आज़मगढ़ के निज़ामाबाद थाना क्षेत्र के खुदादादपुर, संजरपुर, फरिया, फ़रीदाबाद, दाउदपुर गांव के चारों ओर बड़ी संख्या में पुलिसकर्मी, पीएसी जवान और गश्त करती गाड़ियां मौजूद हैं.
शनिवार की रात यहां दो लोगों के बीच मामूली झड़प हुई और कुछ ही देर बाद इसने सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले लिया था.
अब निज़ामाबाद और सरायमीर इलाक़े के कई गांवों के लोग दहशत में हैं. लोगों का कहना है कि प्रशासन ने उन्हें घरों से बाहर निकलने से मना कर रखा है.
बताया जा रहा है कि भले घटना शनिवार को शुरू हुई हो लेकिन इसकी नींव क़रीब दो महीने पहले ही पड़ चुकी थी.
स्थानीय लोगों के मुताबिक़ होली के मौक़े पर कुछ लोगों ने मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति को जबरन रंग लगा दिया था. लड़ाई उस वक़्त भी हुई थी लेकिन बात इतनी ज़्यादा नहीं बढ़ी थी.
लेकिन शनिवार की शाम मामूली झगड़े के बाद गांव की दलित बस्ती में रहने वाले मुसाफ़िर के घर को आग के हवाले कर देने के बाद हिंसा भड़क गई. मुसाफ़िर के परिवार वालों का आरोप है कि कुछ मुस्लिम युवकों ने उनके यहां धावा बोल दिया और पूरा घर जलाकर राख़ कर दिया.
यही नहीं, आस-पास के जितने भी दलितों के घर या छप्पर थे, सबको आग के हवाले कर दिया गया. बस्ती के लोगों के कहना है कि घरों और घर में ही बनी छोटी-मोटी दुकानों में रखे सामान तो आग में जलकर नष्ट हो ही गए, कई बकरियां तक झुलस गईं.
तो दूसरी ओर मुस्लिम बस्ती के लोगों का आरोप है कि फ़रीदाबाद गांव के यादव बिरादरी के लोगों ने उनके घरों पर धावा बोला और आग लगाई.
हालांकि बस्ती में आग के कोई निशान नहीं दिखते लेकिन दो दिन बाद भी सड़क के किनारे ही शेखावत की आरा मशीन में लगी आग और उसके बाद की भयावह स्थिति देखी जा सकती है.
दोनों समुदायों का कहना है कि प्रशासन ने यदि सावधानी बरती होती तो शायद ये घटना इतनी बड़ी नहीं हो पाती. वहीं प्रशासनिक अधिकारी घटना की कोई वजह तो नहीं बता रहे हैं लेकिन स्थिति को नियंत्रित करने के लिए अपनी पीठ ज़रूर ठोंक रहे हैं.
यदि दलित बस्ती के लोगों की मानें तो उनके घर जब जलाए जा रहे थे उस समय पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी दोनों ही मौजूद थे, लेकिन वो ख़ुद इतने डरे हुए थे कि उनकी मदद नहीं कर पाए.
घटना के दौरान पुलिस के एक क्षेत्राधिकारी को गोली लगी थी और कई पुलिसकर्मियों को चोटें आई थीं. निज़ामाबाद के तहसीलदार को तो इस क़दर मारा पीटा गया कि वो अभी तक अस्पताल में जीवन और मौत से संघर्ष कर रहे हैं.
दो दिन तक लगातार कोशिश के बावजूद आज़मगढ़ के ज़िलाधिकारी सुहास एल.वाई से मुलाक़ात नहीं हो पाई लेकिन फ़ोन पर जब उनसे बात हुई तो वे बेहद बेफ़िक्र और संतुष्ट दिखे.
उन्होंने कहा, “लोग चाय-पकौड़े खा रहे हैं, सब कुछ ठीक है. जांच हो रही है, जो भी दोषी होंगे, उन्हें बख़्शा नहीं जाएगा.”
ज़िलाधिकारी को लोग भले ही चाय पकौड़े खाते दिख रहे हों, लेकिन सड़क किनारे मौजूद दुकानें अभी भी बंद हैं. सड़कों पर मुसाफ़िरों के अलावा कोई स्थानीय व्यक्ति नहीं दिख रहा है.
प्रशासन अभी घटना के पीछे के स्पष्ट कारणों की जांच की बात कर रहा है. लेकिन स्थानीय लोगों और जानकारों का कहना है कि इस हिंसा के पीछे किसी तरह की राजनीतिक मंशा से इंकार नहीं किया जा सकता.
पहले उलेमा काउंसिल से जुड़े और वर्तमान में असददुद्दीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम के ज़िला प्रमुख मो. नदीम कहते हैं कि यह घटना कोई अचानक नहीं हुई है बल्कि इसे सोची-समझी साज़िश के तहत अंजाम दिया गया है.
नदीम कहते हैं, “कुछ सियासी दल अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए दोनों समुदायों को लड़ाना चाहते हैं और फिर इसका लाभ आगामी विधानसभा चुनाव में उठाना चाहते हैं.”
घटना के बाद इन गांवों में प्रशासन ने किसी भी राजनीतिक दल के लोगों को आने की अनुमति नहीं दी है.
हालांकि भारतीय जनता पार्टी के प्रतिनिधिमंडल ने गांव में ज़बरदस्ती घुसने की भी कोशिश की लेकिन कई लोगों को गिरफ़्तार करके सीमा से पहले ही रोक दिया गया. इन सबके बावजूद इलाक़े की भाजपा सांसद नीलम सोनकर वहां पहुंच गईं और लोगों से बात की.
वहीं बहुजन समाज पार्टी दलितों पर हुए हमले से बेहद ख़फ़ा है. लेकिन जानकारों का कहना है कि दूसरी ओर वह मुस्लिम समुदाय के सामने होने से आक्रामक रुख़ अख़्तियार नहीं कर पा रही है.
बसपा के झारखंड प्रभारी और पूर्व सांसद डॉक्टर बलराम इसी इलाक़े के रहने वाले हैं. वे बुधवार को आज़मगढ़ शहर में थे लेकिन घटनास्थल पर नहीं गए. फ़ोन पर बातचीत में उन्होंने कहा कि हम लोग अनुशासित नागरिक हैं और बिना प्रशासन की अनुमति के नहीं जा सकते.
इलाक़े के बुज़ुर्ग नेता और सीपीआई के प्रदेश पदाधिकारी हरिमंदिर पांडेय इन घटनाओं से बेहद आहत हैं. वो कहते हैं, “यहां विधानसभा चुनाव 2017 में होंगे. राजनीतिक दल अलग अलग समुदायों के झंडाबरदार बनने की कोशिश कर रहे हैं. यह सब उसी का नतीजा है. मुझे तो साफ़तौर पर दिख रहा है कि कहीं ये लोग आज़मगढ़ को दूसरा मुज़फ़्फ़रनगर न बना दें.”
यहां एक और बात सामने आ रही है. बताया जा रहा है कि इलाक़े के पत्रकारों पर प्रशासन की ओर से ख़बरों में सावधानी बरतने का दबाव बनाया जा रहा है. ऐसा कुछ पत्रकारों से बातचीत के दौरान भी पता चला.
साथ ही, दो दिनों तक इन गांवों की ख़ाक छानने के बावजूद स्थानीय पत्रकार, ख़ासकर टेलीविज़न चैनलों के पत्रकार इन गांवों के आस-पास कहीं नज़र नहीं आए. जबकि आमतौर पर देखा जाता है कि ऐसी घटनाओं के बाद चैनलों के कैमरों की बाढ़ सी आ जाती है.
जहां तक प्रशासनिक लापरवाही की बात है, तो शासन ने घटना के बाद कमिश्नर और पुलिस अधीक्षक समेत कई अधिकारियों को स्थानांतरित कर दिया और स्थानीय थानाध्यक्ष को लाइन हाज़िर कर दिया गया. लेकिन जानकारों का कहना है कि इस मामले में प्रशासनिक अक्षमता की बजाय निर्णय लेने में शासन की हीला-हवाली कहीं ज़्यादा ज़िम्मेदार है.
दरअसल, ये लड़ाई भले ही दलितों और मुसलमानों के बीच शुरू हुई लेकिन बाद में इसमें यादव और मुसलमान आमने-सामने आ गए. सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के ये दोनों अहम वोट बैंक बताए जाते हैं. ऐसे में सरकार दोनों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में हिचक रही है.
बहरहाल, पुलिस प्रशासन की तैनाती और सख़्ती के चलते इन गांवों में ऊपरी तौर पर भले ही शांति दिख रही हो लेकिन जानकार कहते हैं कि लोगों के भीतर का जो ग़ुबार है, उसे देखते हुए इस शांति के लंबे समय तक क़ायम रहने की उम्मीद कम ही है.
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