ने ही अपनी बहन सजदा के साथ मिल कर शुरू किया था. शुरुआती दौर में बच्चों को लाने व पहुंचाने के लिए एक बस चालक को उन्होंने नौकरी पर रखा था. वह बस चालक कभी भी सही समय पर नहीं आता था. उसे जब भी कॉल किया जाता था तो उसके पास बहाना मौजूद रहता था. बच्चों के अभिभावकों की भी शिकायत रहती थी कि उनके बच्चों की स्कूल बस कभी भी समय पर नहीं आती है. इस कारण उन्हें काफी परेशानी होती है. इस रोज-रोज की परेशानी से तंग आकर साल्वा ने खुद बस चलाने का फैसला किया. इसके बाद सबकुछ समय पर होने लगा और तब से आज तक साल्वा खुद से बस चलाकर अपने स्कूल के बच्चों को घर से लाने और छोड़ने जाती है.
साल्वा बताती है कि उन्हें शुरू से ड्राइविंग का जुनून था. जब वह 16 साल की थी तब अपनी दादी की कार चुपके से चुरा कर चलाने के लिए लेकर चली जाती थीं. ऐसे ही उन्होंने कार चलाना सीखा था. उन्होंने स्नातक के बाद ड्राइविंग लाइसेंस लिया था. उस समय उनके साथ कुछ और महिलाओं ने कार चलाने के लाइसेंस के लिए आवेदन किया था. साल्वा बताती हैं कि आज एक महिला को बस चलाते हुए देखकर लोगों को हैरत महसूस होती है, लेकिन मेरा यह काम मेरी जैसी अन्य महिलाओं के लिए प्रेरणादायक है जो उन्हें अपने परिवार के लिए परंपराओं को तोड़ते हुए कुछ कर गुजरने की ऊर्जा प्रदान करती है.
* पिता बीमार हुए तो कॉलेज की छात्रा खुल्लब बन गयीं मछुआरा
गाजा में हालात ऐसे हैं कि, घर से बाहर निकलने के बाद वापस सही सलामत लौटने की गारंटी नहीं रहती है. यहां किसी भी पल कुछ भी हो सकता है. ऐसे माहौल में घर से पांच मील दूर जाकर दिन भर काम करना सचमुच जोखिम भरा है. लेकिन, 22 साल की खुल्लब को काम करना है. इसलिए उनके मन में डर नहीं है. खुल्लब गाजा में जिंदादिली की मिसाल हैं.
खुल्लब ने एक दशक पूर्व अपने पिता के स्पाइनल कोर्ड खराब हो जाने के बाद उनके पेशे को मछुआरे के रूप में करना शुरू किया और अपने परिवार की कमाऊ सदस्य बन गयीं. खुल्लब और उनके दोनों छोटे भाई अहले सुबह तीन से पांच बजे के बीच समुद्र में जाल लगाने उठ जाते हैं. खुल्लब गाजा की पहली और एकमात्र मछली पकड़ने वाली महिला हैं. खुल्लब बताती हैं कि यह काम काफी मुश्किल है. आपको पता है कि आपको क्या पकड़ना है, लेकिन आप नहीं जानते आपको आज क्या मिलेगा. यह काम भाग्य पर अधिक निर्भर करता है. क्योंकि इजराइल ने गाजा के जल क्षेत्र को सीमित कर दिया है.
ओस्लो एग्रीमेंट के अनुसार गाजा के मछुआरों को सिर्फ छह नौटिकल माइल तक का क्षेत्र मिला है. उसमें भी मछली पकड़ने का क्षेत्र सिर्फ एक तिहाई क्षेत्र ही आवंटित है. इसलिए अक्सर समुद्र में हर दिन काफी कुछ नहीं मिल पाता है और खुल्लब को कभी-कभी दिनभर की मेहनत के बाद खाली हाथ वापस आना पड़ता है. सुबह-सुबह डॉक पर बादल भरे आसमान के नीचे समुद्र तट पर सैकड़ों नौकाएं बेकार रूप से खड़ी रहती हैं. गाजा की चौपट अर्थव्यवस्था ने मत्स्य उद्योग को बुरी तरह से प्रभावित कर दिया है.
2000 में जहां मछुआरों की संख्या 10000 थी, पिछले साल तक घट कर 4000 हो गयी. ठंड में हालात और भी खराब हो जाते हैं. उस समय मछलियां नहीं मिलती हैं. इस तरह प्रत्येक दिन औसतन देखा जाये तो खुल्लब की आय 2.60 डॉलर मछली से हो पाती है. खुल्लब बताती है कि यह काम बहुत खतरनाक है. मैं कॉलेज इसी उम्मीद से जाती हूं कि मछली के व्यापार से इतर भी जीवन यापन का कोई रास्ता मिले.
* हथौड़े की चोट से अपनी किस्मत गढ़ रही हैं आयशा
गाजा बंदरगाह से तीन किलोमीटर दूर एक अस्थायी टेंट के नीचे 37 वर्षीय आयशा इब्राहिम अपनी 15 वर्षीय बेटी के साथ लोहे को भट्ठी में गर्म कर हथौड़े की चोट से आकार देने की कोशिश कर रही हैं. वहीं दूसरी बेटी भाती चलाकर भट्ठी की आग को बनाये रखने में मदद कर रही है. यह दृश्य बयां करती है कि कैसे गाजा की एकमात्र महिला लोहार अपने सात बच्चों के पालन पोषण के लिए एक मुश्किल भरी जिंदगी जी रही है. पिछले बीस साल से आयशा अपने पति के साथ गाजा की गलियों से लोहे व धातु के टुकड़े को चुनकर उसे आग में गलाकर कुल्हाड़ी, चाकू, रसोइयी के सामान व अन्य उपकरण का आकार देने का काम कर रही है. इसे बाजार में बेचकर जो पैसे आते हैं, उसी से आयशा का परिवार चलता है. आयशा को एक सामान बनाने में तीन दिन का समय लग जाता है और एक दिन में तीन से छह डॉलर की आमदनी होती है.
आयशा बताती है कि अब यह पूरा काम वह अकेले करती है, क्योंकि उनके पति की हाथ खराब हो गयी है. एक शाम करीब 150 किलो का लोहे का टुकड़ा उनके हाथ पर गिर गया था. वह रात बहुत ही डरावनी थी. हमारे पास उन्हें हॉस्पिटल ले जाने व एंबुलेंस बुलाने के पैसे नहीं थे. हम सड़क किनारे असहाय से पड़े हुए थे. तभी एक आदमी ने कार में हमें लिफ्ट दी और अस्पताल तक पहुंचाया. अस्पताल में हमलोगों को पूरी रात रुकने को कहा गया, लेकिन हमलोग वहां से निकल गये, क्योंकि हमारे पास इलाज के पैसे नहीं थे.
पूरे दिन की जद्दोजहद के बाद ही आयशा शाम में अपने बच्चों के सामने खाना परोस पाती है. आयशा बताती हैं कि यह पेशा उसने अपने पिता से सीखा है और जीवनयापन के लिए इसके सिवा उसे और कुछ नहीं आता है. आयशा की स्थिति इतनी दयनीय है कि उसके पास रहने को अपना माकान भी नहीं है. सड़क किनारे किसी तरह अस्थायी टेंट लगाकर वह अपना काम करती है और वह जिस अपार्टमेंट में रहती है, वहां के मकानमालिक उसकी स्थिति देखकर निशुल्क रहने की छूट दे दी है.
(अलजजीरा से साभार)