दक्षा वैदकर
किसी गांव में एक लोहार रहता था. वह लोहे द्वारा बनाये गये हथियारों और सामान की गुणवत्ता के लिए प्रसिद्ध था. इस तरह उसने उन्हें बेच कर काफी संपत्ति एकत्रित कर ली थी. तभी एक रात गांव में डाकुओं ने डाका डाला. वह लोहार के घर भी पहुंचे और उसका सारा धन लूट लिया. उन डाकुओं ने लोहार को बेड़ियों में बांध कर जंगल में जिंदा छोड़ दिया.
इस दौरान लोहार पूरी तरह शांत रहा. लोहार को बेड़ियां तोड़ने में महारत हासिल थी, लेकिन जब वह बेड़ी तोड़ने की जांच कर रहा था, तो उसे एक कड़ी दिखाई दी. वह घबरा गया. उस कड़ी पर लोहार का बनाया हुआ पहचान चिन्ह बना हुआ था. उसे पता था कि उसके सामान की गुणवत्ता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता.
उसने सोचा, इस कड़ी को तोड़ना तो असंभव है, क्योंकि यह मैंने खुद बनायी है. बहुत देर ऐसे ही बैठने के बाद उसने सोचा, जब मैं ऐसी मजबूत कड़ी बना सकता हूं, तो इसे तोड़ क्यों नहीं सकता. उसने अपनी सारी ऊर्जा एकत्रित की और काम में लग गया. उसने अपना सारा अनुभव, बुद्धि और शक्ति उस कड़ी को तोड़ने में लगा दिया. इस तरह वह थोड़ी देर में बंधन से मुक्त हो गया.
कहने का आशय यह है कि यही हाल हमारी आदतों का भी है. जब हम कोई आदत अपनाते हैं, तब हम ही एक बंधन बनाते हैं. जब हम उस आदत के आदी हो जाते हैं, तब उससे छुटकारा पाना हमें असंभव लगने लगता है. लेकिन यह सब हमारे दिमाग में होता है. अगर हम सच में उस आदत से छुटकारा पाना चाहें, तो जब चाहे पा सकते हैं.
हम नहीं जानते कि बंधन को मजबूत करने के पीछे हमारी ही योग्यता है. यदि हम उसे तोड़ते के लिए दृढ़ संकल्पित हो जायें, तो संसार की कोई भी शक्ति हमें उससे मुक्त होने से नहीं रोक सकती है.
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