वासुदेव चक्रवर्ती
शारदीय दुर्गापूजा बंगाली समुदाय का प्रधान व महत्वपूर्ण पूजा है. सिर्फ बंगाल ही नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतवर्ष में दुर्गा पूजा का आयोजन होता है. मां दुर्गा की पूजा भक्तिपूर्वक करने से अश्वमेध यज्ञ के समान सुफल की प्राप्ति होती है. ब्रह्मबैवर्त पुराण के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में श्री कृष्ण ने भगवती देवी की पूजा की थी. तत्पश्चात मधु एवं कैतभ नामक दो असुरों से भयभीत होकर प्रजापति ब्रह्मा ने इन दोनों असुरों के विनाश के लिए देवी दुर्गा की आराधना की . इस प्रकार त्रिपुरासुर के भय से त्रिपुरारि महादेव ने देवी पूजा के द्वारा उसका विनाश किया और अंतत: महामुनि दुर्वासा के शाप से अभिशापित देवराज इंद्र ने देवी महामाया की पूजा के द्वारा पुन: स्वर्ग राज्य को प्राप्त किया.
इस प्रकार हम देखते है कि देवी महामाया की असीम महिमा एवं शक्ति की आराधना देवलोक से ही प्रारंभ हुई. धीरे-धीरे इसका प्रभाव भारत वर्ष पर पड़ा. भारतवर्ष में सर्वप्रथम वसंतकालीन दुर्गापूजा महाराज सुरथ ने की एवं अमर हो गये. रघुकुल तिलक श्री रामचंद्र ने रावण वध के लिए असमय ही इस पूजा का आयोजन किया जिसके फलस्वरूप आज भी यह पूजा अकाल-बोधन पूजा के नाम से प्रसिद्ध है.
नवरात्र भारतवर्ष के प्राय: सभी प्रांतों में मनाया जाता है . बंगाल में यह दुर्गोत्सव तथा पश्चिम में नवरात्र के नाम से प्रसिद्ध है. संपूर्ण भारत में लोग आश्विन महीने के शुक्ल पक्ष के प्रतिपद तिथि से शुक्ल नवमी तक देवी की आराधना करते है. प्रतिपद तिथि में श्री श्री चंडी की पूजा का प्रारंभ क्रमश: कलश स्थापना, पूजा, प्रतिदिन चंडी पाठ एवं विशेषत: नवमी तिथि में उपरोक्त सभी पूजा के अंत में होम अर्थात हवन के पश्चात कलश विसर्जन के द्वारा इस नवरात्रिक दुर्गोत्सव की समाप्ति होती है.
काशी, कामरूप तथा श्री क्षेत्र इत्यादि तीर्थ स्थानों में इस अवधि में देवी की पूजा तथा आराधना के रूप में चंडी पाठ का प्रचलन है. कश्मीर, कान्यकुब्ज, राजपूताना, गुजरात और बंगाल में नवरात्र का यह व्रत विभिन्न नामों से अनुष्ठित होता है.
कश्मीर में अंबा देवी, कान्यकुब्ज में कल्याणी, राजपूताना में भवानी, गुजरात एवं हिमालय रुद्राणी की तथा बंगाल में श्रीश्री दुर्गा पूजा के नाम से यह विख्यात है . दक्षिण देश के प्राय: सभी जगह नवरात्रि में देवी अंबिका की पूजा की जाती है.
शैलपुत्री नवदुर्गा के नवरूपों का प्रथम रूप है. पूर्व जन्म में मां दुर्गा सती के नाम से प्रजापति दक्षराजा की कन्या थी. महादेव के साथ इनका विवाह हुआ. राजा दक्ष ने एक महायज्ञ का आयोजन किया जिसमें उन्होंने भगवान शंकर को छोड़कर सभी देवताओं का आह्वान किया. जिससे सती अत्यंत दु:खी होकर बिना आमंत्रण के यज्ञस्थल में जाकर अपने पिता के मुख से पति की निंदा सुनकर अत्यंत व्यथित होकर उस हवन में अपने शरीर को भस्म कर दिया.
क्रोधित महादेव ने वीरभद्र नामक एक महासुर को भेजकर उस शिवरहित यज्ञ का ध्वंस किया . सती ने द्वितीय जन्म लिया . शैलराज हिमालय के कन्या के रूप में जन्म लेने के कारण शैलपुत्री के नाम से प्रसिद्ध हुई एवं भगवान शंकर की गृहिणी बनी.
द्वितीय ब्रह्मचारिणी : ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ होता है – तपस्या, ब्रह्मचारिणी का अर्थ है. ब्रह्मचर्य अर्थात संयमित जीवन के द्वारा तपस्या का आचरण करने वाली मां. हिमालय के कन्या के रूप में जन्मलेने वाली सती भगवान शंकर को पति के रूप में पाने के लिए कई वर्षों तक अनाहार रहकर कठिन तपस्या की और अंतत: उनको पति के रूप में प्राप्त किया.
मां दुर्गा के तृतीय नवशक्ति का रूप चंद्रघंटा है जो नवरात्र के तीसरे दिन मां को इस रूप में पूजा होती है. देवी के मस्तक पर घंटा के सदृश अर्द्धचंद्र सुशोभित होता है. इस रूप के कारण ही देवी चंद्रघंटा के नाम से प्रसिद्ध है. इनकी अराधना करने से साधक के पापों का एवं विघ्नों का नाश होता है. मां का चतुर्थ स्वरूप कुष्मांडा के रूप में पूजा की जाती है. इस रूप में देवी सूर्य के समान देदीप्यमान हैं एवं वह देवी सूर्यमंडल के अंतराल में निवास करती हैं.
पंचमरूप स्कंदमाता का है. स्कंद भगवान कार्तिकेय का एक और नाम है. स्कंद की माता होने के कारण मां स्कंदमाता बनी. मां का षष्ठम रूप कात्यायनी है. महर्षि कत के पुत्र का नाम है-कात्य, कत्यागोत्र में विख्यात कात्ययण ऋषि का जन्म हुआ. ऋषि ने वर्षों तक तपस्या करने के पश्चात मां भगवती को कन्या के रूप में पाया.
महिषासुर के अत्याचार से देवतागण पराजित एवं स्वर्ग-च्यूत होने पर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर अपने-अपने तेज द्वारा एक देवी मूर्ति को महिषासुर के विनाश के लिए सृष्टि किया. ऋषि कात्यायन के द्वारा सर्वप्रथम यह देवी पूजित होकर कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध हुई.
दुर्गा का सप्तम रूप कालरात्रि है. कालरात्रि के रूप में मां दुर्गा, घोर श्याम वर्णा, मस्तक पर केश अविन्यरत अर्थात बिखरा हुआ एवं कंठ में विद्युत के समान चमकता हुआ कंठहार. उनके विस्फारित चक्षुत्रय से क्रमश: भोजन तेजोरश्म एवं श्वास-प्रश्वास से भयंकर अग्नि निर्गत होता है. मां चतुर्भुजा हैं. इनके वाहन है-गर्धभ, मां कालरात्रि के दोनों दक्षिण बाहु वर एवं अभय दान की मुद्रा में है एवं अपर दो बाहुद्वारा मा लौहदंड तथा खड्ग धारण की मुद्रा में.
दुर्गा का अष्टम रूप महागौरी है. मां शंख के समान एवं चंद्र के समान उज्जवल. इनके वस्त्र तथा सभी अलंकर भी चंद्र के समान उज्जवल है, देवी चतुर्भुजा तथा वृषभवाहन है, इनके भी दोनों दक्षिण हस्त अभय प्रदान तथा त्रिशूल को धारण करती है तथा वामहस्त में डमरू तथा वरदान है.
मां का नवम रूप सिद्धिदात्री है: नवशक्ति की यह सिद्धिदात्री रूप साधक या भक्त के सभी प्रकार की सिद्धि प्रदान करता है, भगवान शंकर देवी की कृपा से सर्वसिद्धि लाभ करते हैं एवं मां की ही कृपा के द्वारा महादेव की अर्धशरीर देवी की रूप को धारण किया, इसलिए महादेव अर्धनारीश्वर के नाम से विख्यात है.
कलश विसर्जन का मंत्र:
ऊं गच्छ गच्छ परम स्थानम स्वस्थानं परमेश्वरी
संवत्सरे व्यतीत तु पुनरागमनाय च..
अर्थात. हे परमेश्वरी आप अपने स्वस्थान अर्थात श्रेष्ठ स्थान सम्मान के साथ गमन करें एवं वर्ष के अंत में आपका पुन: आगमन है.