पैरालंपिक में मेडल जीतने वाली पहली भारतीय महिला दीपा मलिक कहती हैं कि हम अपनी ही नकारात्मक धारणाओं के शिकार होकर अपने ख़्वाब छोड़ देते हैं.
रियो पैरालिंपिक में भारत की दीपा मलिक ने गोला फेंक एफ़-53 इवेंट में दूसरा स्थान हासिल कर इतिहास रचा.
वो पैरालिंपिक में रजत पदक जीतने के साथ ही भारत को पदक दिलाने वाली देश की पहली महिला बन गई हैं.
दीपा एक आर्मी अधिकारी की पत्नी हैं और दो बच्चों की मां है. वो कमर के नीचे से लकवाग्रस्त हैं.
जानिए दीपा की दास्तां उन्हीं की जुबानी-
"कोई भी खिलाड़ी अपनी ज़िंदगी में एक बार ओलंपिक ज़रूर खेलना चाहता है.
मैं दस सालों से खेल रही हूं. मैं वर्ल्ड चैंपियनशीप, कॉमनवेल्थ और एशियन गेम में हिस्सा ले चुकी हूं.
लेकिन कहीं ना कहीं दिल में यह चाहत थी कि ओलंपियन या पैरालिंपियन शब्द मेरे नाम के साथ जुड़े.
मैं अपने देश के लिए यह मेडल जीत पाई हूं, इसकी मुझे बहुत खुशी है.
मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि यह ख़िताब मेरे नाम के साथ जुड़ेगा.
पहली बार भारत में इतने बड़े पैमाने और इतनी खुशी के साथ पैरा स्पोर्ट्स के बारे में बात की जा रही है.
यहां तक कि जब हम भारत से रियो के लिए चले थे तब इतनी बातें नहीं हो रही थीं.
लेकिन मीडिया अब हमारे बारे में बात कर रहा है. देर आए दुरुस्त आए. बहुत खुशी हो रही यह देखकर.
हमारे देश में पैरा स्पोर्ट्स को लेकर नीतियां और सुविधाएं बेहतरीन हैं, बस कमी है तो लोगों में इसे लेकर जागरूकता की.
हमारे देश में तो जैसे अपंगता को सामाजिक कलंक समझ लिया जाता है. मैं अपनी उपलब्धियों से इस धारणा को बदलना चाहती हूं.
इस मेडल से यह आवाज़ और बुलंद होगी.
मेरी ज़िंदगी में एक या दो बार नहीं बल्कि तीन बार अपंगता ने दस्तक दी है. जब मैं छह साल की थी तब पहली बार मुझे परेशानी होनी शुरू हुई थी और उस वक़्त पता चला था कि मेरे रीढ़ की हड्डी में ट्यूमर है.
फिर मेरा ऑपरेशन हुआ और उसके बाद तीन साल लग गए थे ज़िंदगी नॉर्मल होने में.
फिर शादी के बाद मेरी बच्ची हुई और जब वो डेढ़ साल की थी तब एक दुर्घटना में उसका बायां हिस्सा लकवा ग्रस्त हो गया.
उस वक़्त मुझे उसके रिहैबिलिटेशन में लगना पड़ा. जब वो ठीक होने लगी तो मुझे दोबारा से ट्यूमर आ गया.
जब मेरी बड़ी बेटी सात और छोटी बेटी तीन साल की थी तो डॉक्टरों ने कहा कि आपके ट्यूमर के ऑपरेशन में आपकी छाती का निचला हिस्सा पूरा चला जाएगा. उस वक्त मेरे पति कारगिल की लड़ाई में थे.
अब मेरी बेटी पैरा स्पोर्ट्स के साथ जुड़ी हुई है. हम दोनों मां-बेटी एक साथ खेले भी हैं और मेडल भी लिए हैं.
वो चूंकि मनोविज्ञान की छात्र है इसलिए वो अपनी पढ़ाई का इस्तेमाल भी इसमें कर रही है. हमने हर चुनौती को जीत में बदला है.
मेरे अब तक तीन बड़े ऑपरेशन हुए हैं और 183 टांके लगे हैं. मेरा पहला ऑपरेशन 1997 में हुआ था जो 20-22 घंटे तक चला था.
हम अपने आप को कमज़ोर मानसिक धारणाओं में बांध लेते हैं फिर चाहे वो उम्र की बात हो या शारीरिक अपंगता की.
और इस चक्कर में हम अपने ख्वाबों को ख़ुद ही छोड़ देते हैं.
मैं दिल से एक बाइकर हूं. बाइकर लोगों में टैटू का बड़ा प्रचलन है लेकिन मुझे सूई से बड़ा डर लगता है.
मेरे दोस्त हमेशा टैटू के लिए बोलते थे. मैं उनसे हमेशा कहती रहती थी कि जब ओलंपिक खेलूंगी तब बनवाऊंगी.
अब मुझे लगता है कि टैटू बनवाने का सही वक़्त आ गया है."
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