-हरिवंश-
एक परिचर्चा का आयोजन था. धर्मयुग के लिए. मुंबई में नौकरी के आरंभिक दिन थे. विषय था, उसूलों, मूल्यों पर चलनेवाले लोगों की संख्या, समाज-देश में घट रही है? हमने इस विषय पर लिखनेवालों की सूची बनायी. उस सूची में नाम था, पंडित रामनंदन मिश्र का. आजादी की लड़ाई के अप्रतिम योद्धा. गांधी के करीबी. समाजवादी आंदोलन के अग्रणी पुरुष. इस विषय पर उनका जो जवाब आया, उसकी एक पंक्ति भूल नहीं पाता. उस पंक्ति का आशय था, आज यह धरती इतनी बंजर हो गयी है कि उम्दा से उम्दा बीज डालो, वह अंकुरता ही नहीं. धरती में ही नष्ट हो जाता है. आजादी के 55 वर्षों बाद की धरती (माहौल) हमने कैसी बना ली है कि आज ‘बड़े इंसान’ नहीं दिखते.
पद, पैसा, शोहरत की कीमत पर बड़े-बड़े राजनीतिक नायक-रहनुमा चौराहे पर खुद को खुलेआम नीलाम कर रहे हैं, नौकरशाहों (कुछेक अपवादों को छोड़ कर) को झुकने को कहा जाये, तो वे रेंगने लगते हैं. (आपातकाल के बारे में पत्रकारों के संदर्भ में आडवाणी की मशहूर टिप्पणी), बौद्धिक-पत्रकार अपनी भूमिका से भटक गये हैं, तब आरके तलवार का स्मरण ताकत देता है. श्री तलवार ने स्टेट बैंक के चेयरमैन के पद से इस्तीफा क्यों दिया? उन्होंने इस संबंध में कभी कुछ नहीं कहा. पर बैंकिंग सूत्रों के अनुसार संजय गांधी चाहते थे कि उनके एक प्रियपात्र को ‘भारतीय स्टेट बैंक’ लोन दे.
बैंक ने अपने मापदंडों पर यह आवेदन नितांत ‘अनवायबुल’ (अव्यावहारिक) पाया. आज चेयरमैन-बड़े अफसर सत्ताधीशों को खुश करने के लिए कुछ भी करते हैं, अपने मातहत अफसरों की प्रतिकूल टिप्पणियां बदल या बदलवा कर सबकुछ ‘फेवरेबुल’ करा देते हैं. तब 30 वर्षों बाद 26 जून को एक ऐसे चेयरमैन की याद, जिसने बैंक के मापदंड पालन के लिए इस्तीफा दे दिया, अपने जूनियर अफसरों की राय के पक्ष में खड़ा हुआ, अपने समय के सबसे ताकतवर नेता ‘संजय गांधी’ की गलत इच्छा के आगे झुका नहीं, रोल मॉडल की तलाश में भटकते समाज के लिए प्रेरणास्रोत है.
पढ़िये ‘मैनेजमेंट फॉर ह्यूमन वैल्यूज’ (आइआइएम, कोलकाता) के कन्वेनर द्वारा आरके तलवार से हई बातचीत के अंश. यह बातचीत अंग्रेजी में हुई थी. पांडिचेरी स्थित श्री आरके तलवार के फ्लैट में. बातचीत लंबी है, पर उसके कुछ अंश हम छाप रहे हैं, ताकि उनके व्यक्तित्व की झलक मिल सके.
सवाल : सर! क्या मैं जान सकता हूं कि पांडिचेरी को ही रहने के लिए आपने क्यों चुना?
जवाब : मुझे समय से काफी पहले नौकरी छोड़नी पड़ी. रिटायर होने के छह वर्ष पहले छोड़नी पड़ी. मेरे पास कहीं जाने के लिए दूसरी जगह नहीं थी. इसलिए मैं यहां, इस फ्लैट में पिछले 21 वर्षों से रह रहा हूं.
सवाल : क्या आप अपने बचपन के बारे में कुछ बतायेंगे?
जवाब : मैंने अपनी स्कूली शिक्षा कराची से शुरू की, और उसके तुरंत बाद 1939 में लाहौर चला गया. वहां मैंने अपनी मां को प्रतिदिन गीता के हिंदी रूपांतरण का पाठ करते देखा. मैंने बिना अपनी मां की जानकारी के इसे लिया. कुछ समय तक मैं इसे बहुत थोड़ा ही समझ पाता था. लेकिन धीरे-धीरे गीता मेरे भीतर समाने लगी, यद्यपि तब मैं 13-14 वर्ष का ही था. जब मैं बड़ा हुआ, गीता का पाठ करते-करते इसके सार से भी परिचित होता गया. बाद में, 25 वर्ष की उम्र में मैंने कोलकाता में इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया में बतौर जूनियर ऑफिसर ज्वाइन किया. यह 1948-49 का दौर था. और तब से मैं गीता के उद्धरण 2-48 के आधार पर काम कर रहा हूं.
सवाल : आज के दौर में, जहां कैरियर की महत्वाकांक्षाएं जबर्दस्त हैं, यह जानना काफी दिलचस्प होगा कि आपने इस आवेग से अपने को कैसे दूर रखा?
जवाब : यह सामान्य सी बात थी, क्योंकि मैंने गीता के उद्धरण 2-48 में अपनी पूरी आस्था रखी थी. मैं इसके लिए कोई और ज्यादा प्रमाण की जरूरत नहीं महसूस करता था. लेकिन मैं इतना कहूंगा कि जैसे-जैसे मेरा कैरियर आगे बढ़ता गया, मैं इसकी स्पष्ट छाप अपने ऊपर देखता गया.
सवाल : अपने सहयोगियों और अन्य कर्मचारियों के साथ काम करने की आपकी शैली कैसी थी?
जवाब : मैंने कभी अपने आपको उदाहरण के रूप में नहीं देखा. मैंने उनके साथ काम किया, और अगर जरूरत पड़ी, तो काम करने के लिए उनके साथ बैठा भी. लोगों की गलतियां ढूंढने की कोशिश मैंने कभी नहीं की. उसे हमेशा नजरअंदाज किया. विचारों में मतभेद होने पर मैं सबसे पहले उन्हें समझाने की कोशिश करता था. यदि अंतत: हम सहमत नहीं होते, तो मैं उन्हें लिखित निर्देश देता था. यह ऐसी चीज होती थी, जो समय आने पर रिकॉर्ड का काम करती.
सवाल : क्या आप एक कठोर बॉस थे?
जवाब : हां, मैं अपने लोगों से बहत ज्यादा की अपेक्षा रखता था. एसबीआइ के चेयरमैन के रूप में मैंने सभी ऑफिशियल कागजात सुबह अपने घर में पढ़ने की आदत बना ली थी. अक्सर मेरे सीनियर सहयोगी देर रात 11.30 बजे वाचमैन के पास इन्हें छोड़ जाते थे, ताकि सुबह होते ही मैं इन्हें देख लूं. कभी-कभार मैं उनसे कहता था कि इतनी देर रात को वे न आया करें. लेकिन वे कहते थे कि ‘हम आपके अनुशासन को जानते हैं कि आप रात भर सभी महत्वपूर्ण मुद्दों को निबटाते रहते हैं’. या कि ‘रिजर्व बैंक के साथ कल सुबह आपकी मीटिंग है, इसलिए आपको कल सुबह इन कागजात की जरूरत होगी.’
सवाल : अपने पद के कारण आपको सरकार के साथ काफी सारे मसलों का निबटारा करना पड़ता होगा? क्या आप इस अनुभव के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?
जवाब : 1976 का दौर मेरे लिए सबसे बुरा दौर था. मुझे एक … सरकार का सामना करना पड़ा. मैं यह महसूस कर सकता था कि उनकी नीतियों को नहीं मानने के कारण मैं आसानी से उनका शिकार बन सकता था. मुझे छुट्टी पर जाने को कहा गया, जो मैंने नहीं किया. तब वित्त मंत्री ने मुझे बुलाया. तब मैंने पांडिचेरी में मौजूद अपनी पत्नी से बात की और आनेवाले कठिन दौर के बारे में उसे बताया. उसने मुझसे सच का साथ न छोड़ने की बात कही. वित्त मंत्री के साथ मेरी मुलाकात में मुझे दूसरे पदों पर बिठाने की बात कही गयी. मैंने किसी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया. पांडिचेरी लौटते समय मेरे हाथ में मेरी मां की एक किताब थी. जैसे ही मैंने उस किताब को खोला, अचानक मेरे सामने वह पन्ना खुला, जिसमें मेरे उस समय के संकट का समाधान लिखा था.
सवाल : वह क्या था?
जवाब : उस पन्ने पर मेरी मां ने संकट की स्थितियों में दैवीय मार्गदर्शन प्राप्त करने का रास्ता और प्रक्रिया बतायी थी. उनका फारमूला था : गंभीरता + मौन + कोई पक्षपात नहीं = दैवीय स्वर.
सवाल : लेकिन इस स्थिति में पहुंचने के लिए भी आदमी को थोड़ा समय लगेगा. तब तक क्या किया जाये?
जवाब : मां ने कहा था, शांत रहो, स्थिर चित्त. इस कदम ने मुझे काफी मदद दी. उदाहरण के लिए, मैंने अपने कई मित्रों के उस सुझाव को साफ तौर पर खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने मुझे संजय गांधी से मिलने को कहा था. मैंने कहा : ‘वह मेरे मंत्री नहीं हैं’.
सवाल : एसबीआइ में अपने कार्यकाल के दौरान क्या आपने कतिपय टकरावपूर्ण औद्योगिक संबंधों को देखा?
जवाब : हां, चेयरमैन बनने के तीन महीनों के भीतर, अधिकारियों ने काम करना बंद कर दिये, क्योंकि चार जूनियर अधिकारियों को वेतन संशोधन के लिए गलत तरीके से आंदोलन करने के कारण निलंबित कर दिया गया था. यूनियन के महासचिव ने भी हड़ताल की धमकी दी थी. मैंने इन बातों को बर्दाश्त नहीं किया. बैंक में तीन हफ्तों तक हड़ताल चली. वित्त मंत्री ने तब मेरा साथ दिया. राज्य के मुख्यमंत्री भी मेरी मदद करने को तैयार थे. मैंने विनम्रतापूर्वक इनकार कर दिया. 12वें दिन मैंने सभी ऑफिसरों को पत्र लिखा और बैठ कर बातचीत करने को कहा. कुछ दिनों के बाद, जब समझौते पर सहमति बनी, तो दो बातें जोड़ी गयी थीं. पहली, बैंक के आदेश को मानना, और पिछली बातों के लिए किसी को शिकार न बनाया जाना.
सवाल : बैंकिंग उद्योग में यूनियन-प्रबंधन के मौजूदा रिश्तों के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
जवाब : आज यूनियन की सहमति के बिना बैंक किसी क्लर्क का भी ट्रांसफर नहीं कर सकते. मुझे 1958-59 की बात याद है, जब एक शीर्ष यूनियन नेता ने ऐसे मसलों पर बेअदबी से बात की थी. मैंने तय किया कि उनके खिलाफ उचित कार्रवाई होनी चाहिए. वह मुझसे तर्क करने आये. मैंने उनके तर्कों को नकार दिया और उनसे कहा कि वे पहले एसबीआइ के कर्मचारी हैं, उसके बाद यूनियन के एक पदाधिकारी.
सवाल : 1948 में एसबीआइ ज्वाइन करने के बाद से कोई महत्वपूर्ण अनुभव आपको हुआ?
जवाब : एक बार मैं, अपने ऊपर के एक अधिकार से लंबी बहस में उतर गया. कुछ देर बाद, उन्होंने मुझे रोका और कहा, ‘तर्क करो, बहस नहीं.’ यह बात मुझे जंच गयी और तब से मैं इसे मानता आ रहा हूं.
सवाल : जिस प्रकार से बैंकिंग इंडस्ट्री भारत में विकास कर रही है, उसके बारे में मोटे तौर पर आपकी क्या राय है? मसलन, क्रेडिट कार्ड के बिजनेस के बारे में?
जवाब : बैंक अपनी स्वाभाविक गति से अपने को नहीं बदल रहे हैं. बलपूर्वक हो रहा यह बदलाव किसी बड़ी दुर्घटना को आमंत्रण दे सकता है. जहां तक क्रेडिट कार्ड का सवाल है, मुझे एक बैंक द्वारा वर्षों पहले एक क्रेडिट कार्ड दिया गया था. मैंने उसका इस्तेमाल अब तक नहीं किया. यह खर्च करने का लाइसेंस है. यह घातक है. मैं 30 वर्षों तक बैंक में रहा, लेकिन अपनी बचत से अधिक कभी कर्ज नहीं लिया.
सवाल : अगले 50 वर्षों के बारे में भारतीयों के प्रति आपका क्या संदेश है?
जवाब : भारतीयों को सही मायने में भारतीय बनना होगा. आज जितनी भी समस्याएं हमारे आसपास हैं, उनका समाधान हमारी परंपरा और हमारी विरासत में मौजूद है.