मुझे ये सुनकर कोई हैरानी नहीं हुई कि भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने कहा कि वो दूसरा कार्यकाल नहीं चाहते और वापस पढ़ाने की तरफ़ लौटेंगे.
दरअसल भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी जिस दिन राज्य सभा के सांसद बने, उसी दिन उन्होंने सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी कि रघुराम राजन को दूसरा मौका नहीं दिया जाना चाहिए.
उनका कार्यकाल 4 सितंबर को पूरा हो रहा है.
इसके पीछे राजनीति ये है कि संघ परिवार के अंदर एक हिस्सा ऐसा है जो सोचता है कि भारतीय रिज़र्व बैंक की मौजूदा नीति देशहित में नहीं है.
ये उनकी राय है क्योंकि भारतीय रिज़र्व बैंक ब्याज दर कम नहीं कर रहा है. इसीलिए लोग कर्ज नहीं ले रहे और निवेश नहीं कर पा रहे हैं.
लेकिन अर्थव्यवस्था के बारे में अलग-अलग लोगों की अलग अलग राय होती है.
रघुराम राजन की नीति के समर्थक कहते हैं कि आज कच्चे तेल के दामों में गिरावट के बावजूद सरकार महंगाई को क़ाबू नहीं कर पा रही है.
आज महंगाई बढ़ रही है. दाल, टमाटर, आलू के दाम बहुत बढ़ गए. थोक मूल्य सूचकांक कम होता रहा लेकिन उपभोक्ता को कोई राहत नहीं मिली.
कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यदि इस समय भारतीय रिज़र्व बैंक अर्थव्यवस्था में बहुत सारा पैसा डाल देगी तो ये देश के हित में नहीं होगा.
अर्थव्यवस्था की इस हालत के लिए केवल भारतीय रिज़र्व बैंक ही ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि भारत सरकार भी ज़िम्मेदार है.
रघुराम राजन के बारे में जो भी टिप्पणी की गई है वो महज़ टिप्पणी नहीं, एक तरह से आक्रमण है. और इसके पीछे भी राजनीति है.
मैं समझता हूं कि भारत की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए रघुराम राजन ने जितने भी क़दम उठाए हैं, यदि नहीं उठाते तो महंगाई इससे भी ज़्यादा होती.
इसके अलावा उन्होंने जो भी कोशिशें की, उसमें वे थोड़े-बहुत सफल भी रहे.
उन्होंने एनपीए यानी नॉन-परफॉर्मिंग ऐसेट को ख़त्म करने की बात की. एनपीए मतलब ऐसे ऋण जिन्हें लोग बैंक से लेते तो हैं लेकिन वापस नहीं करते.
ऐसे ऋण बड़े बड़े पूंजीपति, बड़े बड़े कॉरपोरेट घराने के मालिक और बड़ी बड़ी कंपनियां लेती हैं, जैसे कि विजय माल्या की कंपनी.
रघुराम राजन ने सारे बैंको को कहा कि वे अपनी बैलेंस शीट, अपना खाता साफ़ करें. ये बात बड़े बड़े पूंजीपति और बड़े बड़े कॉरपोरेट घरानों के मालिकों को पसंद नहीं आई, जिन पर उंगली उठाई गई.
उन्होंने क्रोनी पूंजीवाद के ख़िलाफ़ कोशिश की. क्रोनी पूंजीवाद क्या है, ये सचमुच पूंजीवाद नहीं है, ये आर्थिक उदारीकरण नहीं है, ये खुले बाजार की नीति नहीं है, बल्कि ये तो सिर्फ़ भाई भतीजावाद है, ये यारों के लिए है, याराना पूंजीवाद है.
रघुराम राजन ने याराना पूंजीवाद के ख़िलाफ़ जो लड़ाई लड़ी वो बहुत लोगों को पसंद नहीं आई. इनमें बड़े-बड़े बैंकों के अधिकारी, कॉरपोरेट घराने के मालिक शामिल थे और इनके साथ कुछ राजनेता भी हैं, जिसे हम रानजीति और कारोबार की साठगांठ कहते हैं.
स्वामी एक के बाद एक चिट्ठी लिख रहे हैं कि रघुराम राजन विदेशी एजेंट हैं या अमरीकी षडयंत्र का हिस्सा हैं. इसीलिए जो फैसला रघुराम राजन ने किया, उससे मैं हैरान नहीं हूं.
( राजनीतिक अर्थशास्त्री परंजॉय गुहा ठाकुरता से बीबीसी संवाददाता मोहनलाल शर्मा की बातचीत पर आधारित)
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