इस खबर के साथ लगी तसवीरों में आप जिस व्यक्ति को देख रहे हैं, उनका नाम जी. नाम्मलवर है. एक गंवई किसान की तरह दिखने वाले तमिलनाडु के तंजावुर जिले के निवासी नाम्मलवर दरअसल एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के कृषि वैज्ञानिक रहे हैं और उन्हें जैविक खेती का गुरु माना जाता रहा है. खेती को कम से कम खर्चीला बनाने में जीवन खपा देने वाले इस महान व्यक्ति का पिछले सोमवार(30 दिसंबर, 2013) को निधन हो गया. 75 साल के अपने जीवन के अंतिम दिनों तक सक्रिय रहने वाले नाम्मलवर ने गरीब भारतीय किसानों के लिए ऐसी-ऐसी राहें तैयार की हैं कि लोग उनके योगदान को कई पीढ़ियों तक याद रखेंगे.
रास नहीं आयी सरकारी नौकरी
1938 में तंजावुर जिले के इलंगादु गांव में पैदा हुए जी. नाम्मलवर ने अन्नामलाइ विश्वविद्यालय से कृषि विज्ञान में स्नातक की डिग्री हासिल की. 1963 में उन्होंने कोविलपट्टी स्थित एक सरकारी संस्थान एग्रीकल्चरल रीजनल रिसर्च स्टेशन में बतौर वैज्ञानिक काम करना शुरू किया. वहां उनका काम बाजरा और कपास की पैदावार में रासायनिक उर्वरकों की मात्र का आकलन करना था. उनके कार्यकाल के दौरान सरकार वर्षा आच्छादित भूमि में हाइब्रिड बीजों, रासायनिक उर्वरकों और रासायनिक कीटनाशकों के भारी इस्तेमाल को बढ़ावा दे रही थी. मगर नाम्मलवर इस प्रयोग को अनुचित मानते थे.
गरीब किसानों का हित
उनका मानना था कि वर्षा आच्छादित क्षेत्रों के किसान आम तौर पर गरीब होते हैं, उनके पास संसाधनों की कमी होती है. इस वजह से इस तरह के प्रयोग उनके लिए बहुत लाभप्रद नहीं होंगे. अपने अनुभवों के आधार पर वे चाहते थे कि इस प्रयोग को पूरी तरह से बंद कर दिया जाये और इस मसले पर नये सिरे से विचार किया जाये. मगर उनकी संस्था के प्रमुख उनके विचार से न सिर्फ असहमत थे बल्कि उसे ध्यान देने लायक भी नहीं समझते थे. हताश होकर 1969 में उन्होंने संस्थान को छोड़ दिया.
समझी किसानों की कार्यशैली
अगले 10 सालों तक वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त डोमेनिक पीयर द्वारा स्थापित संस्था आइलैंड ऑफ पीस के लिए एग्रोनामिस्ट के रूप में काम किया. इस दौरान उन्होंने तिरुनालवेल्ली जिले के कालाकड़ प्रखंड में कृषि विकास के जरिये लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के काम पर अपना ध्यान फोकस किया. इस दौरान पहली दफा उन्होंने महसूस किया कि किसान खेती से समुचित लाभ लेने के लिए बाहरी साधनों का कम से कम सहारा लेते हैं. उनके सारे संसाधन खेतों में ही उपलब्ध हो जाते हैं. खेती और दूसरे कामों में जो चीजें बेकार हो जाती हैं उन्हीं का दुबारा इस्तेमाल करते हैं और उसी से उत्पादन को बढ़ाते हैं. यह अनुभव उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ. इसके बाद खेती को बढ़ावा देने वाली मौजूदा व्यवस्था से उनका मोहभंग हो गया और उन्होंने लंबे समय तक कायम रहने वाली कृषि पद्धतियों पर शोध करना शुरू कर दिया.
फ्रीअरे और विनोबा भावे का प्रभाव
1970 के आखिरी सालों में नाम्मलवर पाउलो फ्रीअरे और विनोबा भावे से काफी प्रभावित हुए. खास तौर पर उनके इस सिद्धांत से कि शिक्षा का उद्देश्य आजादी होना चाहिये. आजादी का मतलब आत्म निर्भरता है और सामान्य भाषा में इसका अर्थ यह है कि लोग अपनी आवश्यकताओं के लिए दूसरों पर कम से कम निर्भर हो. दूसरी बात यह कि इंसान जो ज्ञान हासिल करता है उसका इस्तेमाल उसके अपने जीवन को बेहतर बनाने में होना चाहिये. और इसके अलावा एक इंसान को अपने ऊपर नियंत्रण रखने में सक्षम होना चाहिये, कम से कम वह अपनी भावनाओं और विचारों पर नियंत्रण रख सके.
बनायी अपनी संस्था
इसके बाद उन्होंने अपनी इस नयी सीख का इस्तेमाल किसानों की हालत सुधारने में किया. 1979 में उन्होंने कुडुम्भम नामक एक संस्था की स्थापना की. संस्था का मंत्र था कि बगैर एक्शन के शिक्षा का कोई अर्थ नहीं और शिक्षा के बिना कोई काम करने का भी कोई मतलब नहीं. इस संस्था के जरिये उन्होंने स्थानीय किसानों से संपर्क कर उनकी जरूरतें समझी और उनकी जरूरत को देखते हुए कृषि पद्धतियां विकसित कीं. उन्होंने 1987 में नीदरलैंड में इटीसी फाउंडेशन द्वारा आयोजित 4 हफ्ते के प्रशिक्षण पाठय़क्रम में भागीदारी की. 1990 में उन्होंने लो एक्सर्नल इनपुट एंड सस्टेनेबुल एग्रीकल्चर नामक नेटवर्क की स्थापना की.
इस नेटवर्क का काम प्रकृति आधारित खेती को बढ़ावा देना था और किसानों को आत्म निर्भर बनाना था. साथ ही यह ध्यान देना था कि किसानों को खेती के लिए बाहरी संसाधनों पर कम से कम निर्भर रहना पड़े. उसी साल उन्होंने इकॉलाजिकल रिसर्च सेंटर की स्थापना की जो पुडुकोट्टी जिले के वर्षा अच्छादित क्षेत्रों के लिए काम करता है.
सुनामी के बाद किसानों की मदद
दिसंबर, 2004 में सुनामी की भीषण आपदा ने पूरे दक्षिण भारत को तबाह कर दिया. उस तबाही के दौर में नाम्मलवर ने खुद को पुनर्वास की प्रक्रिया में पूरी तरह झोंक दिया. 2005 का पूरा साल उन्होंने नागपट्टनम जिले के किसानों के पुनर्वास में लगाया. 2006 में अपने काम को आगे बढ़ाते हुए वे इंडोनेशिया के सुनामी प्रभावित किसानों की मदद करने के लिए वहां चले गये. नाम्मलवर ने पूरी दुनिया में घूमकर विभिन्न कृषि पद्धतियों का अध्ययन किया था और इस अनुभव से जो सीख मिली उसे किसानों की मदद के लिए लागू कराया. उन्होंने वैकल्पिक कृषि पद्धतियों पर कई किताबें लिखी हैं. मगर उनका भारतीय किसानों को सबसे बड़ा योगदान है उन्हें यह आत्मविश्वास दिलाना कि खेती के लिए बाहरी संसाधनों की अधिक जरूरत नहीं. लोग अपने घरों और खेतों में उपलब्ध साधनों से भी बेहतर खेती कर सकते हैं.
अंतिम यात्रा में बांटे गये हजारों पौधे
नाम्मलवर की लोकप्रियता और उनके विचारों के लोगों पर प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी अंतिम यात्रा में लोगों ने हजारों पौधों का वितरण किया ताकि उनके नाम से लगे पौधों से यह धरती लंबे समय तक हरी-भरी रह सके. जाने-माने कृषि विशेषज्ञ दविंदर शर्मा कहते हैं कि देश भर में उन्हें इकॉलॉजिकल एग्रीकल्चर का भीष्म पितामह माना जाता रहा है. वे अपने आप में हरित और सस्ती खेती की यूनिवसिर्टी थे.
जिस तरह अकले उन्होंने गांव-गांव घूमकर किसानों को सस्ती खेती की राह दिखायी उसकी जितनी सराहना की जाये कम है. आम तौर पर वे कुरता और दक्षिण भारती धोती पहना करते थे, पिछले दिनों जब उनसे मिलना हुआ तो मैंने देखा कि उन्होंने कुरता पहनना भी छोड़ दिया था. मैंने पूछा तो उन्होंने कहा कि दुनिया में कितने लोगों को यह कुरता नसीब है जो इसे मैं पहनूं. वे अपने किस्म के दुर्लभ गांधीवादी कृषि वैज्ञानिक थे. हालांकि उनकी उम्र अधिक हो गयी थी, मगर उनकी सक्रियता में कोई कमी नहीं आयी थी.