– सुमन श्रीवास्तव –
कुलपति की नियुक्ति में परिणामकारी परामर्श के मुद्दे पर राजभवन और राज्य सरकार में हमेशा विवाद रहा है. अक्सर राज्यपाल कुलपतियों के चुनाव का राज्य सरकार को सिर्फ सूचना भर देते हैं. इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए बिहार में नीतीश सरकार ने करीब तीन साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी. अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि अगर बिना प्रभावोत्पादक परामर्श के राज्यपाल कुलपति की नियुक्ति करते हैं तो वह अवैध माना जायेगा.
झारखंड राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 2000 के अनुसार कुलाधिपति राज्य सरकार के परामर्श से कुलपति की नियुक्ति करते हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा 2010 व 2013 में पारित रेगुलेशन के आधार पर कानून में बदलाव लाने का भी आदेश दिया. यह फैसला अगस्त 10, 2013 में आया. अगर राज्य सरकार सजग रहती तो तत्काल झारखंड के कानून में बदलाव लाकर कुलपति की नियुक्ति को ज्यादा पारदर्शी बना सकती थी.
पर मानव संसाधन मंत्री गीताश्री उरांव ने कुलपति की नियुक्ति में भी बाहरी-भीतरी का मुद्दा उठा कर नया विवाद खड़ा कर दिया है. यूजीसी रेगुलेशन के अनुसार कुलपतियों की नियुक्ति के लिए एक सर्च कमेटी बनायी जायेगी. इस कमेटी को कुलपति उम्मीदवारों को चुनने में शैक्षणिक श्रेष्ठता और उनसे देश-विदेश में प्रचलित उच्च शिक्षा पद्धति के प्रति जागरूकता को ध्यान में रखना है.
वर्तमान में जो कानून है, उसमें सर्च कमेटी के गठन का कोई प्रावधान नहीं है. संभवत: इसी कमी को पूरा करने के लिए तत्कालीन राज्यपाल रामा ज्वाइस ने सर्च कमेटी बनायी. इस व्यवस्था के तहत राज्यपाल अपने अधिकार का उपयोग पारदर्शी व लोकतांत्रिक तरीके से कर सकते हैं. विश्वविद्यालयी व्यवस्था के तहत राज्यपाल सैयद अहमद ने भी सर्च कमेटी का गठन किया. विभिन्न राज्यों से करीब 200 शिक्षाविदों ने आवेदन किया. सर्च कमेटी ने उचित अर्हता रखनेवाले 66 लोगों को इंटरव्यू के लिए बुलाया. वैसे लोग जो मान्य अर्हता रखेन के बावजूद नहीं बुलाये जाते हैं, उनके लिए न्यायालय के दरवाजे हमेशा खुले हुए हैं.
वास्तव में राजभवन ने राज्य सरकार से परामर्श लेने की प्रक्रिया शुरू भी नहीं की है. अभी तो सर्च कमेटी प्रत्येक पद के लिए तीन-तीन उम्मीदवारों की सूची राज्यपाल को सौंपेगी. इसके बाद राज्यपाल की कानूनी जिम्मेवारी बनती है कि राज्य सरकार से कारगर परामर्श कर कुलपतियों की नियुक्ति करें. कानून के तहत राज्य सरकार राज्यपाल को एकतरफा निर्णय न लेने, बल्कि परामर्श कर नियुक्ति करने पर बाध्य कर सकती है.
सर्वोच्य न्यायालय ने बिहार के कुलपतियों के केस में स्पष्ट कहा है कि कुलाधिपति को इस संदर्भ में कोई असीमित शक्ति नहीं है. न्यायालय ने हालांकि यह भी स्पष्ट कहा कि राज्यपाल से राज्य सरकार द्वारा अनुशंसित नामों पर विचार करने की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए और न ही राज्यपाल राज्य सरकार के विचारों को मानने के लिए बाध्य हैं.
यहां बताते चलें कि सर्च कमेटी में राज्य के मुख्य सचिव एक महत्वपूर्ण सदस्य हैं, जो स्पष्टत: राज्य सरकार के प्रतिनिधि के रूप में पहले से विराजमान हैं. अत: राज्य सरकार की जिम्मेवारी है कि राज्यपाल द्वारा सुझाए गये नामों को कानूनी दृष्टि से जांचे-परखे, बाहरी-भीतरी पर ध्यान न रख कर विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता सुधार के लिए कदम उठाये.
यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि राज्य के विश्वविद्यालयों के द्वारा पढ़ाये गये ज्यादातर छात्रों को नौकरी मिलने में दिक्कत हो रही है. जरूरत इस बात की है कि विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में समयानुसार आमूलचूल परिवर्तन कर प्रतिभाशाली व ख्याति प्राप्त शिक्षाविदों को जिम्मेदारी दी जाये. ऐसा करने से बाहरी व भीतरी दोनों छात्रों का भला होगा. उन्हें उच्च शिक्षा व नौकरी लायक शिक्षा के लिए दिल्ली या अन्य जगहों पर भटकना न पड़ेगा.
सरकार एक और काम कर सकती है. झारखंड के ऐसे विद्वान जो अन्य राज्यों या विदेशों में शिक्षा का अलख जगा रहे हैं, उन्हें खुला निमंत्रण भेज सकती है. राज्य के उच्च शिक्षण संस्थानों को सुद्दढ़ करने में सहायता ले सकती है. वक्त का तकाजा है कि किसी भी हालत में इन पदों के लिए राजनीति नहीं होनी चाहिए.