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75 के बुज़ुर्ग या सियासी जोश भरे जवान!

रशीद किदवई राजनीतिक विश्लेषक, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए ये संभव है कि आनंदीबेन पटेल का इस्तीफ़ा कई कारणों के एक साथ आ जाने से हुआ हो. लेकिन इसके पीछे उम्र का कारण भी है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व ज़िम्मेदारी वाले […]

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ये संभव है कि आनंदीबेन पटेल का इस्तीफ़ा कई कारणों के एक साथ आ जाने से हुआ हो. लेकिन इसके पीछे उम्र का कारण भी है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है.

ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व ज़िम्मेदारी वाले प्रमुख पदों के लिए 75 वर्ष की उम्र की सीमा को अब स्वीकारने लगा है.

जिस सवाल को पूछने की ज़रूरत है, वो ये है कि क्या उम्र के मुद्दे पर ज़ोर देना सही है? सबसे अहम है कि क्या ये लोकतांत्रिक है?

अब तक चार बड़े वयोवृद्ध नेताओं को पद से इस्तीफा देना पड़ा है. ऐसे दो वरिष्ठ मंत्री मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान कैबिनेट में थे, जिन्हें अधिक उम्र के आधार पर जाना पड़ा.

बाबूलाल गौर और सतराज सिंह दोनों को बहुत सक्षम और सतर्क मंत्रियों के रूप में देखा जाता था. लेकिन बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने उम्र के आधार पर उन्हें पद छोड़ने के लिए कहा.

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अगली मंत्री थीं नजमा हेपतुल्लाह, जिन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल से जाना पड़ा. दिलचस्प है कि उनके सहकर्मी कलराज मिश्र 75 साल की उम्र पार करने के बावजूद संभवत: इसलिए बच गए क्योंकि उनके गृह प्रदेश, उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं.

बीजेपी ने रणनीतिक रूप से इस बात को स्वीकार किया है कि राजनीतिक अनिवार्यता के बीच नियमों में भी कुछ अपवाद हो सकते हैं.

लेकिन फिर सवाल है कि क्या ऐसे ‘सिद्धांत’ वैध हैं.

हालांकि संविधान और क़ानून उम्र के आधार पर ऐसी किसी पाबंदी की बात नहीं करता. अगर भारत और विदेशों में बुज़ुर्ग नेताओं पर सरसरी निगाह दौड़ाई जाए तो पता चलेगा कि उम्र और अनुभव, असल में एक अतिरिक्त विशेषता ही होती है.

मोरारजी देसाई जब इंदिरा गांधी और संजय गांधी के प्रभाव को तोड़कर भारत के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने तो वे 81 साल के थे.

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देसाई एक गुजराती थे और अगले दो वर्षों तक उन्होंने कई उपलब्धियां हासिल कीं, मसलन 1971 के युद्ध के बाद पाकिस्तान से बिगड़ चुके संबंधों को पटरी पर लेकर आए और 1962 के युद्ध की खटास के बाद चीन के साथ राजनीतिक संबंध स्थापित किए.

देसाई की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि उनकी सरकार ने लोकतंत्र में भरोसे को बढ़ाया.

उनकी सरकार ने कुछ क़ानूनों को रद्द कर दिया जिन्हें इमरजेंसी के दौरान पास किया गया था. इसके साथ ही उनकी सरकार ने आने वाली किसी भी सरकार के लिए इमरजेंसी लागू करने को कठिन बना दिया.

हालांकि ये एक अलग कहानी है कि 1979 में चौधरी चरण सिंह ने जनता पार्टी के गठबंधन से समर्थन वापस ले लिया और मोरारजी देसाई को 15 जुलाई 1979 को अपने पद से इस्तीफ़ा देने को मज़बूर कर दिया.

चरण सिंह ने जब प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो वो खुद 79 साल के थे.

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असल में ये पूरा आंदोलन इंदिरा और इमरजेंसी के ख़िलाफ़ 70 वर्षीय जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलाया गया था, ठीक उसी तरह जैसे डॉ मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ इंडिया अगेंस्ट करप्शन का आंदोलन 75 साल के बुजुर्ग अन्ना हज़ारे ने चलाया.

विंस्टन चर्चिल संभवत: ब्रिटेन के अब तक के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री रहे. 1951 में चुनावों में कंज़रवेटिव पार्टी की जीत के बाद जब उन्होंने दोबारा पद संभाला तो उनकी उम्र 76 साल थी.

1951 से लेकर 1955 तक, जब उन्होंने इस्तीफ़ा दिया, उन्होंने तबाह हुए यूरोप को पटरी पर लाने में मदद की थी.

कभी एकछत्र राज करने वाले ब्रितानी साम्राज्य की लगातार गिरती साख को उन्होंने बहुत होशियारी से संभाला.

कई लोगों का मानना है कि साढ़े तीन साल के अपने इस कार्यकाल ने 20वीं सदी के महान नेताओं में उन्होंने जगह पक्की कर ली और ब्रितानी लोगों के दिलों में उन्होंने हमेशा के लिए जगह बना ली.

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अभिनेता से नेता बने रोनॉल्ड रीगन अमरीका के 239 सालों के इतिहास में सबसे बुज़ुर्ग राष्ट्रपति बने. उस समय उनकी उम्र 69 थी.

अगर और पीछे जाएं तो रीगन को अमरीका का अब तक के सबसे बेहतरीन राष्ट्रपति के रूप में देखा जाता है.

साल 2011 में गैलप पोल में 1,015 अमरीकियों से पूछा गया कि वे किस अमरीकी राष्ट्रपति को महान मानते हैं, तो 19 प्रतिशत ने रीगन को वरीयता दी, जबकि अब्राहम लिंकन को 14 प्रतिशत, बिल क्लिंटन को 13 प्रतिशत, जॉन एफ़ केनेडी को 11 प्रतिशत, जॉर्ज वाशिंगटन को 10 प्रतिशत ने वरीयता दी.

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रीगन के दो कार्यकालों की सबसे बड़ी उपलब्धि थी, रिचर्ड निक्सन के वॉटरगेट स्कैंडल से बुरी तरह लड़खड़ा चुकी रिपब्लिकन पार्टी को फिर से खड़ा करना और बेरोज़गार अमरीकियों के लिए 1.6 करोड़ नौकरियां पैदा करना. इन्हीं के कार्यकाल में शीतयुद्ध का अंत हुआ.

दक्षिण अफ़्रीका के नस्लीय भेदभाव विरोधी नेता नेल्सन मंडेला 1994 में जब देश के पहले राष्ट्रपति बने तो उनकी उम्र 75 साल थी.

अपने एक मात्र कार्यकाल में मंडेला ने अल्पसंख्यक गोरों के दशकों तक शासन और काले लोगों के अलगाव से पस्त सतरंगी देश में लोगों के मेलजोल को बढ़ावा देने में मुख्य भूमिका निभाई. उन्होंने इसे वैश्विक रूप से एक सम्मानित आर्थिक ताक़त में बदल डाला.

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भारत में ही देखें तो वीरभद्र सिंह 78 साल के थे जब उन्होंने दिसंबर 2012 में हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को ऐतिहासिक जीत दिलाई. ये उन्होंने तब कर दिखाया जब कांग्रेस की जीत संभावना कम थी.

निजी तौर पर अधिकांश कांग्रेसियों ने माना था कि इस पहाड़ी राज्य में जीत पार्टी के मुक़ाबले वीरभद्र की ज़्यादा है.

अगर कांग्रेस की कार्यशैली पर नज़र दौड़ाएं तो ये दिखाता है कि कैसे ग़ुलाम नबी आज़ाद, कमल नाथ, अमरिंदर सिंह और शीला दीक्षित जैसे पुराने अनुभवी नेता, राहुल गांधी के क़रीब रहने वाले नौजवान नेताओं पर भारी हैं.

अगर मंत्रिमंडल में शामिल होने या निकलने के लिए उम्र की सीमा वाकई मानदंड बनता है तो इससे सत्तर पार के पार्टी नेताओं को टिकट देने का मुद्दा भी उठ जाता है.

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आखिरकार सांसद और विधायक ही तो संभावित मंत्री होते हैं.

हाल ही में केरल में हुए चुनावों में बीजेपी का एक मात्र उम्मीदवार एमएलए बना, वो हैं ओ राजगोपाल. इससे पार्टी को बहुत बड़ी नैतिक उत्साह मिला. राजगोपाल 86 साल के हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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