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मोदी सरकार से पाकिस्तान का डर ख़त्म?

मई 2014 में नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ भी आमंत्रित थे. भारत सरकार ने चीन मूल की अमरीकी मानवाधिकार कार्यकर्ता लू जिन्गहुआ को वीज़ा देने से इंकार कर दिया है. इसके पहले भारत ने वीगरों के नेता डॉल्कन ईसा का वीज़ा रद्द कर दिया था. इसे लेकर भारत […]

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मई 2014 में नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ भी आमंत्रित थे.

भारत सरकार ने चीन मूल की अमरीकी मानवाधिकार कार्यकर्ता लू जिन्गहुआ को वीज़ा देने से इंकार कर दिया है. इसके पहले भारत ने वीगरों के नेता डॉल्कन ईसा का वीज़ा रद्द कर दिया था.

इसे लेकर भारत सरकार की विदेश नीति ख़ासकर चीन और पाकिस्तान को लेकर जो नीति है उस पर सवाल उठाए जा रहे हैं.

इस फ़ैसले के मद्देनज़र भारत की विदेश नीति किस ओर जा रही है, इस पर रक्षा और विदेश मामलों के जानकार सुशांत सरीन की राय:

चीन को संकेत देने की कोशिश की गई है, और वो शायद चीन के पास चला गया है. यह सारी चीजें उस वक्त हो रही थी जब भारत और चीन के बीच उच्च स्तरीय बातचीत चल रही थी.

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी चीन के दौरे पर थे. हम इस बात की अटकल लगा सकते हैं कि मसूद अज़हर के मामले के साथ जरूर इसका जुड़ाव होगा या फिर चीन के साथ कोई बैक रूम डील हुई है.

इस तरह से ताकि भारत जब अगले एक-दो बार इस मुद्दे को उठाएगा तो इसे चीन की तरफ से हामी हासिल हो जाएगी.

दूसरी संभावना यह है कि उसका मसूद अज़हर के साथ कोई जुड़ाव नहीं था. सिर्फ चीन को एक संकेत देना था कि आप हमारे ख़िलाफ़ कोई इस तरह की कार्रवाई पाकिस्तान या किसी और के साथ मिलकर करते हैं तो हमारे पास भी कुछ रास्ते हैं.

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लेकिन भारत ने इसे जिस तरह से किया है उससे मुझे लगता है कि वो संकेत कहीं गुम हो गया है.

वास्तविक स्थिति क्या है, ये तो उन्हीं लोगों को पता है जिन्होंने यह निर्णय लिया है.

चीन के साथ पेचीदगियां बहुत हैं. एक तो सामरिक स्तर पर जिस तरीक़े का चीन का रवैया है, उनके जो हित हैं, वो भारत के हित के साथ मेल नहीं खाते.

मसूद अज़हर के मामले में भारत को बुरा तो बहुत लगा लेकिन क्या सारे रिश्ते एक ही जगह केंद्रित रहेंगे. शायद नहीं.

मुझे लगता है कि चीन के साथ कई स्तर पर निपटना पड़ेगा. कई मामलों में आप चीन के साथ सख्ती दिखा सकते हैं लेकिन फिर कई में आपको नरमी बरतनी होगी.

रही बात पाकिस्तान पर नीति की तो उसमें एक तरह से कमज़ोरी रही है. सार्वजनिक स्तर पर जिनके बारे में पता चलता है, उसके दो स्तर है.

एक तो यह कि पिछले दो साल में कम से कम पांच बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद पहल की है. हाल में भी जब रिश्तों में कड़वाहट आई तो उसे बेहतर करने की कोशिश नरेंद्र मोदी ने की.

लेकिन लगता है कि पहले के प्रधानमंत्रियों की कोशिशों की तरह उनकी कोशिश का कोई असर नज़र नहीं आ रहा.

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दूसरा पहलू है नरेंद्र मोदी का सऊदी अरब या यूएई जाकर नए सामरिक समीकरण बनाने की कोशिश करना.

इससे एक बात साफ़ होती है कि पूर्व में हम पाकिस्तान से एक ही स्तर पर डील करने की कोशिश कर रहे थे, और, जो पूरा रणनीतिक माहौल है उसपर हमारी नज़र नहीं थी.

ये क़दम इसमें एक बड़ा बदलाव है.

एक सच्चाई भारत को स्वीकार करनी होगी कि अगर नेताओं के व्यक्तिगत संबंध अच्छे भी हैं जो इससे मुल्कों के संबंध बेहतर नहीं हो जाते.

जिस नाटकीयता से लाहौर की यात्रा हुई, उसकी ज़रूरत नहीं थी.

उसका एक नकारात्मक पहलू यह रहा कि जबसे मोदी सरकार आई थी तब से पाकिस्तान में जो डर या हिचकिचाहट थी – मोदी की नीतियां पाकिस्तान को लेकर पिछली सरकारों से बिल्कुल अलग होगी; वो लगभग पूरी तरह से ख़त्म हो गई है.

(रक्षा और विदेश मामलों के जानकार सुशांत सरीन से बीबीसी संवाददाता वात्सल्य राय की बातचीत पर आधारित)

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