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राष्ट्रपति शासन का चाबुक चलाने से बचेंगे मोदी?

भारत भूषण वरिष्ठ पत्रकार नैनीताल हाई कोर्ट ने उत्तराखंड से राष्ट्रपति शासन हटाते हुए 29 अप्रैल को विधानसभा में शक्ति परीक्षण का आदेश दिया है. यह फ़ैसला केंद्र सरकार के लिए बहुत बड़ा झटका है क्योंकि हाई कोर्ट ने कह दिया है कि राष्ट्रपति शासन तय नियमों के तहत लागू नहीं किया गया है. इसके […]

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नैनीताल हाई कोर्ट ने उत्तराखंड से राष्ट्रपति शासन हटाते हुए 29 अप्रैल को विधानसभा में शक्ति परीक्षण का आदेश दिया है.

यह फ़ैसला केंद्र सरकार के लिए बहुत बड़ा झटका है क्योंकि हाई कोर्ट ने कह दिया है कि राष्ट्रपति शासन तय नियमों के तहत लागू नहीं किया गया है. इसके साथ ही यह भी कहा है कि केंद्र सरकार चाहे तो सुप्रीम कोर्ट जा सकती है, लेकिन हाई कोर्ट अपने फ़ैसले पर स्टे नहीं लगाएगा.

हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि निरंकुश ताकत से किसी का भी दिमाग ख़राब हो सकता है.

हाई कोर्ट ने यह नहीं कहा कि धारा 356 को हटाना चाहिए. अदालत ने कहा कि धारा 356 का उत्तराखंड में ग़लत इस्तेमाल हुआ है. यह क़ानूनी तौर पर इसलिए भी ग़लत है क्योंकि एसआर बोमई केस में कहा गया था कि सदन में विश्वास मत ही सरकार के बहुमत का सबसे बड़ा परीक्षण है.

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दूसरा केंद्र सरकार को राज्य को इस सवाल का जवाब देने के लिए कि – आपके यहां राष्ट्रपति शासन क्यों न लागू किया जाए- एक हफ़्ते का समय देना चाहिए था.

बोमई केस में यह भी कहा गया था कि राष्ट्रपति का जो भी फ़ैसला हो उसकी न्यायिक समीक्षा संभव है. और इस मामले में वही हुआ है.

न्यायिक समीक्षा में तीन चीज़ें हो सकती हैं. पहला तो क्या राज्यपाल ने केंद्र को जो चिट्ठी भेजी है उसमें क्या कहा गया है.

दूसरा जो आधार उन्होंने दिए हैं क्या वो उचित हैं. और तीसरा कि क्या धारा 356 और राष्ट्रपति की शक्तियों का ग़लत इस्तेमाल हुआ है? और अगर हुआ है तो अदालत उसका समाधान दे सकती है, जो हाई कोर्ट ने दिया है.

यह कहना ग़लत होगा कि अदालत ने विधायिका के काम में हस्तक्षेप किया है क्योंकि हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति की शक्तियों की समीक्षा की है कि इनका सही इस्तेमाल हुआ है या ग़लत.

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जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आए थे तब उन्होंने कहा कि भारत में सहयोग वाला संघीय ढांचा होगा लेकिन इसके बजाय उन्होंने टकराव का रास्ता चुना है.

अरुणाचल में उन्होंने यही किया है. वहां सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू किया गया. ऐसी ही कोशिश नागालैंड में भी हो रही है. ऐसा ही शायद हिमाचल में होगा और यही करने की बात कर्नाटक में भी चल रही है.

उम्मीद की जानी चाहिए कि गुरुवार के नैनीताल हाई कोर्ट के फैसले के बाद ऐसी कोशिशों पर लगाम लग जाएगी.

उत्तराखंड विधानसभा में अब विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है. 70 में से नौ विधायक अयोग्य घोषित हो गए हैं. कांग्रेस के पास 25 अपने विधायक हैं और 6 का समर्थन हासिल है. इसके अलावा एक भाजपा का बागी विधायक भी उनके साथ है, इसलिए विधानसभा अध्यक्ष का मत निर्णायक साबित हो सकता है.

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हो सकता है कि उत्तराखंड में अगले साल होने वाले चुनावों में कांग्रेस हार जाती लेकिन भाजपा ने अपनी ग़लतियों से कांग्रेस को और हरीश रावत को एक नया जीवन दे दिया है.

लेकिन ऐसा लगता है कि मोदी सरकार यहां पर नहीं रुकेगी और सुप्रीम कोर्ट जाएगी और एक के बाद एक ग़लतियां करती रहेगी.

(बीबीसी संवाददाता मोहनलाल शर्मा से बातचीत पर आधारित)

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